अखबार दुरुस्त नहीं रहेंगे तो आजादी किस काम की: महात्मा गांधी

आज की परिस्थिति में मीडिया का जो स्वरूप हमारे सामने है वह वास्तव में बेहद अटपटा है। जो काम मीडिया को करना चाहिये था, वह उससे आँख चुरा रहा है, और इतना ही नहीं वह संवैधानिक मूल्यों अर्थात सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय के लिए संघर्षरत व्यक्तियों वर्ग व समूहों की खिलाफत कर रहा है। मीडिया विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के पक्षधरों का घनघोर विरोधी नजर आ रहा है। साथ ही प्रतिष्ठा और समता की दिशा में कार्य करने वालों का मजाक सा उड रहा है।

Updated: Oct 02, 2022, 12:41 AM IST

“समाज के लिए लड़ नहीं सकते, तो बोलो। बोल नहीं सकते, तो लिखो। लिख नहीं सकते तो, साथ दो। साथ नहीं दे सकते, तो जो लिख, बोल और लड़ रहे हैं, उनका मनोबल बढ़ाओ। और अगर यह भी नहीं कर सको तो कम से कम उनका मनोबल तो मत गिराओ, क्योंकि वे आपके हिस्से की लड़ाई लड़ रहे हैं। - महात्मा गांधी।" राष्ट्र के नागरिक को संघर्ष में भागीदारी का सुख देने का इससे सहज और सरल मंत्र क्या हो सकता है? बापू ऐसे तमाम लोग जो कि अपने घरों में शांत या निर्लिप्त बैठे रहते थे, उन्हें भी सायास अपने साथ कर लेते थे। यही उनकी सबसे बड़ी पूंजी भी थी और असाधारण क्षमता भी। 

भारत के कमोवेश प्रत्येक व्यक्ति को वे अपने साथ होना ही मानते थें। आजादी के 75वें वर्ष में भारत की परिस्थिति बेहद जटिल और दयनीय हो गई है क्योंकि समाज का एक वर्ग उन सबका मनोबल गिरा रहा है, जो उन्हीं की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस गांधी जयंती पर इस विवादास्पद स्थिति पर विचार करना कमोवेश अनिवार्यता हो गई है। यदि व्यापक नजरिए से देखें तो समझ में आता है, कि मनोबल गिराने में आज सबसे आगे ‘‘भारतीय मीडिया” है। चूंकि महात्मा गांधी ने अपने जीवन में सबसे निरंतरता के साथ पत्रकारिता ही की है, अतएव वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया को उनके नजरिए से देखना व समझना मददगार सिद्ध हो सकता है। उन्होंने सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में ‘‘इंडियन ओपीनियम” का दामन पकड़ा। शुरुआत में यह अंग्रेजी, गुजराती, तमिल और हिन्दी में प्रकाशित होता था। गांधी बताते हैं दक्षिण अफ्रीका में पहली हिन्दुस्तानी प्रेस खोलने का श्रेय मनसुखलाल नाजर को है जिसे उन्होंने गांधी जी की सलाह पर खोला था। बाद में यह अंग्रेजी और गुजराती में ही निकलता रहा। 

वे कहते हैं, ‘‘मेरा यह विश्वास है कि जिस लड़ाई का मुख्य आधार आंतरिक बल पर है, वह लड़ाई अखबार के बिना लड़ी जा सकती है। परन्तु इसके साथ मेरा यह भी अनुभव है कि ‘‘इंडियन ओपीनियन” होने से हमें अनेक सुविधाएं प्राप्त हुई, कौम को आसानी से सत्याग्रह की शिक्षा दी जा सकी और दुनिया में जहां कहीं भी हिन्दुस्तानी रहते थे, वहां सत्याग्रह संबंधी घटनाओं के समाचार फैलाये जा सके।" दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के इतिहास में वे लिखते हैं, “इस प्रकार इंडियन ओपीनियन और प्रेस दोनों ने सत्याग्रह की लड़ाई में भाग लिया। और यह स्पष्ट रूप से देखा गया था कि जैसे-जैसे सत्याग्रह की जड़ कौम में जमती गई वैसे-वैसे सत्याग्रह की दृष्टि से साप्ताहिक की और उसके प्रेस की नैतिक प्रगति भी होती गई।" गौरतलब है यह अखबार इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्होंने पहले इसमें विज्ञापन लेना बंद किया और बाद में प्रेस से अन्य छपाई कार्य भी बंद कर दिया गया। एक समय इसकी 3,500 प्रतियां बिकती थीं। उस दौरान अखबार को एक आदमी पढ़ता था और पद्रंह आदमी उसे सुनते थे। इतना ही नहीं गरीब लोग साझे में भी इंडियन ओपीनियन खरीदते थे। 

