उस हे राम से इस हे राम तक

गांधी जी अपने जीवनकाल में ही एक पौराणिक मिथकीय चरित्र की तरह स्थापित हो चुके थे, वे एक प्रतीक में बदल गए थे, वे एक ऐसी छवि में परिवर्तित हो चुके थे कि लोग उनके जीवनकाल में ही उनके नाम की कसमें खाने लगे थे।

Updated: Jan 30, 2022, 01:25 AM IST

Photo courtesy: Times of India
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बापू के निर्वाण दिवस पर कुछ कहना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। वे क्या थे, क्या नहीं, यह समझना और बूझना बेहद कठिन हो गया है। आज जब लिखने बैठो तो 30 जनवरी 1948 को गोलियों की शिकार उनकी पार्थिव देह आँखों के सामने आती है और दूसरे ही क्षण आजाद भारत के उन युवाओं और बच्चों की पुलिस मार से उधड़ी पीठ, कमर व टांगें दिखती हैं। उनके फूटे सरों से बहता खून नजर आता है। नजर आते हैं तमाम नौजवान जो बेतरह रो रहे है, क्योंकि पुलिस बेरहमी से उनकी पिटाई कर रही है। वे पुलिस वाले के हाथ जोड रहे हैं पैर पकड़ रहे हैं, उसके बावजूद पिटते ही जा रहे हैं। सामने नजर आ रहे हैं, तमाम पुलिसकर्मी जो अपने बंदूक के कुन्दे से इन युवाओं के होस्टलों, लॉजों के दरवाजे तोड़ रहे हैं। उन्हें गालियां दे रहे हैं। धमका रहे हैं। इन बच्चों का कुसूर? वे रेल्वे से अपने लिए नौकरी मांग रहे हैं। वे प्रतियोगी परीक्षा में हुए अन्याय के खिलाफ अपनी आवास उठा रहे हैं। इस दौरान थोड़ी बहुत हिंसा भी हुई, जो अक्षम्य है और नहीं होना चाहिए थी। परंतु उन युवाओं को सड़कों पर क्यों उतरना पड़ा, यह हमारी आपकी चर्चा का हिस्सा नहीं है। क्यों? शायद इसलिए कि हमने किसी और की तकलीफ को महसूस करना छोड़ दिया है। दूसरों के दुख दर्द में हिस्सेदारी करने से स्वयं को अलग कर लिया है। हे राम !

बापू ने मरते वक्त भी ‘‘हे राम ! ’’ कहा था परंतु आज हम अपने यहां जो कुछ हो रहा है, उसे देखकर जब ‘‘हे राम !’’ कहते हैं तो उसके कुछ और ही निहितार्थ हो जाते है। आज हे राम के साथ अनायास जुड़ जाता है, ‘‘ये सब क्या हो रहा है?’’ एक साथ बोलो तो ‘‘हे राम, ये सब क्या हो रहा है ?’’ बापू जिन्हें एक राज्य के उच्च शिक्षामंत्री ‘‘फर्जी पिता’’ के विशेषण से नवाजते हैं, यह सब देख रहे होते तो क्या करते?  क्या वे पुलिस, प्रशासन व शासनतंत्र को इतनी हिंसा के बाद बिना कटघरे में खड़ा किए छोड़ देते? बापू राज्य की हिंसात्मक प्रवृत्ति को बहुत अच्छे से समझते थे और उसके जबरदस्त खिलाफ थे। वे सत्याग्रही पुलिस की बात करते थे, जो आजाद भारत में न्याय के साथ खड़ी होगी। वे कहते हैं, ‘‘राज्य केंद्रित और संगठित रूप में हिंसा का प्रतीक है। व्यक्ति के आत्मा होती है, परंतु राज्य एक आत्मा रहित मशीन होता है, इसलिए उससे हिंसा कभी नहीं छुड़वाई जा सकती, उसका अस्तित्व ही हिंसा पर निर्भर है।’’ वे इसका समाधान भी कुछ इस तरह देते हैं, ‘‘मैंने जिस लोकतंत्र, अहिंसा द्वारा स्थापित लोकतंत्र की कल्पना की है, उसमें सबके लिए समान स्वतंत्रता होगी। हर एक अपना स्वामी होगा।’’

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आज हम इसका ठीक उलट देख रहे हैं। राज्य की कठोरता लगातार बढ़ती जा रही है। किसी भी तरह की आलोचना को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में डाला जा सकता है। उम्मीद की जा रही थी कि आजादी के 75वें वर्ष में सरकार हर उस व्यक्ति को जेल से (कम से कम पेरोल पर) तो रिहा करेगी, जिन पर सीधे-सीधे हिंसा के आरोप नहीं हैं। अपने से असंतुष्ट या असहमत वर्ग के साथ सरकार मानवीय आधार पर कार्यवाही करेगी और ऐसे तमाम लोगों को चर्चा के माध्यम से अपनी बात समझाने की कोशिश करेगी। परंतु ऐसी कोई स्थिति या माहौल आज हमको दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि सत्ता के शिखर पर बैठा समुदाय स्वयं के प्रति आशान्वित नहीं है।

