गांधी की अहिंसक सत्याग्रही पुलिस बनाम क्रूरता के नए मानदंड बनाती वर्तमान पुलिस

हम एक कठोर कानून बनाते हैं, थोड़े दिन बाद उससे ज्यादा कठोर कानून बना दिया जाता है और यह क्रम लगातार चलता ही जा रहा है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पुलिस व प्रशासन को अधिकतम मानवीय बनाने की दिशा में तुरंत कार्य किया जाए। गांधी जी कहते हैं, "सच्चा लोकतंत्र या जनसाधारण का स्वराज्य असत्य और हिंसापूर्ण उपायों से कभी नहीं आ सकता। इसका सीधा कारण यह है कि इनको काम में लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि विरोधियों का दमन या विनाश करके विरोध हटा दिया जाएगा। इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता पनप नहीं सकती।

Updated: Oct 01, 2021, 12:03 PM IST

Photo Courtesy: Navbharat times
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"अहिंसक राज्य में भी पुलिस की जरुरत हो सकती है। मैं स्वीकार करता हूँ कि यह मेरी अपूर्ण हिंसा का चिन्ह है। मुझमें फौज की तरह पुलिस के बारे में भी घोषणा करने का साहस नहीं है कि हम पुलिस की ताकत के बिना काम चला सकते हैं।" महात्मा गांधी

भारतीय पुलिस व्यवस्था के नवीनतम कारनामे असम के मोहनुल की सीने पर लगी गोली और उस पर नाचता पत्रकार और मृत देह पर लाठी बरसाते पुलिसकर्मी तथा उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में व्यापारी मनीष गुप्ता की पिटाई से हुई मौत के रूप में हमारे सामने हैं। हर साल कितने लोग पुलिस हिरासत में मारे जाते हैं, कितने गोली से मारे जाते हैं, मारपीट के शिकार होते हैं, थानों में बलात्कार के कितने मामले होते हैं, या आजादी के बाद से पुलिस की गोलियों से कितने निहत्थे मारे गए हैं, की संख्या जान लेने से रोंगटे तो खड़े हो जाएंगे लेकिन तब भी समस्या का निराकरण हो पाना कठिन ही होगा। इस गांधी जयंती पर भारतीय पुलिस की मानसिकता पर विचार करना जरूरी प्रतीत हो रहा है क्योंकि मानसिकता से ही कार्यशैली बनती है और कार्यशैली क्रियान्वयन का माध्यम बनती है।

आज से लगभग 100 बरस पहले 4 फरवरी 1922 का दिन याद कीजिए। इस दिन असहयोग आंदोलन के चलते भीड़ ने चौरी-चौरा के एक पुलिस थाने में आग लगा दी थी। इस अग्निकांड में 3 नागरिकों की व 22 पुलिसकर्मियों की जिंदा जलने से मौत हो गई थी। इसके बाद महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर रोक दिया था। इस कांड में 150 लोग गिरफ्तार हुए थे। इनका मुकदमा पं. मदन मोहन मालवीय ने लड़ा था। इनमें से 15 लोगों को फांसी की सजा हुई और 14 को आजीवन कारावास।

गांधी जी ने इस घटना के लिए स्वयं को जवाबदार ठहराया और 5 दिन का उपवास किया। इतना ही नहीं उन्होंने मुकदमों के दौरान अधिकतम सजा की बात की थी। उनका मानना था कि भविष्य के लक्ष्य के लिए वर्तमान में हो रही हिंसा को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। हिंसा राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति का साधन नहीं हो सकती। स्वशासन व स्वराज के लिए आत्म अनुशासन अनिवार्य है। वे यह भी कहते हैं कि कोई भी तथा आत्मरक्षा में भी असफल लोगों की निर्मम हत्या को न्यायोचित नहीं ठहरा सकता। लोगों को भीड़ की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता। यह भी कि वे नागरिक असहयोग आंदोलन करने से पहले अब 50 बार सोचेंगे।

गौरतलब है कि गांधी यह सब उन पुलिसकर्मियों के लिए कह रहे थे, जिन्हें ब्रिटिश शासन खुद उनके और उनके साथ सक्रिय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के खिलाफ इस्तेमाल कर रही थी। तब पुलिस भी बेहद क्रूरता से पेश आती थी। परंतु गांधी एक ऐसे स्वाधीन भारत की कल्पना कर रहे थे, जिसमें अत्याचार करने वालों के प्रति भी घृणा की गुंजाइश नहीं थी। भारतीय पुलिस को सोचना चाहिए कि वे किस विरासत के साक्षी हैं। ऐसा माना जाता है कि उस दौरान असहयोग आंदोलन इतना व्यापक हो चुका था कि अंग्रेजों के मन में भारत छोड़ने का विचार बलवती होता जा रहा था। परंतु गांधी ने असहाय पुलिसकर्मियों की हत्या से दुखी और नाराज होकर आंदोलन वापस लिया और कहा कि देश अभी अहिंसक आजादी के लिए तैयार नहीं है।