आज की परिस्थिति में मीडिया का जो स्वरूप हमारे सामने है वह वास्तव में बेहद अटपटा है। जो काम मीडिया को करना चाहिये था, वह उससे आँख चुरा रहा है, और इतना ही नहीं वह संवैधानिक मूल्यों अर्थात सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय के लिए संघर्षरत व्यक्तियों वर्ग व समूहों की खिलाफत कर रहा है। मीडिया विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के पक्षधरों का घनघोर विरोधी नजर आ रहा है। साथ ही प्रतिष्ठा और समता की दिशा में कार्य करने वालों का मजाक सा उड रहा है। इसके साथ व्यक्ति की गरिमा और बंधुता को लेकर इस माध्यम में भयानक असहिष्णुता है और राष्ट्र की एकता और अखंडता के संदर्भ में इसका दृष्टिकोण बेहद संकुचित नजर आ रहा है। यहां यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि कुछ अपवाद अभी भी मौजूद हैं, अन्यथा मेरी यह बात आप तक नहीं पहुंचती। 

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पिछले दिनों दि वायर में करणथापर ने पुस्तक, ‘‘टू किल ए डेमोक्रेसी: इंडिया पेसेज टू डेस्पोटिज्म के लेखक देवाशीष रॉय चौधरी से साक्षत्कार किया था। देवाशीष का कहना था कि भारत एक निर्वाचित तानाशाही है और नरेंद्र मोदी एक ‘‘तानाशाह” हैं। उन्होंने कहा कि यह भी सच है कि कई मुख्यमंत्री जिनमें ममता बनर्जी और के. चंद्रशेखर भी शामिल है इसी श्रेणी के हैं। जब उनसे पूछा कि, ‘‘यदि मोदी तानाशाह हैं तो फिर आप टेलीविजन स्टूडियो में यह कह पाने में कैसे सक्षम हो पाए और इसके बावजूद आजाद घूम रहे हो?’’ तो चौधरी का जवाब था, ‘‘तो क्या मुझे बाहर निकल जाने और आजाद बने रहने के लिए उनका कृतज्ञ होना चाहिए?’’ उनका कहना था कि यदि उनकी आजादी, उनके अधिकार के आधार पर स्थापित नहीं होती बल्कि शासक की सदिच्छा और दया पर निर्भर रहती है तो उनका कथन स्वमेव सिद्ध हो जाता है।"

असाधारण परिस्थितियों में मीडिया का संघर्षरत लोगों का मनोबल तोडने का रवैया बेहद खौफनाक है। गौरतलब है महात्मा गांधी ने यरवदा जेल में रहते हुए ‘‘हरिजन” का प्रकाशन प्रारंभ किया था। यह अपने आप में बिरली घटना है कि जेल में रहते हुए (हरिजन का अंग्रेजी संस्करण) एक कैदी यानी गांधी ने आरंभ किया। यह भारत का एकमात्र पत्र था जिसे जेल में रहते हुए निकाला जा रहा था। परंतु महात्मा गांधी को इसके बदले में यह वचन देना पड़ा था कि वे जिन राजनीतिक कारणों से जेल में हैं, यह पत्र उस तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप से बचेगा। बहरहाल गांधी जी को अपनी व्यापकता को सीमित करते हुए, अस्पृश्यता निवारण व समाज सुधार पर लेखों आदि को केंद्रित करना पड़ा था। इससे व्यथित हो उन्होंने सन् 1933 में नारणदास गांधी को लिखा था, ‘‘हरिजन सेवा के अलावा अन्य किसी विषय पर सोचने की मेरी क्षमता तेजी से घटती जा रही है। अन्य बातों के विषय में सोचना, बोलना अथवा करना मुझे तकलीफ देता है। मैं ऐसे कष्टदाई अनुभव से गुजर रहा हूँ, जिसकी मैं व्याख्या नहीं कर सकता।" 

