कुर्सी के लिए पार्टी बदल कर जनता को ठग लेते हैं नेता

मध्यप्रदेश के मौजूदा राजनीतिक संकट तथा हॉर्स ट्रेडिंग पर सुप्रीम कोई में नागरिक याचिका दायर की गई है। याचिका में कहा गया है कि मध्यप्रदेश में पिछले 15 दिनों में विधायकों द्वारा किये गये बर्ताव से हम बहुत व्यथित हैं और भयाक्रांत हैं। हमें लग रहा है कि हमें राज्य के राजनैतिक दलों द्वारा ठगा गया है। जब हम मतदान करते हैं तब हम राज्य में एक स्थिर और सक्रिय सरकार के पूरे कार्यकाल की अपेक्षा करते हैं हमें यह अपेक्षा नहीं की थी कि हमारे यानी नागरिकों द्वारा चुने गये विधायक अपनी निजी निष्ठा के लिये नागरिकों के विश्वास की बलि चढ़ा देंगे।

Publish: Mar 17, 2020, 12:08 PM IST

jyotiraditya scindia joined BJP
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भोपाल। 

सुप्रीम कोर्ट में दायर नागरिक याचिका में सामाजिक कार्यकर्ता चिन्‍मय मिश्र और सचिन जैन ने कहा कि हम, भारत के लोग और मध्यप्रदेश के मतदाता मध्यप्रदेश के वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से व्यथित होकर सीमित उपलब्ध समय में नागरिकों के रूप में यह खुली याचिका आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। हम दोनों चिन्मय मित्र तथा सचिन जैन ने वर्ष 2018 के चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग किया था तथा लोकतंत्र को मजबूत करने में एक भूमिका निभाई, क्योंकि हमें इस देश के संविधान पर अटूट विश्वास है और हमें गर्व है कि हम इस देश में रहते हैं। तमाम समस्याओं में भी इस देश के संविधान ने वचिंत तथा शोषित वर्ग तथा आम नागरिक में हिम्मत और साहस प्रदान किया है।

हम एक जिम्मेदार मतदाता हैं तथा जनप्रतिनिधियों को चुनने की प्रक्रिया सोच समझ कर करते हैं, इसलिए अपेक्षा करते हैं कि संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप जिन्हें भी बहुमत मिले, उन्हें सरकार चलाने का पूर्ण अवसर मिलना चाहिये। किन्तु भारत में जनप्रतिनिधित्व के इतिहास और पिछले कुछ वर्षों में अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर, गोवा, कर्नाटक, गुजरात और अब हमारे नहीं, किसी विधायक या मंत्री ने हमसे नहीं पूछा। इतना ही नहीं, हमने अखबारों में पढ़ा और कई वीडियो में देखा कि ये सभी प्रतिनिधि किसी एक प्रभुत्वशाली और प्रभावशाली राजनेता के प्रति अपनी निष्ठा की व्याख्या कर रहे हैं, और उनके (प्रभावशाली राजनेता) के हितों को साध के साधने की नियत से त्याग पत्र देने का निर्णय कर रहे हैं। क्या यह संवैधानिक कारण माना जाये, क्या यह नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीति है? हमें लगता है कि इस पक्ष पर हमारा जनप्रतिनिधित्व कानून और दल बदल कानून भी मौन सा ही है।

निष्‍ठा बदलने के लिए 100 करोड़ का ऑफर

मध्यप्रदेश में नवंबर 2018 में विधानसभा के चुनाव हुए तथा एक नई सरकार अस्तित्व में आई, जिसने लगभग 15 माह कार्य किया तथा वर्तमान में राजनैतिक रूप से अस्थिर प्रतीत होती है।  मध्यप्रदेश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति असमंजस की है और डरावनी भी| मध्यप्रदेश की सरकार विश्वास मत साबित कर पाती है या नहीं यह मामला वर्तमान में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है। मीडिया के माध्यम से हम पिछले दो हफ्तों से यह सुन को निष्ठा बदलने के लिये 100-100 करोड़ रुपये दिये जाने के विकल्प रखे गये हैं। ये सूचनायें हमें बहुत डरा रही हैं। हम इन सूचनाओं को काल्पनिक और झूठ नहीं मान पा रहे हैं क्योंकि हमें इन विधायकों ने कभी कोई सूचना ही नहीं दी कि ये कौन सी भूमिका का निर्वाहन नहीं कर पा रहे थे? अब हम सोचते हैं कि यदि विधायकों की खरीद फरोख्त एक सच्चाई है और इसमें हजारों करोड़ रुपये का लेन देन हो रहा है, तो इसका मतलब है कि भ्रष्ट आचरण के जरिये ही यह राशि जुटाई जायेगी। इससे मध्यप्रदेश में गरीबी, कुपोषण, भुखमरी, बेरोजगारी, खराब अस्पताल और सड़कें, पानी का संकट बना रहेगा। हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारे प्रतिनिधि किसके खर्च पर, शायद हमारे ही खर्च पर किसी और प्रदेश में आराम कर रहे हैं और यहाँ जनता स्तब्ध है इस दुराचरण का अब अंत होना चाहिये।

निम्न स्तरीय दलीय राजनीति पर मौन क्‍यों रहें?