क्या भारतीय पुलिस के कर्ताधर्ता जिसमें राजनीतिक व प्रशासनिक नेतृत्व दोनों शामिल हैं, इस घटना से सबक लेंगे कि भारतीय अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम कितना पवित्र व दूरदृष्टि भरा था | यह पुलिसकर्मियों को आज भी बहुत कुछ समझा सकता है | परंतु कहीं ना कहीं पुलिस अभी भी उसी औपनिवेशिक मानसिकता की संवाहक बनी हुई है।

गांधी कहते हैं, "मेरी कल्पना की पुलिस आजकल की पुलिस (यह बात उन्होंने 1-9-40 को कही थी) से बिल्कुल -भिन्न होगी| उसमें सभी सिपाही अहिंसा मानने वाले होंगे। जनता के मालिक नहीं सेवक होंगे। लोग स्वाभाविक रूप में ही उन्हें हर प्रकार की सहायता देंगे और आपस के सहयोग से दिन दिन घटने वाले दंगों का आसानी से सामना कर पाएंगे।" परंतु आज स्थिति ठीक इसके विपरीत है। थाने में घुसते ही अंदर तक डर समा जाता है, भले ही आप शिकायत करने ही क्यों न गए हों।

भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पुलिस थानों में होने वाले अत्याचारों पर खुलकर राय दी है। यह सोचने का विषय है कि पुलिस बजाए अहिंसक व सत्याग्रही होने के हिंसक और भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाली क्यों बन गई है? किसी एक घटना विशेष को लेकर बात करना अब अर्थहीन हो गया है | साथ ही यह भी अब कमोवेश सुनिश्चित हो गया है कि वर्तमान पुलिस व्यवस्था में सुधार की कोई गुंजाइश बची ही नहीं है | इस प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन ही करना होगा। जिस तरह से हम जितना आर्थिक सुधारों की बात करते हैं, आम आदमी के हाथ से उतनी आर्थिक स्वतंत्रता छीन ली जा रही है| ठीक उसी तरह से पुलिस सुधार के नाम पर एक के बाद एक नए दमनकारी कानूनों का निर्माण हो रहा है और आम जनता लगातार हाशिये पर जाती जा रही है। सोचिए क्यों 50 वर्षों बाद भी हरिशंकर परसाई के व्यंग "इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर" को पढ़कर लगता है कि जैसे आज ही लिखा गया हो। आधी शताब्दी में कोई बड़ा परिवर्तन पुलिस प्रणाली में क्यों नजर नहीं आता?

गांधी आगे समझाते हैं, " पुलिस के पास किसी न किसी प्रकार के हथियार तो होंगे, परंतु उन्हें कवचित ही काम में लिया जाएगा। असल में तो पुलिस वाले सुधारक बन जाएंगे | उनका काम मुख्यतः चोर डाकुओं तक सीमित रह जाएगा।" आदर्श स्थितियों की बात तो दूर की है, आज तो सामान्य पुलिस व्यवस्था भी जनता के अनुकूल नहीं है। रोज समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि पुलिस प्रमुख से मिलने या अपील करने के बाद ही थाने में रिपोर्ट दर्ज हो सकी। यह स्थिति हत्या व बलात्कार तक के मामलों में भी बनती है। आजादी के 75वें वर्ष मैं एक छोटी सी छड़ी लिए व्यक्ति की छाती में सीधे गोली मार देने का क्या औचित्य है? होटल में सोते व्यापारी को पीट-पीटकर मार डालने के पीछे कौन सी मानसिकता है? पुलिस अभय के लिए है या दहशत फैलाने के लिए? गांधी और चौरी-चौरा से जुड़ी एक और घटना पर गौर करिए। 4 फरवरी 1922 कुछ चौरी-चौरा कांड के बाद वायसराय ने यह कहते हुए कि, "दल (कांग्रेस) में असहयोग की नीति को लेकर कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है।"

गांधीजी की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। बम्बई सरकार ने 9 मार्च को गांधी जी की गिरफ्तारी का निर्णय लिया। उसके एक दिन पहले ही गांधीजी अहमदाबाद का रवाना हो गए थे। 10 मार्च की शाम को अहमदाबाद के उप पुलिस अधीक्षक अपनी कार से साबरमती आश्रम पहुंचे। रास्ते में उन्हें शंकरलाल बंकर मिले। उप पुलिस अधीक्षक ने उनसे कहा कि मेरे पास आपका और गांधी का गिरफ्तारी वारंट है। बंकर ने उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित की और कहा मैं आपके आने की प्रतीक्षा कर रहा था।

