जी भाईसाहब जी: राहुल गांधी का गुड जेस्चर और शिवराज चौहान की लाड़ली का खत्म होना
MP Politics: मध्यप्रदेश की राजनीति में यह समय काफी उर्वर है। एक तरफ, कांग्रेस अपने नेता राहुल गांधी से मिले टिप्स से उत्साहित है तो मोहन यादव सरकार अपनी लोकलुभावन योजना में बदलाव करने जा रही है। राजनीतिक मुद्दों और नेताओं की सक्रिया काफी कुछ बयान कर रही है।
पचमढ़ी में आयोजित कांग्रेस जिलाध्यक्षों के प्रशिक्षण में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की उपस्थिति और संवाद की दो-तीन बातें सुर्खियां बनी। जैसे, उन्होंने नेताओं से चर्चा में संगठन को मजबूत बनाने के टिप्स दिए। वरिष्ठ नेताओं के साथ विमर्श किया। मीडिया में उनके जंगल सफारी की खबरें और उस पर बीजेपी का तंज छाया रहा। इसके अलावा देरी पर मिली सजा भी चर्चा में रही।
कांग्रेस संगठन में इनदिनों अनुशासन पर खास जोर दिया जा रहा है। बैठक में देरी से आने वालों को गलती का अहसास करवाने के लिए ताली बजाकर उनका स्वागत किया जाता है। देर से आने वाले नेता या कार्यकर्ता को कोई दंड भी दिया जाता है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी वरिष्ठ नेताओं से बैठक के कारण वह प्रशिक्षण सत्र में 20 मिनट देरी से पहुंचे। इस पर प्रशिक्षण प्रमुख सचिन राव ने उन्हें कम से कम 10 पुशअप की सजा दी। राहुल गांधी ने 10 पुशअप लगाए भी। सुर्खियों से इतर जिला कांग्रेस अध्यक्षों के प्रशिक्षण शिविर में राहुल गांधी ने स्पष्ट राजनीतिक संदेश दिया कि गुटबाजी और एकला चलो की प्रवृत्ति नहीं चलेगी। एकजुटता और समन्वय के साथ सहमति को कांग्रेस की राजनीति बनाना होगा। उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश में भी वोट चोरी हुई है। हमारे पास साक्ष्य हैं, जो समय पर प्रस्तुत किए जाएंगे।
मगर, इन सब राजनीतिे और गैर राजनीतिक सुर्खियों के अलावा राहुल गांधी का एक जेस्चर ऐसा हुआ जो कांग्रेस नेताओं के लिए नजीर बन गया है। राहुल गांधी ने प्रशिक्षण सत्र में शामिल जिलाध्यक्षों के परिवार से व्यक्तिगत मुलाकात की। यह मुलाकात औपचारिक नहीं रही बल्कि ये मुलाकातें शुरुआती पलों के बाद ही अनौपचारिक होती गई। राहुल गांधी ने जिलाध्यक्षों की पत्नी और बच्चों से इत्मीनान से चर्चा की। उनके साथ फोटो खींचवाए।
परिवार के साथ आत्मीयता का ऐसा बांड सार्वजनिक या समूह मुलाकातों में नहीं बन सकता है। जिलाध्यक्ष स्वयं तो राहुल गांधी के साथ मुलाकात के फोटो शेयर कर पॉलीटिकल माइलेज पाते ही हैं लेकिन इस बार उनक परिजन यानी पत्नी और बच्चे खास और आत्मीय यादें साथ लेकर गए हैं। असल में, यह जेश्चर परिवार के साथ गैर राजनीतिक जुड़ाव का कदम है। मैदान में काम कर रहे नेताओं को परिवार से सहयोग मिलते रहना सुनिश्चित करने जैसा कदम। राहुल गांधी के इस कदम ने सोशल मीडिया पर तो जगह पाई लेकिन राजनीतिक कदम के रूप में इसका आकलन नहीं हुआ। यह सारे कांग्रेस नेताओं के लिए एक नजीर की तरह है।