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बापू अपनी मृत्यु के 14 वर्ष पूर्व हरिजन में लिखते हैं, ‘‘उमर से बूढ़ा होने पर भी मुझे नहीं लगता कि मेरा आन्तरिक विकास रुक गया है या काया विसर्जन के बाद रुक जाएगा।" वहीं दूसरी ओर नवंबर 1947 में वे कहते हैं, ‘‘जो इनसान है और समझदार है, वह इस वातावरण में साबुत रह नहीं सकता। यह मेरी दुःख की कथा है या कहो सारे हिन्दुस्तान के दुःख की कथा है, जो मैंने आपके सामने रखी।" इस प्रार्थना सभा में वे भारत में विद्यमान सांप्रदायिक वातावरण से उपजे दुख की बात कर रहे थे। आज कमोवेश वैसी ही स्थितियां निर्मित होती जा रहीं हैं। वहीँ दूसरी ओर बापू की यह बात विश्वास जगाती है कि काया विसर्जन के बाद भी उनका आंतरिक विकास नहीं रुकेगा। उनसे बिछड़े सात दशक बीत गए हैं लेकिन आज भी समाधान के लिए उनकी ओर ही देखना पड़ता है, उनके काया विसर्जन के बावजूद। उनके विचार नए-नए आयामों के साथ हमें हल सुझाते जाते हैं।

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बापू पर लिखना बेहद कठिन कार्य है क्योंकि उन्हें लेकर सामने आए तमाम विवरणों में से तथ्य और गल्प को अलग कर पाना कठिन है। उनके बारे में सुनी सुनाई बातों और सच को भी आप अलग-अलग नहीं कर सकते। वे अपने जीवनकाल में ही एक पौराणिक मिथकीय चरित्र की तरह स्थापित हो चुके थे। वे एक प्रतीक में बदल गए थे। वे एक ऐसी छवि में परिवर्तित हो चुके थे कि लोग उनके जीवनकाल में ही उनके नाम की कसमें खाने लगे थे। 31 जनवरी 1948 को न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी श्रंद्धाजली में लिखा था, ‘‘रोशनी बुझ गई है। बाकी इतिहास के निष्ठुर हाथों में है कि वह क्या लिखे। जमुना नदी के किनारे उनकी कृशकाय काया राख में बदल जाएगी और सारी दुनिया में सन्नाटा छा जाएगा। हम नहीं जानते उस राख से कौन से फूल खिलेंगे। परंतु हम यह जानते हैं कि वह संत पुरुष जो अहिंसा को पूजता था, वह हिंसा से मारा गया है। जिन्होंने उन्हें मरते देखा है उनका विश्वास है कि उनकी आखिरी भाव भंगिमा, अंतिम संकेत बता रहा था कि उन्होंने अपने आखिरी शत्रु को भी माफ कर दिया है।" यह सच है की बापू गोडसे को माफ करने के बाद ही दूसरे लोक गए होंगे इसीलिए और उनकी क्षमा की तिलमिलाहट अभी भी उनके हत्यारे के समर्थकों में झलक रही है। मनुष्य पर ग्लानि भाव कई बार इतना हावी हो जाता है,  कि वह उसे पश्चाताप भी नहीं करने देता। बापू की मृत्यु के 74 वर्ष बाद भी वह विचारधारा स्वयं को ग्लानि से मुक्त नहीं कर पा रही है और इसीलिए अतिरिक्त आक्रामकता से उन पर प्रहार कर रही है, उनके पुतले पर गोलियां चला रही है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि वे अपने अंदर तो इस सच को जानते ही हैं कि बापू के विचारों के आगे वे बेहद बौने हैं| वैसे उनके पास कोई विचार ही नहीं है, सिर्फ घृणा है और वे अपनी ही घृणा से पराजित हो चुके हैं, इसलिए किसी भी समभाव पर आने का साहस उनमें नहीं है। वे सिर्फ और सिर्फ प्रतिक्रिया हैं| ऐसी प्रतिक्रिया जो सिर्फ विनाश ला सकती है।