गांधी जी का सामान जमाने को कहा। पुलिस अधिकारी के आने पर गांधी जी ने उन्हें बधाई दी कि वे बिना किसी सहायक के आए हैं । उन्होंने आश्रम वासियों से अपना प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तेने कहिए' गाने को कहा और जाते-जाते उनसे कहा, "अपनी प्रत्येक सांस से भारत के सभी समुदायों के बीच शांति और सद्भाव का प्रचार करो।" तनाव के उन चरम दिनों में भी तत्कालीन पुलिस व्यवस्था व सत्याग्रहीयों के मध्य जो अहिंसक व प्रेममय वातावरण था, यह घटना उसकी मिसाल है। आज जब पुलिस किसी राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता की गिरफ्तारी को जाती है, तो लगता है, जैसे 100- 200 पुलिसकर्मियों के बिना गिरफ्तारी संभव ही नहीं है।

आम जनता और पुलिस के बीच अलगाव की वजहों पर बहुत गंभीरता से मनन करना आवश्यक है। हमें यह भी समझना होगा कि सत्याग्रह केवल आंदोलन या सार्वजनिक मूल्य नहीं है, यह व्यक्तिगत मूल्य भी है। सत्य के प्रति आग्रह। भारत की शासन व्यवस्था दिनों दिन कठोर से कठोरतम होती जा रही है। इस परिस्थिति पर विचार करना आवश्यक है। कठोरता कभी भी परिणाममूलक नहीं होती। हम एक कठोर कानून बनाते हैं, थोड़े दिन बाद उससे ज्यादा कठोर कानून बना दिया जाता है और यह क्रम लगातार चलता ही जा रहा है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पुलिस व प्रशासन को अधिकतम मानवीय बनाने की दिशा में तुरंत कार्य किया जाए। गांधी जी कहते हैं, "सच्चा लोकतंत्र या जनसाधारण का स्वराज्य असत्य और हिंसापूर्ण उपायों से कभी नहीं आ सकता। इसका सीधा कारण यह है कि इनको काम में लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि विरोधियों का दमन या विनाश करके विरोध हटा दिया जाएगा। इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता पनप नहीं सकती।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता विशुद्ध अहिंसा के शासन में ही पूरी तरह से काम कर सकती है।" आज जो परिस्थिति हमारे सामने हैं उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लगातार गौण बनाने की कोशिश की जा रही है। पुलिस का रवैया ऐसा क्यों है, हम सभी जानते हैं लेकिन उसमें परिवर्तन की कोशिश भी नहीं हो रही है। दिनोंदिन बलप्रयोग की मात्रा बढ़ती ही जा रही है। प्रशासन अपनी अधिकांश गतिविधियां या कार्यवाही पुलिस के माध्यम से ही करवाने में रुचि रख रहा है। इससे पुलिसकर्मियों का व्यवहार लगातार कठोर होता जा रहा है। असम के गांव या जंगलों से अतिक्रमण हटाना हो या राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से बस्ती को खाली करना हो तो बलप्रयोग के अलावा और कोई दूसरा रास्ता निकाला ही नहीं जा रहा है। पुलिस लगातार एकपक्ष बनती जा रही है, जबकि उसे कमोवेश तटस्थ होना चाहिए। दुरुपयोग का आरोप जैसे अब कोई मायने नहीं रखता।

पुलिस का व्यवहार आज के सबसे विचारणीय प्रश्नों में से है। क्या हम एक अहिंसक सत्याग्रही व तटस्थ या निरपेक्ष पुलिस बल की कल्पना कर सकते हैं? अगर कल्पना करेंगे तो ही तो वह साकार भी हो सकती है। आज हम आपसी विश्वास की कमी और प्रेम के प्रति अरुचि से पीड़ित हैं। क्या भारतीय पुलिस जनता से प्रेम करने का प्रयास करेगी? क्या भारतीय जनता पुलिस से प्रेम करने को तत्पर हो पाएगी। हमारे प्रशासनिक तंत्र जिसका पुलिस भी एक हिस्सा है कि मुख्य समस्या यह है कि उसने कानूनों को तो बहुत ध्यान से पढ़ा है परन्तु संविधान को लागू करने और उसका अक्षरशः पालन कराने में उसकी कतई रुचि नहीं है। बिना संविधान को सामने रखे एक न्यायपूर्ण व्यवस्था बन पाना संभव ही नहीं है। यदि हमारा तंत्र आपसी प्रेम और संविधान को एक साथ रखकर निर्णय ले तो एक सत्याग्रही पुलिस के विचार को साकार किया जा सकता है।