लोकतंत्र के मुखौटे और सिंधिया की राजनीतिक 'आत्‍महत्‍या'

ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या कर रहे हैं जिनकी आँखें ही कांग्रेस की गोद खुली थीं? वे भाजपा में शामिल हो चुके हैं। यह दावा किया जा रहा है कि छुटके सिंधिया को मान-सम्मान-स्थान नहीं मिला। तथ्य कुछ और कहते हैं। इतिहास के पहले चुनाव हारने वाले सिंधिया होने के बाद भी महज 20 विधायकों के उनके गुट ने कैबिनेट और मंत्रिपरिषद की कमाई-मलाई की सीटें कब्जाई हुयी थीं। सिंधिया के भाजपा में जाने की असल वजह सत्ता लिप्सा और पद लोलुपता की वह विचारहीन राजनीति है।

Publish: Mar 12, 2020, 08:50 PM IST

jyotiraditya scindia joined BJP
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- बादल सरोज (लेखक मार्क्‍सवादी विचारक हैं)

हुआ बहुत फ़टाफ़ट। 4 मार्च को दिनदहाड़े मध्यप्रदेश के 10 विधायक भाजपा चुरा ले गयी। दो अलग अलग चार्टर्ड विमानों में बिठाकर 6 को खट्टर के हरियाणा में मानेसर और येदियुरप्पा के कर्नाटक में बैंगलोर के महँगे होटलों में जमा कर दिया गया। अगले दिन पांच मार्च को कांग्रेस इनमे से 6 को वापस लूट लाई। बाकी 4 में से 2 खुद "लौट" आये हैं; देर सबेर शेष 2 भी आ ही गए। मुकाबले का यह राउंड भाजपा के ऑपरेशन लोटस को हराकर ऑपरेशन कमल (नाथ) ने जीत लिया है। अखबारों में छपी खबरों और दावों के अनुसार ऑपरेशन लोटस में हरेक विधायक को 35-35 करोड़ रुपये दिए गये/दिए जाने थे।

अभी इनकी ठीकठाक वापसी हुयी भी नहीं थी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने होलिका दहन कर लिया। अपने खेमे के 17 विधायकों से विधानसभा से इस्तीफे दिलवा दिए और खुद ने कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से नाता तोड़ लिया। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मध्यप्रदेश के विधायक, जहां उन्हें होना चाहिए था उस म.प्र. को छोड़ बाकी सब जगह थे। कुछ येदियुरप्पा की मेहमानी में बैंगलोर में थे तो काफी सारे खट्टर की निगहबानी में हरियाणा के गुरुग्राम में थे और बाकी गहलोत के राजस्थान की राजधानी जयपुर में थे। कोरोना के डर से खुली होली न खेलने वालो के लिए सनसनीखेज मनोरंजन के पात्र बने हुए इस से उस चार्टर्ड प्लेन में सवारी गाँठ रहे थे।

यह धतकरम स्थानीय नहीं है - अखबारों में प्रकाशित छवियों से उजागर हुआ है कि खुद अमित शाह इस अभियान की कमान संभाले हैं। उन्होंने पहले मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र करने की कोशिश की - अब कर्नाटक करने पर आमादा हैं।

भाजपाईयों के; हमारे पास अमित शाह है, ईडी है, सीबीआई है तुम्हारे पास क्या है - सिन्ड्रोम के बावजूद उनका आत्मविश्वास घटा हुआ है - वे खुद अपने विधायकों को लेकर घबराये हुए हैं। मध्यप्रदेश में कमलनाथ हैं जो पुराने खिलाड़ी भी हैं और अम्बानी-अडानी जैसे उद्योग घरानों के दोस्त होने के साथ खुद कारपोरेट भी हैं। दिग्विजय सिंह है जिनकी पारंगतता से भाजपाई खासतौर से आशंकित रहते हैं। इसलिए जैसी कि कहावत है कि; नमक से नमक नहीं खाया जा सकता। उन्हें डर है कि कमलनाथ, जो उनके दो विधायक पहले ही गड़प कर चुके हैं, कहीं कुछ और को भी हड़प न कर जाएँ। इसलिए होली की शाम से ही उन्हें घेरघार कर बंदी बनाया हुआ है।

