किसान आंदोलन: जीत की शुरुआत

हमें यह समझना होगा कि आंदोलन हारने या जीतने के लिए नहीं लड़े जाते। यह अपने अधिकार प्राप्त करने या अर्जित करने के लिए लड़े जाते हैं। और जब किसी वर्ग, समुदाय का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाए तो आंदोलन निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 

Updated: Nov 21, 2021, 01:17 AM IST

एती मार पई कुरलाणें 

तैं कि दर्द न आया 

            (गुरुनानक-आसा)

(इतनी यातना,ऐसा क्रंदन ! क्या तुझे पीड़ा हुई ?)

गुरुनानक जिस काल में विराजित है वह बेहद यातनापूर्ण था। पंजाब में बाबर के आक्रमण का दौर था। सभी मान्यताएं टूट रही थीं। हत्याएं हो रही थीं, सम्पत्तियां नष्ट हो रही थीं। परंतु गुरु नानक के भीतर विराजमान कवि ने मुगल फौजों की बर्बरता की निडर होकर भर्त्सना की। उपरोक्त पद को पढ़ने से लगता है कि जैसे उन्होंने उस समय ईश्वरीय न्याय के खिलाफ बगावत कर दी हो। हमारे प्रधानमंत्री ने प्रकाश पर्व पर कृषि संबंधित तीनों कानूनों की वापसी की घोषणा कर दी। जाहिर है यह एक स्वागत योग्य पहल है। परंतु क्या इस घोषणा को मात्र कृषि आंदोलन की समाप्ति से या कृषि आंदोलन से जोड़ना पर्याप्त होगा? 

हमें यह समझना होगा कि आंदोलन हारने या जीतने के लिए नहीं लड़े जाते। यह अपने अधिकार प्राप्त करने या अर्जित करने के लिए लड़े जाते हैं। और जब किसी वर्ग, समुदाय का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाए तो आंदोलन निर्णायक भूमिका निभाते हैं। भारत में तो संकट और भी गहरा है। भारतीय लोकतंत्र इस समय अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसे में किसान आंदोलन ने इसे नई प्राणवायु दी है। इस दौर में जबकि आंदोलन कर पाना ही असंभव हो जा रहा था ऐसे में एक साल से ज्यादा समय तक इसे चलाए रखना आजादी के बाद की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। तीनों कृषि कानूनों के उचित होने एवं उपयोगिता पर विचार करने से ज्यादा आवश्यक है कि इस समय सत्ता के चरित्र के वर्तमान स्वरूप पर बात की जाए।

प्रधानमंत्री ने तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा टेलीविजन के माध्यम से की। तमाम उत्सवों, पर्वो गुरु नानक के प्रकाश पर्व की बात की। उन्होंने दीपक की रोशनी के प्रकाश फैलने की बात भी की। परंतु वे भूल गए कि किसान आंदोलन सूर्य के तेज प्रकाश में संचालित हो रहा है, अतः दीपक की रोशनी से आने वाला प्रकाश इसकी की व्यापकता को देदीप्यमान करने में सक्षम नहीं रहेगा। इस पर तो जलती धूप में ही बात करनी होगी। हां यदि आंखें चौंधियाने लगे तो आंखें थोड़ी नीची भी करनी पड़ेगी। 

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सवाल आंदोलन के अपने उद्देश्य के साथ ही साथ इस अवधि में शहीद हुए कई 700 किसानों की शहादत का भी है। यह छोटा मसला या संख्या नहीं है। और बात माफी मांगने से खत्म नहीं हो सकती। इन शहादतों के लिए प्रधानमंत्री जो यह कहते रहे कि, "आंदोलनजीवी परजीवी की तरह होते हैं", ही जिम्मेदार नहीं हैं। याद रखिए यह एकतरह का पाप है और पाप के लिए क्षमा मांगना ही पर्याप्त नहीं होता। प्रायश्चित करना पड़ता है और इसके बाद ही क्षमा मिलती हैं। यह प्रायश्चित किसी एक व्यक्ति या दल तक सीमित नहीं है। भारतीय लोकतंत्र में निवास कर रहे और इसमें विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रायश्चित करना ही पड़ेगा। किसान आंदोलन ने भारत और दुनिया को एक बार पुन: यह स्पष्ट कर दिया है कि सत्याग्रह और अहिंसा ही लक्ष्य या उद्देश्य पर पहुंचने के माध्यम हो सकते हैं।