हम इस तरह की निम्न स्तरीय दलीय राजनीति पर मौन नहीं रहना चाहते हैं और आपसे अपेक्षा करते हैं कि आप नागरिकों को जीवित इकाई और इस प्रकरण में पक्षकार मानते हुए हमें अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान करेंगे। हैं और पढ़ रहे हैं कि एक-एक विधायक हम नागरिक की हैसियत से, संविधान की सबसे पहली पंक्ति "हम, भारत के लोग" के पद पर आसीन व्यक्तियों के रूप में आपके समक्ष उल्लेखित करना चाहते हैं कि मध्यप्रदेश में घट रहा घटनाक्रम केवल दो दलों, यानी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच की हित साधक क्रीड़ा के रूप में न देखा जाये। वास्तविक स्थिति यह है कि राजनीतिक दलों द्वारा नागरिकों और मतदाताओं को अपना उपनिवेश मान लेने की सोच से जुड़ा हुआ है। हम इस सोच को स्थाई सोच नहीं बनने देना चाहते हैं, क्योकि यह सोच और इससे जुड़ी सभी क्रियाएं असंवेधानिक, अनैतिक तथा अमानवीय हैं। आज, जिस वक्त भारत में कोरोना वायरस के कारण महामारी फैलने की आशंका बढ़ रही है, यहाँ तक की माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर संज्ञान लेते हुए कदम उठायें हैं, उस वक्त हमारे राजनीतिक दल, सता और ताकत के लिये वीभत्स व्यवहार कर रहे हैं। यह व्यवहार हमें व्यथित कर रहा है। हम राजनीतिक और सरकारी व्यवस्था में अपना विश्वास कमज़ोर होते देख रहे हैं। समस्या यह है कि सरकार के अनैतिक कार्यों पर विचार व्यक्त करने पर सरकार, राजनीतिक दलों और अन्य संगठन नागरिकों के साथ बदले की कार्यवाही करने लगे हैं। ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि राजनीतिक दलों ने मान लिया है कि जनता को कुछ कहने और बोलने का अधिकार ही नहीं है, पर हम आपसे इस अधिकार पर भी व्याख्या चाहते हैं। साथ ही क्या मताधिकार का प्रयोग करने के बाद नागरिकों का कोई अस्तित्व नहीं रहता

आर्थिक संकट के दौर में क्‍यों खड़ा किया राजनीतिक संकट

यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में भारत एक गंभीर आर्थिक संकट से भी गुज़र रहा है, भारत ने पिछले 45 वर्ष में सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर है तथा बेरोजगारों की आत्महत्या भी बढ़ी है।  यस बैंक जैसे बड़े बैंक को भी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा और वह धराशाही हो गया।  ऐसे कठिन समय में भी राजनैतिक दलों में आपसी सामंजस्य नहीं होना तथा वार्तालाप की स्थिति नहीं होना किसी भी तरह से स्वस्थ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का संकेत नहीं है।

"हम भारत के नागरिक जिनका भारत के इस संविधान पर अटूट विश्वास है इन सभी विपरीत परिस्थितियों के होने के बावजूद भी राजनीतिक दलों के इस व्यवहार से स्तब्ध और भयभीत हैं। हम यह मानते है कि बतौर नागरिक सिर्फ मतदान करना ही लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में हमारा कर्तव्य पूर्ण हो जाना नहीं है हमें यह भी अधिकार है और हमारा यह कर्तव्य भी है कि हम अपने चुने हुए जनप्रतिनिधियों के आचार-व्यवहार पर अपनी टिप्पी दें तथा आवश्यकता होने पर आलोचना भी कर सकें।  इसी प्रकार जनप्रतिनिधियों का कर्तव्य मात्र यह नहीं है कि वे मत पाकर किसी व्यक्ति विशेष के प्रति आस्था रखें और दल-बदल की राजनीति करें।  उनका कर्तव्य जनता के प्रति है और वे अपने हर कृत्य के लिए जनता के प्रति जवाबदार हैं, परन्तु शायद उन्हें यह नहीं लगता इसलिए चुन लिए जाने के बाद वो अपनी आस्था जनता से हटा देते हैं । हमें यह भी लगता है कि अब हमें हर रोज सुबह संविधान की प्रस्तावना का पाठ अनिवार्य रूप से करना ही होगा। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर, भगतसिंह, राममनोहर लोहिया, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण को पुनः नए सिरे से समझना होगा देरी तो गई है पर अभी भी बात बन सकती लोकतंत्र ही संविधान की आत्मा है। हर हाल में इसे कायम रखना होगा।

संविधान के प्रहरी होने के नाते हमारी आपसे विनम विनती है कि उपरोक्त वर्णित बातों पर ध्यान दें तथा इन परिस्थितियों की संवैधानिक मूल्यों के आधार अनुसार व्याख्या की जानी चाहिए तथा इन्हें मात्र बहुमत एवं अल्पमत के आधार पर ही नहीं वरन राजनीतिक प्रक्रिया में नैतिकता एवं अनैतिकता के मानदंडों पर भी व्याख्यित करना आवश्यक तथा न्यायसंगत है।