यह एक पत्रकार और संघर्षशील होने की तड़प भी थी। क्या यह तड़प आज हमारे पत्रकारिता जगत में पाई जाती है? यदि किसी एक विषय पर अभिव्यक्ति नहीं हो पा रही है, तो हमें दूसरा विषय चुनना होता है, अपनी और समाज की बात करने हेतु। परंतु वर्तमान समय में तो राजनीतिक ही नहीं सामाजिक विषयों को लेकर भी जो कुछ सामने आ रहा है, वह पत्रकारिता के सिद्धांतों और मूल्यों पर खरा नहीं उतरता। अब यह बात आर्थिक पत्रकारिता पर भी लागू हो गई है। इसलिए भारत में व्यापक वैचारिक विमर्श लुप्त होता जा रहा है। ज्यादातर समाचार पत्र रंगबिरंगा पर्चा बनकर रह गए हैं। वहीं इलेक्ट्रानिक मीडिया... ये लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवेधानिक अधिकार की तो जैसे स्वयं ही अवहेलना करते नजर आ रहे हैं। बात केवल इतनी ही नहीं है, अब तो पाठकों से उनका समाचारों को जानने का अधिकार भी छीना जा रहा है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का अधिकांश समाचार माध्यमों से गायब रहना और जानबूझकर इसे नजरअंदाज किया जाना। किसी कार्यक्रम में हजारों-लाखों लोगों की निरंतर हिससेदारी भी समाचार की ‘‘सामग्री” नहीं बन पाती। वहीं उससे ज्यादा स्थान किसी स्थानीय धार्मिक आयोजन को दिया जाता है जिसमें 100-200 लोग भी शामिल नहीं रहते हैं। 

वैसे बापू सवाल कम ही पूछते थे। अधिकांशतः प्रश्न उनसे ही होते थे। परंतु काका कालेलकर बताते हैं, ‘‘एक दिन गांधीजी ने मुझे पूछा, ‘आज आश्रम में अधिकांश लोग हिन्दू ही हैं। अगर ऐसा न होकर मुसलमान या ईसाई अधिक होते तो प्रार्थना का स्वरूप कैसा होता?’ मैंने कहा, ‘‘जिस तरह हमने भिन्न-भिन्न पंथ के श्लोक लिए हैं, वैसे उनकी प्रार्थना के हिस्से भी लिए होते।’ गांधी जी ने कहा, ‘‘इतना ही नहीं, गीता की जगह कुरान शरीफ या बाइबल रख देते। हमारा आश्रम किसी एक धर्म का नहीं है। सब धर्मों का है। सबकी सहूलियत जिसमें अधिक हो वैसा ही वायुमंडल हमें रखना चाहिए। सर्व-धर्म-सम-भाव का यही अर्थ हैं।" यदि एक समाचार माध्यम को सबकी निगाहों में खरा उतरना है तो उसे सबकी बात करनी होगी, सबकी सूचना, सबका विचार सामने लाना होगा। परंतु आज तो स्थिति बहुत ही प्रतिकूल है। समाचार माध्यमों में से अधिकांश कमोवेश अप्रासंगिक हो चले हैं। उनकी महज उपस्थिति भर है, कोई सकारात्मक प्रभाव वे नहीं डाल पा रहे हैं। अधिकांश मीडिया एक विशिष्ट विचारधारा और राजनतिक वर्ग के हाथ की कठपुतली भर बन कर रह गया है।

