अनिर्वाच्यमूर्तिं हि भेदादिशून्यं, विभुं रक्षकं लोकपालं प्रसन्नं, रमाकांत देवं सदा मोक्षरूप, मुकुंद स्वरूपं गुरुं वै नमाम:

जो लोग अपने कल्याण की इच्छा रखते हैं, उन्हें अपने इष्ट, गुरु और आत्मा में अभेद भाव से साधना करनी चाहिए, तभी वह साधना फलीभूत होती है

Updated: Nov 09, 2020, 02:26 PM IST

अनिर्वाच्यमूर्तिं हि भेदादिशून्यं
विभुं रक्षकं लोकपालं प्रसन्नं
रमाकांत देवं सदा मोक्षरूपं
मुकुंद स्वरूपं गुरुं वै नमाम:

श्लोकार्थ- जिनके स्वरूप को इदमित्थं रूप से नहीं कहा जा सकता। जो अनिर्वाच्य हैं (जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति अथवा सत्व,रज,तम अथवा स्थूल, सूक्ष्म, कारण) आदि भेदों से रहित हैं। व्यापक हैं, रक्षक हैं, सभी लोकों का पालन करने वाले हैं। तथापि खेदयुक्त नहीं, प्रसन्न हैं। रमापति जो सदैव मोक्ष स्वरूप हैं ऐसे विष्णु स्वरूप सदगुरु देव को हम नमन करते हैं।
यहां यह जान लेना आवश्यक है कि ईश्वर का ही दूसरा नाम गुरु है। इसीलिए जो-जो लक्षण ईश्वर के हैं वे सम्पूर्ण लक्षण गुरु देव के भी हैं।अन्तर्यामित्व, सर्वव्यापकत्व जैसे अनेक गुण ऐसे हैं जो गुरु देव भगवान में प्राप्त होते हैं। इसलिए कहीं भगवान को गुरु देव के रूप में-
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं
तो कहीं गुरुदेव को भगवान के रूप में- 
गुरु: सक्षात् परब्रह्म

कहकर नमन करते हैं। सदगुरु की इतनी अपार महिमा होने पर भी कुछ मंदबुद्धि लोग गुरु को भी सामान्य मनुष्य मान बैठते हैं, उनको सचेत करते हुए देवर्षि नारद जी धर्म राज युधिष्ठिर जी से कहते हैं कि-
 यस्य साक्षात् भगवति
ज्ञानदीप प्रदे गुरौ।
 मर्त्यासद्धी: श्रुतं तस्य
 सर्वं कुंजर शौचवत्।।

अर्थात् हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रज्वलित करने वाले गुरुदेव साक्षात् भगवान ही हैं जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है उसका समस्त शास्त्र श्रवण हाथी स्नान के समान व्यर्थ ही है। "मर्त्यासद्धी": का अर्थ है 
अस्मत् सदृशो मर्त्य एवासावित्यसतीबुद्धि:
जैसे मैं मनुष्य शरीर धारी हूं, वैसे ही गुरु भी मेरे समान ही तो हैं। जिसकी ऐसी बुद्धि हो उसके लिए "मर्त्यासद्धी":शब्द कहा गया है। उसका शास्त्र श्रवण हाथी स्नान के समान व्यर्थ है। जैसे हाथी सरोवर में स्नान करने के बाद बाहर आकर पुनः अपने शरीर पर धूल फेंक कर स्नान को निष्फल बना देता है, उसी प्रकार गुरु को मनुष्य मानने वाले की विद्या फलीभूत नहीं होती।
एष वै भगवान साक्षात्,
प्रधान पुरुषेश्वर:।
योगेश्वरैर्विमृग्यांघ्रि:,
लोको में मन्यते नरम्।।

 बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरण कमलों का अनुसंधान करते रहते हैं। प्रकृति और पुरुष के अधीश्वर वे स्वयं भगवान ही गुरु देव के रूप में प्रकट हुए हैं, इन्हें लोग भ्रम से मनुष्य मानते हैं। अतः जो लोग अपने कल्याण की इच्छा रखते हैं उन्हें अपने इष्ट, गुरु और आत्मा में अभेद भाव से साधना करनी चाहिए, तभी वह साधना सफलीभूत होती है।