सहज सुख से ही दूर होगी मन की अशांति

सकाम कर्मों से भी चित्त की शुद्धि होती है क्यूंकि शास्त्रों को मानने वाला निषिद्ध त्याग देता है पर निष्काम कर्मों से तत्काल शुद्धि होती है

Updated: Jul 27, 2020, 12:14 PM IST

श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भगवत्प्राप्ति का साधन मन की निर्मलता को ही बताया है।

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

जब पांचों इन्द्रियां मन के सहित निष्चेष्ट हो जाती हैं तब उस अवस्था में सहज सुख की अभिव्यक्ति होती है।सुख उत्पन्न नहीं होता केवल उसकी अभिव्यक्ति होती है। प्रयत्न अभिव्यक्ति के लिए किए जाते हैं उत्पत्ति के लिए नहीं। जितने भी साधन हैं,वे सब अन्त:करण को निर्मल बनाने में सहायक हैं। क्यूंकि स्वच्छ और शान्त अन्त:करण में ही परमानंद स्वरुप आत्मा की छाया पड़ती है।

इसका सबसे सुदृढ़ साधन है तीव्र वैराग्य। निवृत्ति से अनुभूत होने वाला सुख भी प्रवृत्ति होने पर नष्ट हो सकता है पर आत्मसाक्षात्कार से जिसने अपने स्वरूप भूत सहज सुख का अनुभव कर लिया, उसका सुख अखण्ड और अनंत होता है पर इसके लिए प्रबल वैराग्य की अपेक्षा होती है। शान्त दान्त उपरत और तितिक्षु ही इस पथ का पथिक हो सकता है। इससे सरल भक्ति मार्ग है। भक्ति में अपने इष्टदेवता के प्रति परम प्रेम ही उन सभी अवस्थाओं का अनुभव करा देता है, जिनके लिए योगी और ज्ञानी प्रयत्न शील रहते हैं।प्रेम की व्याख्या करते हुए महर्षि शांडिल्य ने कहा है कि -

 गुण रहितं कामना रहितं, प्रतिक्षणं वर्द्धमानं अनिर्वचनीयं, प्रेम स्वरूपं मूकास्वादनवत्

अर्थात् जो भगवत्संबन्धी प्रेम है वह गुण और कामनाओं से रहित होता है, और जो प्रतिक्षण बढ़ता ही जाता है, ऐसे प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है, गूंगे के स्वाद के समान। प्रेम से भाव समाधि लग जाती है जिसमें अपने इष्टदेवता के रूप में उसी परमतत्व का अनुभव होता है,जो ज्ञानियों के ज्ञेय ब्रह्म है।

ज्ञानियों के ज्ञेय और भक्तों के भजनीय में कोई अन्तर नहीं है। दोनों में चित्त की शुद्धि अपेक्षित है।शरीर का मल जल से दूर होता है, पर चित्त का मल धर्म का पालन करने से ही दूर हो सकता है। धर्म सामान्य और विशेष भेद से दो प्रकार का होता है। सामान्य धर्म का पालन मानव मात्र कर सकता है। श्रीमद्भागवत में सामान्य धर्म के तीस लक्षण बतलाए गए हैं। और मनु के अनुसार धृति-क्षमा आदि धर्म के दस लक्षण जो बताए गए हैं वह भी सभी के लिए हैं। सामान्य धर्म ही विशेष धर्म का आधार है। विशेष धर्म-वर्ण और आश्रम के अनुसार अपने अपने कर्त्तव्य के पालन को कहा जाता है।यदि निष्काम भाव से इनका पालन किया जाए तो शीघ्र ही चित्त की शुद्धि हो जाती है।

शास्त्रों के अनुसार सकाम कर्मों से भी चित्त की शुद्धि होती है। क्यूंकि शास्त्रों को मानने वाला निषिद्ध कर्मों का त्याग कर देता है पर निष्काम कर्मों से तत्काल शुद्धि होती है। हमारा प्रयत्न मन को निर्मल बनाकर उसे भगवत्भक्ति और ब्रह्म साक्षात्कार के योग्य बनाने के लिए होना चाहिए। पवित्र मन में ही भगवत् स्वरूप की स्फूर्ति होती है।

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

निर्मल मन से ही पवित्र भावों का उदय होता है।उसी सरोवर की तरंगें निर्मल होती हैं जो स्वच्छ होता है।सहज सुख से ही मन की अशांति और चंचलता सदा के लिए दूर होती है।

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ विहीन समीरा।।

सुख की अभिलाषा के प्रशमन का यही एक अचूक उपाय है। हमें सुख के लिए भौतिक साधनों के संचय- सम्पादन से विरत होकर आध्यात्मिक साधनों का आश्रय लेना चाहिए। आध्यात्मिक साधना की अनेक सीढ़ियां हैं, इसलिए प्रत्येक स्तर का मनुष्य इनका अनुष्ठान कर सकता है। गुरुवर के उपदेशानुसार आइए हम विचार करें और प्रयत्नों को सही दिशा प्रदान करें।