संसदीय समितियों के घटते उपयोग पर उठे सवाल, 2019 के बाद सिर्फ 12 फीसदी बिलों पर हुआ विमर्श

विवादास्पद कृषि बिल वापसी के बीच बिना विचार-विमर्श के कानून बनाने का बढ़ते ट्रेंड पर चौतरफ़ा सवाल उठाए जा रहे हैं.. पूर्व इलेक्शन कमिश्नर एएवाई क़ुरैशी ने इसे घटती लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जोड़ा है.. विपक्ष के नेता और कोर्ट तक इस पर। सवाल उठा चुके हैं

Updated: Nov 30, 2021, 01:24 PM IST

Photo Courtesy: Freepress Journal
Photo Courtesy: Freepress Journal

नई दिल्ली। संसद के शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन केंद्र सरकार ने बिना विचार-विमर्श और बिना संसदीय चर्चा की परंपरा का पालन किए कृषि कानूनों की वापसी से जुड़े विधेयक को पारित कर दिया। विपक्ष द्वारा सरकार के इस रवैये का खासा विरोध किया जा रहा है। इसी बीच कुछ आंकड़े सामने आए हैं जिनके माध्यम से संसद में सत्ता की मनमानी को सामने लाने का प्रयास किया गया है।

अमूमन विवादास्पद बिलों को केंद्रीय समतियों के पास भेजने और उस पर गहन चर्चा के बाद पास कराने का रिवाज अब लगभग खत्म सा होता जा रहा है। केंद्रीय संसदीय समियों की घटते उपयोग को इस तरह समझा जा सकता है कि 14वीं लोकसभा (2004-2009) में तकरीबन 60 फीसदी बिल विमर्श के लिए संसदीय समितियों के पास भेजे गए थे। इससे पहले यूपीए-2 के दौरान यानी 15वीं लोकसभा में 71 फीसदी बिलों को संसदीय समितियों के पास भेजा गया था। लेकिन बीजेपी शासित नरेंद्र मोदी सरकार में इस परंपरा को काफी तेजी से दरकिनार किया गया। पीएम मोदी के पहले कार्यकाल यानी 16वीं लोकसभा में महज 27 फीसदी ही ऐसे बिल थे जिन्हें विमर्श के लिए संसदीय समितियों के पास भेजा गया। 

यह भी पढ़ें: 5 साल में 6 लाख से ज्यादा लोगों ने छोड़ी भारत की नागरिकता, मोदी सरकार ने दी जानकारी

और 17वीं लोकसभा यानी पीएम मोदी के दूसरे कार्यकाल में तो इस आंकड़े में और भी तेजी से गिरावट आई है। पिछले करीब दो साल के कार्यकाल में महज 12 फीसदी ही ऐसे कानून हैं, जिन्हें संसदीय समितियों के पास भेजा गया है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने इन आंकड़ों पर नाराजगी जताई है। डॉ एसवाई कुरैशी ने इसका ग्राफिक्स साझा कर लिखा है कि, 'यह क्या हो रहा है? कोई आश्चर्य नहीं है कि हम क्यों ग्लोबल डेमोक्रेसी इंडेक्स में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। लेकिन खुद में सुधार करने की बजाए हम उनके मेथेडोलॉजी पर ही सवाल उठाने लगते हैं।' 

संसदीय परंपराओं के अनुसार, जब किसी विधेयक पर संसद में आम सहमति नहीं बन पाती, तो उस पर विपक्षी दलों और विशेषज्ञों की राय के लिए संसदीय समितियों के पास गहन विमर्श हेतु भेजा जाता है। संसदीय समिति में उस बिल से जुड़े सभी हितधारक, विशेषज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी और संसद के सदस्य गहन चिंतन मंथन करते हैं। यह जानने की कोशिश होती है कि किसी भी बिल का आम नागरिकों के जीवन पर क्या असर होगा और इससे जुड़ी सभी भविष्य की सभी संभावनाओं पर विचार होता है। तब संसद के सदस्य उचित निर्णय ले पाते हैं कि आखिरकार बिल के साथ क्या किया जाए या उसमें कौन सी तब्दीली की जाए।