भारत के कृषि मंत्री जिनकी की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह किसानों की व्यथा व मांगों को समझें, ने कहा था, "भीड़ इकट्ठा होने से कानून वापस नहीं होते।" वास्तविकता यह है कि वे भीड़ और समूह के बीच अंतर ही नहीं कर पाए। जिस तरह की जिद उन्होंने दिखाई उससे साफ नजर आ रहा था कि चर्चा में जाने से पहले ही तय हो चुका है कि क्या तय करना है। यदि बातचीत में उन्हें अपनी ओर से किसी भी पहल की अनुमति नहीं थी तो उन्हें या तो इस्तीफा दे देना चाहिए था या कम से कम स्वयं को चर्चा से अलग कर लेना था। गौरतबल है प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में तपस्या आदि का जिक्र करते हुए यह भी कहा कि हम किसानों के एक वर्ग समझा पाने में असमर्थ रहे। क्या कभी किसी ने कुछ भी समझाने की, खासकर किसानों को, कोशिश भी की? यदि की होती तो ऐसी स्थिति नहीं बनती। याद रखिए बातचीत के दौर के दौरान भारत के वाणिज्य व कंपनी मामलों के मंत्री कहते हैं, " माओवादी विचारधारा से प्रेरित लोगों के हाथों में चला गया है, यह आंदोलन।" तो साहब समझाते कि माओवादी विचारधारा क्या है, यह कैसे अनुचित है और कौन से किसान इससे प्रभावित हैं। परंतु कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

इस दौरान हमें एक और बात पर गंभीरता से विचार करना होगा। वह है भारत की दलगत राजनीतिक परिस्थितियां। आंदोलनकारियों को भी यह समझना होगा कि लोकतंत्र में चुनाव और चुनाव में राजनीतिक दल अनिवार्यता है। गौरतलब है, राजनीतिक दल इस आंदोलन के शुरू से इसके के समर्थन में थे। आंदोलन ने  जरूर उनसे दूरी बना रखी थी। यह ठीक भी था। परंतु जिस तरह से इन दलों खासकर कांग्रेस व राहुल गांधी ने खुलकर समर्थन दिया और सरकार और प्रधानमंत्री को आड़े हाथ लिया वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यदि उत्तरप्रदेश,पंजाब आदि के चुनाव इस वापसी निर्णय के पीछे है तो इसे राजनीति और राजनीतिक दलों के महत्व को समझा जा सकता है।

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 नवंबर 1947 में गांधी कहते हैं कि यदि रचनात्मक कार्यकर्ता सत्ता प्राप्त करने की राजनीति में पड़ जाएंगे तो इससे सर्वनाश हो जाएगा। वे आगे कहते हैं "अगर यह बात ना होती तो क्या मैं खुद ही राजनीति में ना पड़ जाता और अपने ढंग से सरकार चलाने की कोशिश ना करता ? 

आज जिनके हाथों में सत्ता की बागडोर है, वह आसानी से हटकर मेरे लिए जगह कर देते।" इस बात को किसान जैसा रचनात्मक समुदाय जैसे समझ गया। उसने दलगत राजनीतिक हस्तक्षेप को नकारा। किसानों ने गांधी के इस वाक्य को भी सही सिद्ध किया कि, "परंतु मैं अपने हाथों में सत्ता नहीं चाहता। सत्ता का त्याग करके और शुद्ध नि:स्वार्थ सेवा में लग कर हम मतदाताओं को मार्ग दिखा सकते हैं और प्रभावित कर सकते हैं। इसमें हमें जो सत्ता प्राप्त होगी, वह इस सत्ता से बहुत अधिक वास्तविक होगी, जो सरकार में जाने से होगी।" किसानों ने यह जतला दिया कि उनमें सरकार को झुका देने की ताकत है। वास्तविकता तो यही की है कि सरकार  शुरू से इस बात पर अड़ी थी कि चाहे जो हो जाए, कृषि कानून वापस नहीं होंगे। तभी तो उनके एक मंत्री ने कहा कि, " आंदोलन के पीछे पाकिस्तान और चीन का हाथ है।" एक सांसद कहते हैं, " इन किसानों को तो मरना ही था।" एक लोकतांत्रिक देश में आंदोलन के दौरान हो रही मौतों पर क्या इस तरह की प्रतिक्रिया में की जा सकती है? बाद में लखीमपुर खीरी जो हुआ वह हम सब जानते हैं। संबंधित मंत्री का इस्तीफा अभी तक नहीं हुआ है। इससे सरकार की मानसिकता साफ समझ में आ रही है कि उसे अपने किए पर पछतावा है ही नहीं। उसके लिए यह एक राजनीतिक विवशता भर है। किसानों व किसान संगठनों और राजनीतिक व्यवस्था में अपने अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप को बनाए रखना होगा। इतना ही नहीं उन्हें हस्तक्षेप तक सीमित न रहकर अपना दबाव भी बनाए रखना होगा। 

राज्यसभा में जिस प्रक्रिया से यह तीनों प्रस्ताव पारित हुए वह लोकतंत्र के लिए बेहद शोचनीय घटना है। समय की मांग तो यह है कि उस समय के पीठासीन अधिकारी तुरंत त्यागपत्र दें । इस आंदोलन ने जो सबसे बड़ा काम किया वह यह है कि उसने लोहिया के अमर वाक्य की "जिन्दा कौमें पांच बरस तक इन्तजार नहीं करतीं।" को चरितार्थ किया है। इस आंदोलन ने एक बार पुनः सिद्ध किया है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आजादी से पहले का चरित्र अभी भी पूरी तरह से विस्मृत नहीं हुआ है । तब भी दो धाराएं समानांतर चलती थी, आज भी चल रही हैं। परंतु किसान आंदोलन शायद एक कदम आगे बढ़ा और उसने वर्तमान में प्रचलित दो धाराओं का संगम किया और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में प्रारंभिक विजय पाई। 