एक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक का यह कथन महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस के नेताओं को राहुल गांधी के इस जेस्चर को सबसे पहले अपनाना चाहिए। पूरे जिले और प्रदेश में नेटवर्क बनाने के पहले अपने घर, अपने मोहल्ले में पारिवारिक कनेक्ट तैयार करना चाहिए जो कभी कांग्रेस की पहचान हुआ करता था। यह कनेक्ट ही कांग्रेस के राजनीतिक एजेंडे पर जनसमर्थन जुटा पाएगा। अन्यथ कितना ही महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों न हो, जनता के साथ जुड़ाव का सवाल एक बड़ी समस्या बना रहेगा।
शिवराज सिंह चौहान की लाडली अब मोहन यादव की सुभद्रा
मध्य प्रदेश की राजनीति में ‘लाड़ली’ के महत्व को कौन नहीं जानता है? लाड़ली लक्ष्मी योजना ने केवल प्रदेश में बल्कि पूरे देश में प्रिय नवाचार की प्रसिद्धि पाई। ऐसा नवाचार जिसे कई राज्यों ने अपनाया। फिर आई लाड़ली बहना योजना जिसने सत्ता विरोधी लहर को निर्मूल कर भाजपा को फिर सत्ता दे दी। राजनीतिक रूप से यह योजना तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का परिचय है। लाड़ली बहना योजना और लाड़ली लक्ष्मी योजनाओं के दम पर शिवराज की छवि मामा और भाई की बनी। इन योजनाओं का नाम लेते ही शिवराज सिंह चौहान का ही चेहरा याद आता है।
इस ब्रांडिग को बीजेपी सरकार ही तोड़ने जा रही है। कई दिनों से चर्चा और कयास थे कि प्रदेश सरकार लाड़ली बहना योजना को बंद करने वाली है। इन कयासों का एक कारण प्रदेश सरकार पर बढ़ता कर्ज का बोझ भी है। सरकार योजना बंद तो नहीं कर रही है बल्कि उसका चेहरा बदल रही है। सीएम डॉ. मोहन यादव अब पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा खींची गई राजनीतिक और प्रसिद्धि की रेखा के आगे अपना काम दिखाने और ले जाने के जतन कर रहे हैं। इसी जतन का एक परिणाम है लाड़ली बहना योजना का नाम बदल कर कृष्ण की बहन सुभद्रा के नाम पर इसे संबोधित करना। हालांकि, बीजेपी सरकार उड़ीसा में लाड़ली बहना योजना को सुभद्रा योजना के नाम से ही चला रही है।
मध्य प्रदेश में इस योजना का नाम बदलने से सीएम डॉ. मोहन यादव की कृष्ण केंद्रित राजनीति भी सशक्त होगी। यह पहला मौका नहीं है जब शिवराज की किसी योजना का नाम बदल कर उसे कृष्ण केंद्रित किया गया हो। इससे पहले शिवराज सरकार ने राम वनगमन पथ योजना पर काम किया था तो डॉ. मोहन यादव ने कृष्ण पाथेय योजना को गति दे दी। प्रदेश में गीता जयंती भव्य स्तर पर मनाने के साथ गीता भवन निर्माण, गोवर्धन पूजा जैसे आयोजनों के माध्यम से कृष्ण को राजनीतिक पहचान का माध्यम बनाया गया। शिवराज सरकार में शुरू की गई सीएम राइज स्कूल का भी नाम बदला चुका है। मध्य प्रदेश की मोहन सरकार ने अप्रैल 2025 में ही इसका नाम बदलकर सांदीपनि स्कूल कर दिया था।
आप कह सकते हैं कि नए नाम और ज्यादा रकम यानी 1250 के बदले 1500 रुपए के लाभ के साथ यह योजना कमाल जारी रखेगी और जब नाम बदलेगा तो इसका लाभ पाने वाला व्यक्ति भी बदलेगा ही।
आदिवासियों के लिए बीजेपी एक्शन में, कहां है कांग्रेस का प्लान?