यह भी पढ़ें: किस बात की माफी, बिल्कुल नहीं, सरकार के माफीनामे वाले प्रस्ताव पर राहुल गांधी का पलटवार

बीते कुछ सालों में इस परंपरा को दरकिनार करने के अनेक उदाहरण देखने को मिले हैं। अधिकांश बिलों को संसदीय समितियों के पास भेजना तो दूर संसद में भी बिना बहस कराए उसे पास करा दिया जा रहा है। मसलन कृषि कानूनों को संसद में बिना बहस के एक साथ पारित करा दिया गया। कानून की अच्छे बुरे पहलुओं पर कोई चर्चा नहीं हुई तो किसानों ने सड़क पर संसद लगा-लगाकर (नाट्य रूपांतर) इस कानून के पहलुओं पर चर्चा शुरू कर दी। बहरहाल भारी विरोध के बीच कृषि के तीनों विवादास्पद कानूनों को वापस ले लिया गया। लेकिन संसदीय परंपराओं को मानने वाले इस बात से खिन्न हैं कि न तो बिल पास कराते हुए और न ही बिल को वापस लेते हुए संसद में बहस करायी गयी। सूचना और प्रौद्योगिकी मामले में संसदीय समिति के चेयरमैन शशि थरूर ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि इसीलिए कृषि कानूनों जैसे आपदा होते हैं। 

मौजूदा समय में अधिकांश बिल उसी सत्र में ही कानून बन जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि यह पहली सरकार है जिसने कानून बनाने में जल्दीबाजी की हो, लेकिन पहले की सरकारें संसदीय मर्यादाओं के आगे झुकती थीं जो अब नहीं हो रहा। मसलन साल 2009 से 2014 के बीच 15वीं लोकसभा में 18 फ़ीसदी बिल ऐसे थे, जो उसी सत्र में कानून बन गए जिस सत्र में उन्हें पेश किया गया। लेकिन पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद 16वीं लोकसभा से यह ट्रेंड बदलने लगा और 2014 से 2019 के बीच 33 फ़ीसदी बिलों को उसी सत्र में पास कराके कानून की शक्ल दे दिया गया। 17वीं लोकसभा के 2 साल और कुछ महीने बीते हैं लेकिन इस दौरान सरकार की तरफ से पेश किए गए 70 फ़ीसदी से ज्यादा बिल उसी सत्र में कानून बन गए जिस सत्र में लाए गए।

इतना ही नहीं मसला ये भी है कि जब संसद चले तब तो बहस की गुंजाइश हो। सत्तापक्ष विपक्षी दलों पर लगातार संसद को बाधित करने का आरोप लगाती है। लेकिन विपक्ष भी संसद इसी मांग को लेकर करता कि हमसे चर्चा की जाए और सरकार हमारे सवालों का जवाब दें। 

यह भी पढ़ें: ट्विटर के CEO बनते ही विवादों में घिरे पराग अग्रवाल, दक्षिणपंथी ट्रोल्स ने बनाया निशाना

सत्ता पक्ष का आरोप है विपक्षी सांसद शोरगुल कर अपनी बात मनवाना चाहते हैं, बहस नहीं चाहते इसलिए ऐसा होता है। विपक्ष का आरोप है कि सत्ता पक्ष सासंदों के सवालों का जवाब देना ही नहीं चाहता और एकतरफा फैसले कर रहे हैं। विधेयकों में बदलाव की कोई स्वीकार्यता ही नहीं है इसलिए बहस के बिना बिल पास हो रहे हैं और कानून बनाए जा रहे हैं। 

यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार कानूनों के इंटेंट यानी मंशा पर सवाल उठाए हैं। कोर्ट का कहना है कि संसद में इस पर बहस नहीं हुई इसलिए यह समझना मुश्किल होता है कि कानून बनाने का उद्देश्य क्या था और सरकार किस मकसद से इसे लेकर आयी थी। असल में कानूनी फैसलों और आम जनता के लिए न्याय पर भी सरकार की इस मनमानी का असर पड़ रहा है।