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गौरतलब है लोकतंत्र अंततः एक सतत सक्रिय आंदोलन या संघर्ष ही तो है। फैज अहमद फैज कहते हैं, यूँ तो हमेशा ऊलझती रही है जुल्म से खल्क

न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई

यूँ ही हमेशा खिलाएँ है हमने आग में फूल 

न उनकी हार नई हैं, न अपनी जीत नई।।    

इसलिए किसान आंदोलन की तत्काल वापसी ना होना एक सकारात्मक कदम है। जाहिर है कृषि का संकट सिर्फ इन तीनों कानूनों तक तो सीमित नहीं है और ना ही विधानसभा व केंद्र के चुनावों की राह देखता बैठा रह सकता है। विपक्ष के तमाम नेताओं की साफगोई प्रशंसनीय है लेकिन सत्ता में पहुंचने के बाद क्या वे इसका पालन कर पाएंगे ? अतः आवश्यकता इस बात की है कि जन आंदोलन के युग को वापस लाया जाए। किसान आंदोलन ने भारत के नागरिक समाज में नई ऊर्जा और आशा का संचार किया है। इसलिए हमें इसका ऋणी बने रहना होगा। वहीं किसानों को भी अपनी रचनात्मकता को बनाए रखना होगा।

इस आंदोलन ने एक और महत्वपूर्ण कार्य यह किया है कि उसने सत्ता को ही नहीं मीडिया को भी उसकी वर्तमान हैसियत का भान करा दिया है। तमाम दुष्प्रचार के बावजूद यह आंदोलन सत्य, अहिंसा और परस्पर विश्वास से स्वयं को संचालित करता रहा। लखीमपुर खीरी की लोमहर्षक घटना इस आंदोलन को बिखरा नहीं पाई। परंतु मीडिया ने अपने डर को सार्वजनिक कर दिया और स्वयं को एक सरकारी प्रचार माध्यम (अपवादो को छोड़कर) में बदल लिया। अपनी बेख्याली में वे इसे मोदी का मास्टरस्ट्रोक कह रहे हैं।

याद रखिए कैमरे के सामने आप सब कुछ कह सकते हैं क्योंकि तब वहां पर कोई आंख प्रतिक्रिया नहीं दे रही होती। मास्टर स्ट्रोक तो तब होता जब कि वे आंदोलन के मंच पर आकर अपनी बात कहते, माफी मांगते। जो हजारों हजार आंखें उन पर टकटकी लगाए होतीं वह उनका सामना करते। उन 1400 आँखों का सामना करते जो अब सामने बैठे हुए समुदाय का हिस्सा नहीं है। सामना करते इस प्रश्न का कि लखीमपुर खीरी से संबंधित मंत्री को अब तक हटाया क्यों नहीं गया। अपने  मंच/माध्यम से जो मन में आए कहा जा सकता है। असली हिम्मत तो इसमें है कि विपक्षी के मंच से अपनी बात कहने का साहस जुटाया जाए। यह साहस गांधी ने किया, नेहरू ने किया, भगत सिंह ने किया। 

बहरहाल भारत को बहुत दिनों बाद एक अच्छी खबर सुनाई दी है। लोकतंत्र पर छाया नैराश्य थोड़ा सा छटा है। मंजिल अभी भी दूर है। याद रखिए हताशा अतिरिक्त आक्रामकता को जन्म देती है। अत: हमें अधिक संतुलित व संवेदनशील बनना होगा। किसान आंदोलन की लौ को अखंड ज्योति में बदलना होगा। जीत अभी दूर है, परंतु इस आंदोलन में क्षितिज जैसा भ्रम  तोड़ दिया है। राजनीतिक दलों को भी इस आंदोलन की प्रक्रिया से बहुत कुछ सीखना चाहिए। उन्हें संघर्ष के प्रति ललक में आई कमी से निपटना चाहिए। उत्तर प्रदेश के चुनाव भारतीय लोकतंत्र में राजनीति की पुनर्वापसी संभव बना सकते हैं। बशर्ते जनता चाहे। आंदोलनों को भी अति आत्मविश्वास (ओव्हर कॉन्फीडेन्स) से बचना होगा। गांधी कहते हैं, "आत्मविश्वास कैसा होना चाहिए? आत्मविश्वास रावण का सा नहीं होना चाहिए। आत्मविश्वास तो होना चाहिए विभीषण जैसा, प्रहलाद जैसा। उनके मन में यह भाव था कि हम निर्बल हैं मगर ईश्वर हमारे साथ हैं और इसी कारण हमारी शक्ति अनंत है।"

कृषि आंदोलन को सलाम। उन 700 शहीद किसानों को सलाम जिन्होंने अपने प्राण देकर कृषि आंदोलन को अमर बना दिया है।