काशी, वाणारसी, बनारस या विमुक्त

काशी अपने आप में एक जीवंत सभ्यता है, संस्कृति से भी आगे की स्थिति, इसे दूरदर्शन के 55 कैमरों और भवन वास्तु में सैकड़ों हजार करोड़ रु. लगा देने से नहीं समझा जा सकता

Updated: Dec 20, 2021, 01:21 AM IST

Photo Courtesy: world  atlas
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मरणं मंगलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम।

कौपीनं यत्र कौशेय सा काशी केन मीयते।।

जहां मृत्यु भी मांगलिक है, भस्म ही अलंकरण है, लंगोटी ही चीनांशुक (बहुत पहले चीन से आयातित बहुमूल्य लाल रंग का रेशमी वस्त्र) है, उस काशी को किससे मापूँ ? अर्थात सब विधि वाम काशी नगरी की तुलना किससे करुँ?

काशी के बरस्क जब हम अयोध्या, मथुरा, अवन्तिका (उज्जैन), इन्द्रप्रस्थ या कोशल को देखते हैं तो हमें समझ में आता है कि ये सारे महत्वपूर्ण व पवित्र धार्मिक स्थल एक समय राजनीतिक सत्ता के वर्चस्व पाने का केंद्र भी रहे हैं। पर काशी कभी ऐसा नहीं कर पाया। बनारस कभी सत्ता का प्रमुख केंद्र नहीं बना। वाणारसी कभी भी सत्ता का केंद्र बिंदु नहीं रही। फिर भी काशी या बनारस या वाणारसी या 18 नामवाली यह नगरी हमेशा अपनी ही तरह से जीवंत बनी रही। फाह्यान इसे फो-लोनाई पुकारते हैं तो ह्न्सांग पो-लो निसेस। इसे विमुक्त भी कहते हैं और महाश्मशान की। यह रामनगर भी है और मोहम्मदाबाद भी। इसका हर नाम इसे एक नया आयाम देता है। हम इस शहर को जिस भी नाम से पुकारें वह उस नाम को फलितार्थ करता है अपने अर्थ को मुकम्मिल करता है।

तो काशी किसकी है? बनारस किसका है ? वाणारसी किसके दिलों में धड़कती है? काशी विश्वनाथ महादेव के साम्राज्य की राजधानी है। यहां उन्हीं के लिए प्रेम है जो मानव हित में विष पी सकते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिव उस विष को कंठ में बसाए रहते हैं, जिससे कि सृष्टि के कष्टों को लगातार महसूस कर सकें। उसका हिस्सा बने रह सकें। नीलकंठ होकर दुनिया के सबसे ऊर्जावान व बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी बने रह सकें। तो यह काशी बुद्ध की है तो बनारस उनकी करुणा को अंगीकार करने वाले गांधी का है। वाणारसी जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की जन्मस्थली भी है। काशी लक्ष्मीबाई की है तो बनारस उस्ताद बिस्मिल्लाह खान सा. का है। काशी स्वामी रामानन्द की है तो बनारस ठुकराये जाने के बावजूद कबीर का भी है। वाणारसी यदि रैदास की है तो काशी रायकृष्ण दास की है। बनारस मदनमोहन मालवीय का है और काशी जयशंकर प्रसाद की। काशी तुलसीदास की है और बनारस पं. सामताप्रसाद का। वाणारसी में प्रेमचंद का वास रहा तो बनारस में निराका का। बनारस में रामचंद्र शुक्ल रहते हैं तो काशी में जयशंकर प्रसाद। चित्रकार रामकुमार काशी में अपने चित्रों की जमीन ढूंढते हैं तो एमएफ हुसैन बनारस के घाटों में अपना केनवास रंगते हैं।

प्रणामसिंह  काशी को चित्रित करने आते हैं और यहीं रह जाते हैं। मनु पारेख अपने चित्रों से बनारस को पूरी दुनिया को समझा देते हैं। काशी में वल्लभाचार्य जन्मते हैं और दक्षिण चले जाते है। वहीं सुब्रहमण्यम भारती दक्षिण में जन्म लेने हैं और बनारस में बसते है। अगर काशी औरंगजेब के विध्वंस की साक्षी है तो अहिल्याबाई के निर्माण का गवाह बनारस है। बनारस तो पूरा का पूरा बुनकरों का है तो काशी पूरी की पूरी खिलौने बनाने वालों की है। काशी ठुमरी की है तो बनारस की कजरी है। यह भी कि बनारस गलियों का शहर है और गालियों का भी।