कभी आदिवासी समाज कांग्रेस का कोर वोटर था। फिर आदिवासियों के पृथक संगठनों ने सक्रियता दिखा कर इस वोट में सेंध लगाई लेकिन बड़ा कब्जा बीजपी ने किया है। अब बीजेपी पूरे देश में आदिवासी वोटरों को अपना स्थाई वोट बैंक बनाने के लिए हर तरह के जतन कर रही है। पेसा एक्ट से लेकर राजनीतिक घोषणाएं और बिरसा मुंडा जयंती आयोजन पर बड़े पैमाने पर कार्यक्रम इसी कडी का हिस्सा है।
इस बार भी 15 नवंबर बिरसा मुंडा जयंती पर बीजेपी ने बड़ा ‘एक्शन’ तैयार किया है। मध्यप्रदेश सहित पूरे देश आदिवासी बहुल क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए बीजेपी ने विशेष अभियान की शुरुआत की है। पार्टी बिरसा मुंडा जयंती पर होने गौरव यात्रा निकाल रही है। 11 नवंबर से आरंभ हुई यह यात्राएं 15 नवंबर तक आदिवासी बाहुल्य जिलों की विधानसभा सीटों पर निकाली जाएगी। बिरास मुंडा जयंती 15 नवंबर को जबलपुर और आलीराजपुर में कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इन कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्चुअली संबोधित करेंगे। गौरतलब है कि प्रदेश की कुल 230 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं। इनमें से फिलहाल भाजपा के पास 25 सीटें हैं। यूं देखें तो 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को आदिवासी सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा था। यही कारण है कि वह मैदानी ताकत को बरकरार रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है।
अब सवाल उठता है कि बीजेपी आदिवासी वोट बैंक पर कब्जा बनाए रखने के लिए निरंतर काम कर रही है तो कांग्रेस कहां है? कांग्रेस का ‘प्लान’ अभी सामने नहीं आया है। जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत करने में जुटी कांग्रेस को माइक्रो रणनीति पर भी काम तो करना ही होगा। अन्यथा एक सिरा थामने के जतन में दूसरा सिरा छूट जाएगा।
कहां हैं नरोत्तम मिश्रा? यूपी में 52, बिहार में 2 सीटों पर सिमटे
2023 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद मध्य प्रदेश की राजनीति से गायब होते जा रहा रहे पूर्व गृहमंत्री और राजनीतिक फ्लोर मैनेजमेंट के मास्टर कहे जाने वाले डॉ. नरोत्तम मिश्रा आजकल हैं कहां? यह सवाल बिहार चुनाव के संबंध में ज्यादा पूछा जा रहा है। इसकी खासवजह भी रही है।
डॉ. नरोत्तम मिश्रा केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के करीबियों में गिने जाते हैं। अमित शाह के बीजेपी अध्यक्षीय कार्यकाल के दौरान डॉ. नरोत्तम मिश्रा को कई राजनीतिक जिम्मेदारियों मिली थीं। तत्कालीन शिवराज सरकार के संकट मोचन मंत्री कहे जाने वाले डॉ. नरोत्तम मिश्रा को उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारियों मिली थीं। लेकिन बिहार चुनाव के दौरान उनकी राजनीतिक सक्रियता की खबरें वैसे नहीं दिखाई दीं जैसी पहले के चुनावों में दिखाई देती थीं।
पड़ताल करने पर पता चला कि डॉ. नरोत्तम मिश्रा को बिहार में मुज्जफरपुर व बोचहा विधानसभा का प्रभारी बनाया गया था। डॉ. नरोत्तम मिश्रा को जानने वालों के लिए यह अचरज की बात है कि उन्हें केवल दो सीटों का प्रभारी बनाया गया। जबकि अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों में उनकी तूती बोलती थी। जैसे समर्थकों ने डॉ. मिश्रा को महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत का रणनीतिकार निरूपित किया था। दिल्ली विधानसभा चुनाव में डॉ. मिश्रा के प्रभार वाली आधा दर्जन विधानसभा सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की। चुनाव घोषणा के बाद वह एक माह से अधिक समय तक दिल्ली में डटे रहे।
उन्हें महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रबंधन का काम सौंपा गया था। प्रचारित किया गया था किे मध्य प्रदेश सरकार के तत्कालीन सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा का जादू उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में खूब चला, जिससे बीजेपी को भारी जीत मिली। डॉ. नरोत्तम मिश्रा को बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की कोर कमेटी में शामिल किया गया था। उत्तर प्रदेश चुनाव में डॉ. नरोत्तम मिश्रा को 80 में से 52 सीटों का प्रभार दिया गया था। इनमें से 46 सीटें बीजेपी ने जीती।
यही कारण है कि एमपी विधानसभा चुनाव 2023 में दतिया से चुनाव हारने के बाद भी माना गया था कि डॉ. नरोत्तम मिश्रा को संगठन कोई न कोई जिम्मेदारी देगा। मगर पार्टी जो जीत हासिल करती रही, डॉ. नरोत्तम मिश्रा की मुख्य धारा की राजनीति से दूरी बरकार रही। अब बिहार में मात्र दो सीट का प्रभार मिलने के बाद समर्थकों की यह उम्मीद भी धूमिल हो गई है कि बिहार में एनडीए की सरकार बनी तो डॉ. नरोत्तम मिश्रा को पुरस्कार मिलेगा। अब तो अपने स्तर पर राजनीतिक सक्रियता बनाए रखना और उसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचारित करना ही डॉ. नरोत्तम मिश्रा कैम्प का कार्य रह गया है।




