Menstrual day 2020 : मजदूरिन को पीरियड्स भी तो आया होगा

मजदूरिन की व्यथा: जब आधी आबादी सड़कों पर थी, किसे ध्यान था कि महिलाओं की सेहत खराब हाइजीन की वजह से भी बिगड़ सकती है

Publish: May 29, 2020, 04:30 AM IST

Photo courtesy : AP
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ट्रक और ट्रालियों में भेड़ बकरियों की तरह भरे मजदूरों में मेरी निगाह उस मजदूरिन पर टिक जाती है हर बार, जो खुद को एक सामान की तरह समेटे एक कोने में बैठी है। मुझे उसके खाने पीने की उतनी चिंता नहीं होती। फिक्र ये होती है  कि इतने आदमियों के बीच क्या वो कह पाई होगी कि मुझे पेशाब जाना है गाड़ी रोक दीजिए ज़रा.. सफर के बीच में पीरियड्स भी तो आए होंगे और जो पैदल चल रही है, पीरियड्स की हालत में लगातार चल पाना कैसे मुमकिन हुआ होगा उसके। जांघे कितनी बुरी तरह छिल गई होंगी। फिर दर्द की तो जैसे कोई हद ही नहीं। किसी स्त्री के लिए ये तकलीफें सार्वजनिक करना भी शर्म का हिस्सा है, लिहाजा मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक मजदूरों को हर एंगल से लिखा पढा गया। लेखों कविताओं की बाढ आई लेकिन मजदूरिनों के सरोकार से जुड़ी ये बेहद जरुरी बात उस तरह से दर्ज नहीं हुई.......

कितनी मजदूरिन हुई होंगी यूटीआई की शिकार

मजदूरिन के पीरियड्स की तारीख देखकर ना लॉकडाउन हुआ। ना तारीख देखकर घर से निकलने की तैयारी की थी उसने। ना वो इतनी संपन्न है कि एक थैले में अपनी गृहस्थी समेटते समय वो पूरी एहतियात से अपनी माहवारी का इंतज़ाम कर पाती। जब ज़िंदगी जमीन से उखड़ रही हो तो ये ख्याल आता भी कहां है.. बीच जंगल में कहां मिल पाया होगा उसे कोई कपड़ा। कपड़े खराब हुए होंगे और जो दर्द और तकलीफ उसने भुगती होगी। कोरोना के संक्रमण से ज्यादा खतरनाक है गंदे कपड़ा का लगातार महावारी में इस्तेमाल करना। इससे होने वाले इन्फैक्शन जानलेवा  हैं। हजारों की तादाद में निकले मजदूरों में कितनी महिलाएं यूटीआई ( यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन) की शिकार हुई होंगी। कितनी ही महिलाएं माहवारी के बैक्टिरियल इन्फेक्शन से गुज़र रही होंगी । कोरोना पर सिमटी जांचों में इसकी पड़ताल कहां होगी.।

पैड्स बंटे तो मगर देर से

राजधानी भोपाल के नजदीक नेशनल हाईवे पर सामाजिक संगठनों ने मदद के लिए जो काउंटर लगाए गए उसमें सैनेटरी पैड्स बहुत देरी से शामिल हुआ। लगातार प्रवासी मजदूरों के बीच काम कर रही रोली शिवहरे बताती हैं, शुरुआत में तो फिक्र बच्चों की थी और इस बात की कि लगातार भूखे प्यासे पैदल चल रहे मजदूरों को भोजन पानी समय से मिल जाए। पहली जरुरत यही थी लिहाजा सबका फोकस भी इसी पर गया लेकिन जब भोजन की तरफ मदद के हाथ बढने लगे तो फिर सरोकार का दायरा भी बढा।

रोली बताती हैं कि पूड़ी सब्जी, छाछ, चाय-बिस्किट, दूध-फल दर्जनों से बंटे लेकिन जब हम महिलाओं को सैनेटरी पैड्स देते थे उनके चेहरे पर जो तसल्ली दिखाई देती थी, उस वक्त वो ये महसूस करती हों जैसे कि किसी ने वाकई उनकी तकलीफ समझी है। जो वो शायद इस मुश्किल सफर में किसी से साझा नहीं कर पाईं। पैड्स तो यूं भी उनकी पहुंच में नहीं। पैड्स मिल जाने के बावजूद सड़कों पर चलते हुए माहवारी हुई होगी। आसान तो तब भी नहीं है लेकिन कुछ राहत तो मिली होगी...

लेकिन आधी आबादी के सवाल जैसे समाज में दरकिनार कर दिए जाते हैं। बिल्कुल वैसे ही किनारे हैं शायद उसकी ज़रुरतें भी...वरना हाईवे पर दूध छाछ, पूड़ी सब्जी, पानी, जूते चप्पलों के साथ सैनेटरी पैड्स का भी एक कोना होता। एक ज़रुरी कोना।