तो क्या-क्या गिनाएं ? काशी वह जगह है जहां सुबह न्यूक्लियर फिजिक्स पढ़ाने वाले शाम को किसी मंदिर के महंत के रूप में नजर आते हैं। बनारस में शाम पड़े एक पानवाला अपनी दुकान जल्दी इसलिए बंद कर देते है, क्योंकि उन्हें शास्त्रीय संगीत सुनने जाना है। इसी काशी में पिछले पांच हजार सालों से मणिकर्निका घाट पर चिता ठंडी नहीं हुई है और इसी बनारस में पांच हजार सालों से जीवन भी निर्बाध चल रहा है। और क्या कहे ? इतना कुछ है यहां, इतने लोग हैं यहां, इतनी विशिष्टताएं हैं बनारस की, काशी की, वाणारसी की कि गिनती लगा पाना असंभव है। इस प्रसंग पर गौर करिए। कृष्ण द्वैपायन (महर्षि व्यास) ने तय किया कि वे अब अपना बाकी का जीवन काशी में मिक्षाटन करके ही व्यतीत करेंगे। शिव ने उनकी परीक्षा लेने की सोची और पार्वती यानी अन्नपूर्णा से कहा कि समूची काशी से आज व्यास को एक दाना भी नहीं मिलना चाहिए। व्यास दिनभर भटकते रहे। कहीं से भीख नहीं मिली नाराज हो काशी को शाप दिया

माभूत त्रैपुरुषी विद्या माभूत त्रैपूरषम धनम्।

माभूत त्रैपुरुषी मुक्तिः काशी व्यासः शपन्निति।।

निराश होकर डेरे पर वापस लौटते समय एक गृहस्वामिनी ने अपनी चौखट पर उनसे अपना आतिथ्य स्वीकार करने को कहा। व्यास ने कहा मेरे सैंकड़ों शिष्य भूखे हैं। गृहस्वामिनी बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं।’’ भोजन के बाद व्यास समझ गए कि यह महादेव की ही लीला हो सकती है। उन्होंने शिव को साष्टांग किया, तो शिव ने कहा, ‘‘महर्षि! यदि काशी के वासी अहंकारी हो गए तो आपने क्रोध के वशीभूत होकर काशी को ही शाप देकर अपना संयम खो दिया। दुर्दिन में तो धैर्य की जरुरत होती है। यदि किसी को वरदान न दिया जाए तो कम से कम अभिशाप तो नहीं दिया जाना चाहिए। अन्यथा ज्ञानी और मूढ़ में अंतर ही कितना होता है मात्र बुद्धिविभ्रम का ही तो।’’

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तो काशी में कुछ भी करने से पहले बनारस को समझना होगा और बनारस को समझने के लिए वाणारसी पर ध्यान लगाना होगा। काशी के तमाम मंदिर पहली बार टूटे हों ऐसा नहीं है। पहले भी टूट चुके हैं। फिर बन गए। इसलिए यह समझ में आ जाना चाहिए कि काशी विश्वनाथ मंदिर या बनारस का महत्व इन स्थूल प्रतीकों और भव्यता से बिल्कुल नहीं है। काशी अपने आप में एक जीवंत सभ्यता है। संस्कृति से भी आगे की स्थिति। इसे दूरदर्शन के 55 कैमरों और भवन वास्तु में सैकड़ों हजार करोड़ रु. लगा देने से नहीं समझा जा सकता। इसे देवी अहिल्या बाई के नाम लेने भर से भी नहीं समझा जा सकता। भव्यता, वैभव और व्यक्तिगत दर्प के चरम पर विराजमान लोग यह नहीं समझ पाएंगे कि यह कैसे संभव है कि जिन शासकों ने इस मंदिर को तोड़ा उन्हीं के वारिसों के अधीनस्थ रहते हुए काशी में पुनः मंदिर बन जाते हैं। गलियों की एक ऐसी बस्ती बन जाती है जो वक्त - बेवक्त मानव किले में बदल जाती है। भव्यता व वैभव से परिपूर्ण लोगों को देवी अहिल्या बाई को जानना होगा, समझाना होगा।  समझना होगा कि हिन्दुस्तान में किसी और महारानी के आगे ‘‘देवी’’ शब्द या संबोधन क्यों नहीं लग पाया? अहिल्या बाई शासन करते हुए भी सादगी और सहजता की प्रतिमूर्ति थीं। वे हमेशा सफेद साड़ी में दिखीं। वे कभी सिंहासन पर नहीं बैठीं। उनके दरबार में जमीन पर गादी बिछी थी, जो उनका सिहांसन थी। कभी महेश्वर जाएं तो उनका दरबार देखिएगा। उनका दरबार आज के औसत घनाढ्य लोगों के ड्राइंग रूम से भी छोटा था। वे शिव भक्त थीं। वे प्रतिदिन 12 ज्योर्तिलिंगों के दर्शन कर उनका प्रतिरूप बना नर्मदा में विसर्जन करतीं थीं।

