जड़ नहीं चैतन्य है आनंद

आत्मा सबको सर्वाधिक प्रिय है और जिसमें प्राणी का सर्वातिशायी प्रेम होता है, उसी में उसको आनंद की अनुभूति होती है

Publish: Jul 22, 2020, 12:05 PM IST

मनुष्य की स्वाभाविक लालसा आनंद प्राप्ति के लिए होती है। यद्यपि आनंद का कोई भौतिक रूप नहीं है फिर भी संसार उसके लिए व्याकुल रहता है। वह आनंद रहित जीवन से मृत्यु को अच्छा समझता है। वेदांत सिद्धांत के अनुसार आनंद निरुपाधिक रूप में सबका अन्तरात्मा है। आत्मा सबको सर्वाधिक प्रिय है और जिसमें प्राणी का सर्वातिशायी प्रेम होता है, उसी में उसको आनंद की अनुभूति होती है। इसलिए आनंद और आत्मा एक ही है।

आत्मा से अभिन्न आनंद जड़ न होकर चैतन्य है। जो लोग जड़ विषयों में आनंद की खोज करते हैं, वे नासमझ हैं। अनुकूल विषयों का जब इन्द्रियों से सन्निकर्ष होता है तब चित्त में प्रसन्ननता और एकाग्रता के कारण आत्मचैतन्य की क्षणिक अभिव्यक्ति होती है, यही विषयानंन्द है। चित्त की बाह्य साधन सापेक्ष स्थिरता स्थायी नहीं हो सकती। इसलिए धर्माचरण से इन्द्रियों और मन को संयत करके अन्तर्मुखता लाने का प्रयास किया जाता है। जिससे बाह्य विषयों से निरपेक्ष होकर निर्वासनिक अन्त:करण द्वारा उस स्वस्वरूप आनंद का साक्षात्कार किया जा सके। उपनिषदों में बताया गया है-

  यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।

  बुद्धिश्च न विचेष्टति, तामाहु: परमां गतिम्।।

अर्थात् जब मन के सहित पांचों ज्ञानेन्द्रियां शांत हो जाती हैं, बुद्धि भी विचार रूपी चेष्टा का त्याग कर देती है,उसको विज्ञ जन परमगति कहते हैं।

इसी अवस्था का दूसरा नाम निर्विकल्प समाधि है। निर्विकल्पता दो वृत्तियों की सन्धि में सहज ही आती रहती है। वृत्ति को ही विकल्प कहते हैं। एक विकल्प के नष्ट होने के अनंतर जब-तक दूसरे विकल्प का उदय नहीं हुआ तब तक निर्विकल्प चैतन्य का स्पष्ट भान होता है। प्राण और अपान के मध्य में सुषुप्ति और जाग्रत के मध्य में दृष्टि केन्द्रित करने पर इसकी अनुभूति होती है। योग वाशिष्ठ में कागभुशुण्डि से जब जिज्ञासा की गई कि 'आप किस देवता की उपासना करते हैं' तो उसके उत्तर में उन्होंने कहा-

     प्राणापानयोर्मध्ये चिदात्मानमुपास्महे।

अर्थात् प्राण और अपान के मध्य जो चैतन्य आत्मा है, मैं उसी की उपासना करता हूं। इसी को सहज समाधि कहते हैं।