निर्मल होने के साथ मन का अचल होना भी आवश्यक

मन का सर्वथा निर्मल होना, निर्विषय होना अति आवश्यक है, पापवासना, विषयवासना जैसे मल से रहित मन को ही कह सकते हैं निर्मल मन

Updated: Sep 29, 2020, 11:35 PM IST

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।

अचल और निर्मल मन ही धर्म रथ के रथी के लिए त्रोण अर्थात् तरकस है। भगवान शंकर कहते हैं कि जिनका मन रूपी मुकुर मलिन है और विवेक नेत्रों से जो रहित हैं वो दीन श्रीराम के रूप को भला कैसे देख पाएंगे? जैसे अब अपना प्रतिबिंब देखने के लिए दर्पण है। वैसे ही पहले मुकुर हुआ करता था जो लोहे का होता था।मुकुर को इतना अधिक साफ किया जाता था कि उसमें अपना मुख दिखने लगता था।पर उस मुकुर में दोष यह था कि इसमें जंग लग जाती थी। काई लग जाने से उसमें मुख साफ नहीं दिखाई देता था। अब यहां पर मन को मुकुर कह रहे हैं तो जंग क्या है? तो गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि - काई विषय मुकुर मन लागी। मन मुकुर में विषय की काई लग गई हो तो इससे आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता।।

इसलिए मन का सर्वथा निर्मल होना, निर्विषय होना अति आवश्यक है। मन की निर्मलता क्या है? यह समझने की बात है। हमारे शरीर में यदि मैल लग जाए तो उसको पानी से धोकर छुड़ा सकते हैं, कपड़ों में मैल लग जाए तो साबुन और पानी से छुड़ा सकते हैं लेकिन मन का मैल क्या है और कैसे छूटेगा? मन में जो विषय वासनाओं की आशा है यही मन का मैल है पापवासना, विषयवासना को ही मल कहते हैं। इस मल से रहित जो मन है उसी को हम निर्मल कह सकते हैं।

जानिअ तब मन विरुज गुसाईं। जब उर बल विराग अधिकाई।।

सुमति क्षुधा बाढ़इ नित नई। विषय आस दुर्बलता गई।।

विषय की आशा ही दुर्बलता है। और मनुष्य का विरक्त हो जाना ही मन का सबल और निरोग होना है। जब मन वासना रहित हो जाएगा तब परमात्मा का दर्शन होता है। मन की निर्मलता के साथ साथ अचल (निश्चल) होना भी परम आवश्यक है।

यह माना जाता है कि कुछ वेदांत के अधिकारी जिज्ञासु कृतोपासी होते हैं और कुछ अकृतोपासी होते हैं। कृतोपासी उसे कहते हैं जिसने उपासना के द्वारा सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है। तो सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार करने से कृतोपासी का अन्त:करण समाधिस्थ हो चुका है। उन कृतोपासी अधिकारी को केवल श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मुखारविंद से शोधित पदार्थों की एकता के बोधक महावाक्यों के श्रवण मात्र से ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। एक क्षण का भी विलम्ब नहीं होता। लेकिन जो अकृतोपासी हैं, जिनका चित्त अभी चंचल है, मलिन है मन में भगवान का आराधन किया ही नहीं। उनके मन की मलिनता दूर नहीं हो सकती। इसलिए गोस्वामी जी ने विनय पत्रिका में कहा है कि-

 रघुपति भगति वारि छालित, चित्, बिनु प्रयास ही सूझै।

तुलसिदास यह चिद् विलास, जग, बूझत बूझत बूझै।।

भगवान की भक्ति रूपी जल से छालित जो चित् है  उस चित्त में बिना प्रयास के ही परमात्मा का दर्शन हो जाता है। अपने आप उसको सूझ जाता है ब्रह्म को छोड़कर दूसरी वस्तु है ही नहीं। 

वासुदेव: सर्वमिति इस प्रकार जिसकी धारणा है। स महात्मा सुदुर्लभ: ऐसा महात्मा दुर्लभ है। जिन्होंने अपनी भक्ति से अपने मन का मैल दूर कर लिया है उसी को भगवान का दर्शन होता है। जैसे निर्मल नेत्र से सूर्य का स्पष्ट दर्शन होता है उसी प्रकार निर्मल मन वाले को परमात्म तत्व का बोध हो जाता है।

अमल अचल मन त्रोन समाना इसलिए एकबार मन का पूर्ण रूप से शान्त, निर्विकल्प होना आवश्यक है।एक नदी के प्रवाह के नीचे नदी तल में एक चट्टान में दिव्य मणि थी। तो लोग मणि को देख नहीं पाते थे। एक महात्मा ने अपने योग बल से उस नदी की धारा को रोक दिया। धारा रुकी, तो वह चट्टान दिखने लगी और मणि स्पष्ट दिखाई पड़ गई। फिर उसके बाद धारा चल पड़ी। महात्मा के मन में संदेह नहीं हुआ कि मणि है कि नहीं। इसी प्रकार जो चित्त की धारा चल रही है घटाकार, पटाकार, मठाकार। इस धारा का जब विच्छेद हो तो इसके तल में जो चेतन ब्रह्म है उसका अनुभव हो, उसका साक्षात्कार हो।

मन को निर्मल बनाने के साथ उसका अचल होना भी आवश्यक है।

अमल अचल मन त्रोन समाना