पत्रकार और पत्रकारिता को लेकर महात्मा गांधी के निम्न विचारों पर गौर करना चाहिए, हमारे देश में जिसको दूसरा कोई काम नहीं मिलता वह यदि थोडा भी लिखना जानता हो तो अखबारनवीसी करने लग जाता है।
2 नवंबर 1924
मैं यह चाहूंगा कि हिंदुस्तान में एक अखबार तो ऐसा हो कि जिसमें शुरू से आखिरी तक सच ही हो, गंदगी न हो और लोग जिसकी इज्जत करें। 
10 नवंबर 1945
मैं भी पुराना अखबारनवीस हूँ और मैंने उस अफ्रीका के जंगल में अच्छी खासी अखबारनवीसी की है जहां हिन्दुस्तानियों को कोई पूछने वाला नहीं था। अगर ये लोग अपना पेट पालने के लिए अखबार के पन्ने भरते हैं और उससे हिंदुस्तान का बिगाड होता है दो दूसरा काम गुजारे के लिए ढूंढ लें। अखबारों को अंग्रेजी में राज्य की ‘‘चौथीशक्ति” बताया गया है। इनसे बहुत सी बातें बिगाड़ी या बनाई जा सकतीं हैं। यदि अखबार दुरूस्त नहीं रहेंगे तो फिर हिंदुस्तान की आजादी किस काम की होगी।“
12 अप्रेल 1947

अप्रैल 1947 में भारत की आजादी की औपचारिक घोषणा हो चुकी थी और महात्मा गांधी की अखबारों से जो अपेक्षा थी वह सामने आ रही थी। उपरोक्त कथन उन्होंने अपनी प्रार्थना सभा में कहा था। वे बेहतर अखबार एवं सुविचारित पत्रकारिता को भारत को मिलने वाली आजादी का आधार मान रहे थे। क्या वे गलत थे? उत्तर स्वमेव हमारे सामने है। भारत की वर्तमान दयनीय स्थिति के प्रति प्रतिकार का भाव न उठ पाने के पीछे भारतीय मीडिया जगत का अभूतपूर्त योगदान है। कुछ अपवाद अवश्य हैं, लेकिन उनकी पहुंच बेहद सीमित है। मीडिया अब महज उद्योग ही नहीं बल्कि कारपोरेट बनकर एक ऐसा समाज निर्मित करने की कोशिश में है, जिसमें धीरे-धीरे वंचितों और अल्पसंख्यकों की भूमिका नगण्य हो जाए। परंतु मीडिया यहां यह भूल रहा है कि वंचित और अल्पसंख्यकों की भारत की कुल आबादी में हिस्सेदारी करीब 85 (पिच्यासी) प्रतिशत है और इतने लोगों को नजरअंदाज कर कब तक देश और पत्रकारिता सुरक्षित रह पाएंगे।

गांधी के ही समकालीन कवि और नाटककार बर्तोल्त ब्रेष्ट सुदूर जर्मनी मे बैठकर लिख रहे थे, ‘‘और मैंने बराबर यह सोचा कि/काफी सरलतम होंगे शब्द /जब मैं कहूंगा कि हालत/हो गई है क्या चीजों की/छलनी हो जाएंगे सबके ह्दय/ कि अगर तुम खड़े नहीं होगे / अपने लिए तो / भहरा जाओगे / निश्चय ही तुम समझ सकते हो यह।" क्या मीडिया स्वयं को धराशायी होते नहीं देख पा रहा है ? क्या वह देश की अभिव्यक्ति को धराशायी होते नहीं देख पा रहा है? यदि इसका उत्तर नहीं है तो फिर मीडिया की जरुरत भी खत्म हो गई है। महात्मा गांधी ने 6 जून 1903 को इंडियन ओपीनियन से अपने पत्रकारिता के कैरियर की शुरुआत की थी और 30 जनवरी सन् 1948 को जब उनकी हत्या हुई तब तक वे पत्रकारिता की निरंतरता को कायम रख पाए। 

विशेष यह है कि जिन मूल आदर्शों को सामने रखकर उन्होंने इंडियन ओपीनियन से पत्रकारिता आरंभ की थी, 44 वर्ष बाद भी वे उन आदर्शों और मूल्यों से (पत्रकारिता के संदर्भ में) एक इंच भी डिगे नहीं। उनके आदर्श अधिक आदर्श होते गए और मूल्य अधिक मूल्यवान। उन्होंने साप्ताहिक नवजीवन को आरंभ करते समय कहा भी था, ‘‘मुझे हिंदुस्तान को कुछ संदेश देकर उसकी सेवा करना है। मेरे मन में जो कुछ विचार आए हैं, वे कल्याणकारी हैं। मैं इन सब विचारों को आपको समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। (और) ऐसा करने का सबसे बड़ा आधुनिक साधन समाचारपत्र है।" बापू को नमन