जनादेश उलटने की नटवरलाली धूर्तता

यह सब प्रहसन कॉर्पोरेट छाप के संसदीय लोकतंत्र के मानदण्ड से भी कुछ ज्यादा ही नीचे गिरा हुआ है। यह भारतीय राजनीति में खरीदफरोख्त को पूरी निर्लज्जता के साथ करने को चार्ल्स शोभराजी कौशल तक पहुंचाने और चुनावी जनादेश को उलटने के लिए हर संभव धूर्तता के इस्तेमाल को नटवरलाली माहात्म्य स्तर का सम्मानजनक बनाने में भाजपा का एक और योगदान है। हाल ही में उसने इसे महाराष्ट्र में जिस भौंड़े तरीके से आजमाया था उसकी याद ताजी हैं। हरियाणा, कर्नाटक, मेघालय से बिहार तक इन आजमाइशों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। असल में भाजपा-संघ गिरोह सिर्फ संविधान के समतामूलक, भेदभाव निरोधक प्रावधानों के ही खिलाफ नहीं है। लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली और राज्यों के अधिकारों का प्रावधान करने वाला संघीय ढाँचा ध्वस्त करना भी उसके फौरी लक्ष्यों में शामिल है।

मर्यादा तोड़ने को कहा चाणक्‍य नीति

संसदीय लोकतंत्र की सर्वमान्य मर्यादाएं तोड़ना उसने - और उसके पालतू मीडिया ने - चतुराई का काम साबित कर रखा है, इसे चाणक्य-नीति तक का दर्जा दे रखा है। मध्यप्रदेश में भाजपा की चिंता राज्यसभा की एक और सीट जीतने से ज्यादा अपने घपलों, घोटालों के उजागर होने और उनके चलते अनेक नामी भाजपाईयों के जेल पहुँच जाने की है। कमलनाथ के पास कुछ सीडी भी हैं जो इन संस्कारियों में से ज्यादातर के आचरणों का पर्दा उठाती हैं। इसके अलावा भाजपा को जल्द से जल्द मध्यप्रदेश की सरकार भी चाहिए ताकि कमाई के साथ साथ जनता के बीच विभाजन के अपनी नीतियों को आगे बढ़ा सकें और जिसका हिन्दू परम्पराओं से कोई रिश्ता नहीं है उस कथित हिन्दू राष्ट्र को बनाने के रास्ते के सारे वास्तविक और आभासीय अवरोध हटा सकें। सीएए, एनपीआर और एनआरसी के त्रिशूल को देश भर की जनता में घोंप सके।

यह तो संघ के एजेंडे को पूरा करना हुआ

मगर मामला इससे भी आगे का - आरएसएस के एजेंडे को पूरा करने की दिशा में बढ़ने का भी है। संघ ने संसदीय लोकतंत्र को कभी नहीं माना। इसके नेता और विचारक-प्रचारक इसे मुण्ड-गणना बताकर हमेशा इसका तिरस्कार करते रहे हैं और बाकायदा लिखापढ़ी में चन्द "गुणवान, पैदाइशी संस्कारवान और धनवान" लोगो को ही राज करने के योग्य बताते रहे हैं। इस तरह के अपने अलोकतांत्रिक कर्मो और खरीदा-बेची के कामों से वे, तात्कालिक लक्ष्यों को हासिल करने के साथ अपनी इस वैचारिक धारणा के लिए ही मैदान सजा रहे होते हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली का मखौल उड़ा रहे होते हैं, जनता के बीच उसे हास्यास्पद बना रहे होते हैं।