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बापू ने अपने जीवन के अंतिम दिन और जीवन में अंतिम बार भोजन करते-करते प्यारेलाल जी को अनायास अपना अंतिम संदेश भी सुना दिया था। वे बोले थे, ‘‘हम लोगों ने तो ‘करेंगे या मरेंगे’ यह मंत्र लेकर ही नोआखली का वरण किया है। भले ही आज मैं यहाँ बैठा हूँ, पर काम तो नोआखली का ही चल रहा है। हमें जनता को भी इसके लिए तैयार करना चाहिए कि वह अपनी इज्जत और सम्मान बनाए रखने के लिए बहादुरी के साथ वहीं रहे। भले ही अंततः वहाँ गिने -गिनाए लोग ही रह जाएँ, लेकिन दुर्बलता से ही सामर्थ्य पैदा करनी हो, वहां दूसरा उपाय ही क्या है? आखिर युद्ध में भी साधारण सिपाहियों का सफाया होता ही है। फिर अहिंसक युद्ध में उससे भिन्न और हो ही क्या सकता है ?’’ हम 30 जनवरी 2022 को यदि उपरोक्त सीख का विश्लेषण करें तो लगता है, जैसे कि बापू ने आज ही दोपहर में भोजन करते हुए यह कहा है। स्थितियां पुनः एकबार गलत या उल्टी दिशा को मुड़ रहीं हैं। परंतु घबड़ाने की शायद कोई बात नहीं है। उनके विचार, आज हमारे माध्यम से बात कर रहे हैं, यह उनके जीवित और जीवंत होने का सशक्त प्रमाण है।

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भारत में कटुता कोई नहीं स्थिति नहीं है। परंतु आज यह एक विचित्र परिस्थिति है क्योंकि अब हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं। इतिहास में अनेक बार बेहद कटुता का वातावरण बना है। बहुत से नरसंहार भी हुए हैं, लेकिन तब की शासन व्यवस्था और वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल अंतर है। वर्तमान समस्या इसलिए अधिक खतरनाक है क्योंकि हम संविधान के अन्तर्गत निवास करते हुए संविधान की ही अवहेलना कर रहे हैं। अल्पसंख्यकों, दलितों और युवाओं के साथ जो हो रहा है, वह पूर्णतः अस्वीकार्य हैं। हमें विचार करना होगा कि 7 लाख नौकरियों के लिए 1.25 करोड़ युवा क्यों आवेदन कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार देश को अभी 20 करोड़ रोजगार की आवष्यकता है। इस सबसे हम अपना ध्यान हटाकर जहां लगा रहे हैं, वह बर्बादी ही देगा।

आज बापू को श्रंद्धाजलि देने से ज्यादा जरुरी हैं उन्हें व्यापक स्तर पर याद करना उनके विचारों को दोहराना और उनके चरित्र से जितना बन पड़े उतना आत्मसात करना। जो उनका विरोध कर रहे हैं, उन्हें उनकी नादानी के लिए मुस्कराकर माफ कर देगा। वे लगतार यह सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि उन्होंने बापू की हत्या किसी विशिष्ट प्रयोजन से की थी। वह प्रयोजन क्या था, यह हम सबके सामने आ ही गया है। अपने जीवनकाल में न बापू ने तल्खी से उन सब बातों का जवाब दिया, न आज हमें इसकी आवश्यकता है। उनकी हर दलील के सामने बापू के अनगिनत वचन स्वयं सामने आ जाएंगे। निर्मल वर्मा लिखते हैं, कि "शतरंज में जब आप एक चाल चलते हैं तो सामने वाले खिलाड़ी के सामने अंतहीन चालें या संभावनाएं खुल जाती हैं।" बापू के खिलाफ जितनी भी बात होंगी, उतनी ही तादाद में उनके विचार भी प्रकाश में आएंगे। इसकी छोटी सी झलक हम आप आजकल समाचार चैनलों में होने वाली चर्चाओं में देख भी रहे हैं। अब एंकरों को जवाब देना कठिन होता जा रहा है। उम्मीद है भारत तनाव की परिस्थिति से जल्द बाहर आ जाएगा।

बापू के निधन के बाद विनोबा ने कहा था, ‘‘जनरल मैंकआर्चर एक उत्तम फौजी सेनानी हैं, जिन्होंने पिछला विश्वयुद्ध जीता। गांधी की मृत्यु के बाद वे बोले, "आज नहीं तो कुछ वर्षों बाद गांधीजी जो मार्ग दिखा गए, उसे स्वीकार करने के सिवा और कोई चारा नहीं। गांधीजी के बारे में अनेक व्यक्ति बोले, पर मैकआर्चर जो कि सैन्य विशेषज्ञ हैं की बात मेरे मन में घर कर गई। वे यह भी कहते हैं, ‘‘भाइयों, छुटकारे का मार्ग तो गांधी ने तो बताया।"

क्या हम मुक्त होना चाहते हैं ?

बापू को नमन

 (गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्रा के यह स्वतंत्र विचार हैं)