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अयोध्या के स्वर्ग मंदिर का पुनुरुद्वार भी उन्होंने ही किया। तमाम जगह उन्होंने मंदिर-घाट निर्माण कराए। इस सबसे अलग एक बात जो उन्हें देवी बनाती है वह है, उनका अपनी प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व। अपने बड़े से सामाज्य में कुल पांच बीघा (करीब दो एकड़) जमीन उनके अपने नाम पर थीं और उससे जो भी उत्पादित होता था, उससे ही वे अपना जीवन बसर करतीं थीं। इससे भी आगे एक और बात उन्होंने कभी अपने या अपने वंश के नाम से शासन नहीं किया। होल्करों का शासन ‘‘शिवाशाही’’ यानी शिव का शासन कहलाता है। लोकार्पाण में धन का इतना अपव्यय करने वाले राष्ट्र प्रमुख इस बात पर गौर करेंगे ? एक और बात। उस दिन उन्होंने इस परियोजना में कार्य करने वाले श्रमिकों के साथ भोजन किया। यह प्रशंसनीय है। परंतु इसे भी देवी अहिल्या बाई होल्कर के जीवन की इस घटना से जोड़िये। देवी ने महेश्वर में उस जगह नर्मदा के तट पर घाट बनाया जहां नर्मदा की गहराई उसकी पूरी यात्रा में सबसे ज्यादा है। संभवतः 300 फिट, 17 साल की अवधि में यह घाट बना और 100 से ज्यादा श्रमिको व मिस्त्रियों आदि की इस कार्य के दौरान दुर्घटना में मृत्यु हो गई। घाट के लोकार्पण के समारोह में उन्होंने उन सभी श्रमिकों की विधवाओं को आमंत्रित किया और लोकार्पण की पूरी प्रक्रिया के दौरान वे मुख्य कार्यक्रम में नहीं गईं। उन्हीं महिलाओं के बीच बैठकर उन्हें ढाढस बंघाती रहीं। इसलिए वे देवी कहलाई, अतीत को कोसने से नहीं।

ईसा से दो शताब्दी पूर्व पतंजली यहां बस गए थे। वे बताते हैं कि व्यापारियों को यहां पहुंच कर पूरी जय (व्यापार में पूरा लाभ) मिलती थी। अतएव इसे ‘‘जित्वरी’’ भी पुकारा जाता रहा है। महमूद गजनवी ने सन् 1019 में बनारस पर आक्रमण किया और सन् 1194 में कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमण के बाद यहां राजपूतों का शासन समाप्त हो गया। मुस्लिम शासकों का प्रमुत्व, अंग्रेजो के आने तक बना रहा। परंतु तोड़ फोड़ और तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच तुलसीदास यहीं आते हैं, रामानंद आते है, कबीर और रैदास भी यहीं आते हैं। क्यों ? कैसे ? क्योंकि काशी अपनी सभ्यता और संस्कृति की स्वरक्षक है। इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि अभी तक उखड़ नहीं पाई। शासक और शासन इस शहर के लिए कोई मायने नहीं रखते। जो भी यह दंभ रखता है कि वह इतिहास को पलट सकता है, बदल सकता है, दरअसल स्वयं को धोखा दे रहा होता है।

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इतिहास पलटने या बदलने की नहीं बल्कि मूल्यांकन व भविष्य गढ़ने का माध्यम है। यह तय है कि जिस तरह एक खंडहर का अतीत होता है, उसी तरह उसका वर्तमान भी होता है। हर खंडहर का वर्तमान अतीत के बिना नहीं समझा जा सकता। और काशी में उस दिन विश्वनाथ मंदिर के नए निर्मित प्रांगण के लोकार्पण में जिस तरह के अतिरेक व यक्तिवादिता का स्वरूप सामने आया वह वास्तव में काशी, बनारस, वाणारसी की संस्कृति के प्रतिकूल है। अपनी पहचान मिटा के कभी कोई महान नहीं बन सकता। तीर्थाटन को पर्यटन से बदलने की मंशा अंततः असफल ही साबित होती है। ऐसा इसलिए कि भारतीय जनमानस ने अपने इष्ट की जो छवि अपने मन में बना रखी है वह बदलेगी नहीं। शिव कभी भी महलों में रहने वाले नहीं माने गए। वे तो कंदराओ या कैलाश पर्वत में अगाध विस्तार में रहते हैं। इसीलिए शिव की इस नगरी को स्वायत्तशासी नगर माना जाता है। एक पुरानी कथा के अनुसार एक समय यहां निष्काम दिवोदास का शासन था। शिव ने दिवोदास में खोट निकालने के लिए कई बार अपने गणों और परिजनों को काशी भेजा लेकिन, ‘‘जे जे गये बहुरि नहिं आए पठवत नाही संदेस।’’ अर्थात सब के सब वहीं बस गए और दिवोदास जस का तस। यह शिव के चरित्र की महिमा है कि उनके गण - परिजन उन्हें छोड़कर उनके भक्त के राज्य वाणारसी में बस जाते हैं, बस सकते है। तभी तो केदारनाथ सिंह ने लिखा होगा, ‘‘किसी अलक्षित सूर्य को/देता हुआ अध्र्यशताब्दियों से इसी तरह/गंगा के जल में/अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर/अपनी दूसरी टांग से/बिल्कुल बेखबर।’’

बनारस बिल्कुल ऐसा ही है। 360 करोड़ क्या 3600 करोड़ रु. भी लगा दिए जाएं तो भी  वह वही रहेगा जो है। आमीन !

(गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्रा के यह स्वतंत्र विचार हैं)