मगर इस सबमे वे सिंधिया क्या कर रहे हैं जिनकी आँखें ही कांग्रेस की गोद खुली थीं? वे भाजपा में शामिल हो चुके हैं। उनके समर्थक और प्रशंसक भी मानते हैं कि वे हाराकीरी (खुद अपने हाथों अपनी राजनीतिक ह्त्या) कर रहे हैं। उनकी भाजपा नेत्रियां बुआयें - वसुंधरा और यशोधरा - कहती हैं कि "भाजपा में शामिल होकर वे अपनी वंश परम्परा का पालन कर रहे हैं।" दादा जीवाजीराव सिंधिया हिन्दू सभाई थे, दादी विजयाराजे जनसंघ को बियाबान से बाहर लाने वाली बड़ी वाली भाजपाई थीं। उन्ही की राह चल रहे हैं। मगर यह अर्द्ध सत्य है। इन सिंधियाओं की साम्प्रदायिक उन्मादी विरासत बेटियों में ही गयी और इस तरह मातृसत्ताक ही रही। माधव राव सिंधिया इससे पूरी तरह अलग ही नहीं रहे बल्कि खिलाफ भी थे।

पिता की विरासत से अलग हुए ज्‍योतिरादित्‍य

राजनीतिक रूप से बालिग़ होने के बाद से माधवराव पूरी दृढ़ता के साथ भाजपा और संघ के विरोधी रहे। दर्जनों बार उन्होंने अपनी पीड़ा सार्वजनिक भी की। वे कहते थे कि "महल की संपत्ति हड़पने के लिए इन संघियों ने सरदार आंग्रे के साथ मिलकर माँ बेटे को अलग कर दिया, ये देश को भी तोड़ेंगे।" ग्वालियर के सीपीएम दफ्तर पर एक सुबह संघियों के हमले के बाद दिल्ली से सबसे पहला फोन उन्ही का आया था। अगले दिन शाम को वे ग्वालियर आ भी गए थे, हमले की निंदा में बयान जारी करने और और कलेक्टर - एसपी की मीटिंग लेने। कुछ वक़्त के लिए कांग्रेस से अलग हुए भी तो अपनी पार्टी बनाई - भेड़ियों की जमात में नहीं गए। इसलिए भाजपा में जाकर ज्योतिरादित्य असल में असली सिंधिया की विरासत से भी अलग हो रहे हैं।

सत्ता लिप्सा और पद लोलुपता असल वजह

यह दावा किया जा रहा है कि छुटके सिंधिया को मान-सम्मान-स्थान नहीं मिला। तथ्य कुछ और कहते हैं। इतिहास के पहले चुनाव हारने वाले सिंधिया होने के बाद भी महज 20 विधायकों के उनके गुट ने कैबिनेट और मंत्रिपरिषद की कमाई-मलाई की सीटें कब्जाई हासिल की हुयी थीं। असल वजह सत्ता लिप्सा और पद लोलुपता की वह विचारहीन राजनीति है जिसे कारपोरेट की सींवन उधड़ती थैलियों ने इन दिनों पूंजीवादी राजनीति का आम चलन बना दिया है । छुटके सिंधिया इसके ताजे ताजे ब्रांड एम्बेसेडर बनने की कोशिश में हैं।   

संसदीय लोकतंत्र सिर्फ सांसदों-विधायकों जीतना भर नहीं होता, वहां से तो वह शुरू भर होता है। उसका असली काम होता है उन मुश्किलों और तकलीफों का समाधान जिनके आधार पर जनता ने उन्हें चुना है। प्रदेश में साल भर में अपने वचनपत्र को एक बार भी मुड़ कर न देखने वाली कमलनाथ सरकार के खिलाफ विकसित हो रहा असंतोष और आक्रोश और सीएए एनआरसी से लेकर जनता की बर्बादी तथा विनाश की ज्वाला भड़का रही आर्थिक स्थिति पर देश भर में अपनी भूमिका निबाहने में कांग्रेस की विफलता ही है जो इस तरह की राजनीतिक अस्थिरताओं में अभिव्यक्त हो रही है। इसलिए मध्यप्रदेश में ऊँट किस करवट बैठेगा इसका इन्तजार करने की बजाय जनता के संगठनों को इन बदलते मौसमों और हवाओं पर निर्भर रहने की बजाय जनांदोलनों की आहट को धमक में बदलना होगा सो भी फ़ौरन से पेश्तर।