त्वत्सेवनात्परमभावमुपैति भक्त्या, संसारघोरगहनान्न बिभेति भक्त

गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई जौं विरंचि शंकर सम होई

Updated: Nov 20, 2020, 12:13 PM IST

 श्री सदगुरु शरणम्
त्वत्सेवनात्परमभावमुपैति भक्त्या, संसारघोरगहनान्न बिभेति भक्त:।
*तीर्ण:स्वयं कृपणवत्सल तारयाज्ञं*,
*संसारतार मम देहि करावलम्बम्*।।
अर्थ-  भक्ति द्वारा आपकी सेवा करने से परमभाव को प्राप्त होता है और संसार रूपी घोर जंगल से डरता नहीं है। हे कृपण वत्सल! आप स्वयं (संसार सागर को) पार कर चुके हैं, मुझ अज्ञानी को भी तार दीजिए। हे संसार सागर से पार लगाने वाले सदगुरु देव! मुझे अपने कर कमलों का अवलम्बन दीजिए।
*गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई*।
*जौं विरंचि शंकर सम होई*।।
यहां गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने बहुत बड़ी चुनौती के रूप में गुरु महिमा को प्रकट किया है। कहते हैं कि ब्रह्मा और शंकर के समान ही सामर्थ्य वान क्यूं न हो,पर सदगुरु देव की शरणागति के बिना वह भव सागर से पार नहीं हो सकता। एक बार जीव के ऊपर भगवान भी यदि कुपित हो जायं तो सदगुरु देव उसकी रक्षा कर देते हैं। लेकिन कदाचित गुरु देव कुपित हो जायं तो उस जीव की रक्षा भगवान भी नहीं कर सकते।
*राखहिं गुरु जौं कोप विधाता*।
*गुरु विरोध नहिं कोउ जग त्राता*।।
इसका एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण श्री राम चरित मानस में आता है।धनुर्भंग के अवसर पर  भृगुपति श्री परशुराम जी महाराज स्वयंवर सभा में उपस्थित होते हैं और श्री लक्ष्मण कुमार से उनकी वार्ता होती है उस समय कुछ व्यंग्योक्ति के द्वारा श्री लक्ष्मण कुमार मुस्कुराते हुए उत्तर देते हैं। तो उनके इस व्यवहार से अप्रसन्न राघव ने थोड़ी तिरछी दृष्टि से कुमार की ओर देखा तो लक्ष्मण जी गुरु देव के समीप चले गए।
*सुनि लछिमन विहंसे बहुरि*,
*नयन तरेरे राम*।
*गुरु समीप गवने सकुचि* *परिहरि वानी वाम*।।
जब कुमार को लगा कि प्रभु श्री राम हमसे नाराज़ हो गए हैं तो वो *राखहिं गुरु जौं कोप विधाता* के सिद्धांतानुसार गुरु देव के श्री चरणों के पास चले गए। इसलिए कहा गया है कि- *गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः*
   इसलिए हम सभी को एक मात्र गुरुदेव के करावलंबन का ही सहारा है।
           *नर्मदे हर*