Gita Jayanti: संसार का एकमात्र ग्रंथ जो प्रभु के हृदय से निकला है

श्रीमद्भगवद्गीता कोई पुस्तक नहीं, बल्कि यह साक्षात् ब्रह्म का वाङमय स्वरूप है

Updated: Dec 26, 2020, 12:13 AM IST

Photo Courtesy: wikipedia
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 गीतामृतम्
आज गीता जयंती है। हमारी भारतीय संस्कृति में महान् लोगों की जयंती मनाने की परंपरा है। किंतु पुस्तक के रूप में यदि कोई जयंती मनाई जाती है तो केवल गीता जी की। अतः निस्संदेह यह मानना होगा कि श्रीमद्भगवद्गीता कोई पुस्तक नहीं, बल्कि यह साक्षात् ब्रह्म का वाङमय स्वरूप है। श्रीमद्भगवद्गीता भगवान का हृदय है। माहात्म्य में भगवान श्रीकृष्ण ने श्री अर्जुन जी से कहा- गीता में हृदयं पार्थ 
 मैं अपना हृदय किसी को देना नहीं चाहता, लेकिन जब अर्जुन जी को विषादग्रस्त देखा तो प्रभु ने अपना दिल दे दिया। विश्व में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं जिसको प्रभु अपना हृदय बताते हों। इसका कारण ये है कि ये उन्हीं के श्रीमुख से निकली है।
 या स्वयं पद्मनाभस्य
मुखपद्माद्विनि:सृता।

"पद्मनाभस्य" शब्द से ऐसा लगता है कि भगवान की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा, और ब्रह्मा से वेद प्रकट हुए। किन्तु गीता ब्रह्मा के मुख से नहीं ब्रह्म के श्रीमुख से प्रकट हुई। इसलिए यह वेदों का सार है। यह दो मित्रों का परस्पर संवाद है। ये ऐसे मित्र हैं कि अर्जुन के हृदय में श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के हृदय में अर्जुन। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने संजय से कहा कि तुम राजा धृतराष्ट्र से कहना कि-
कृष्णो धनंजयस्यात्मा,
कृष्णस्यात्मा धनंजय:।

इसमें कौन आधार है और कौन आधेय है इसका पता नहीं चलता। 

महाभारत में कथा आती है कि एक बार देवराज इन्द्र  भगवान श्रीकृष्ण पर प्रसन्न हुए तो उनसे वरदान मांगने को कहा, वे यह भूल गए कि हम देवता हैं और श्रीकृष्ण परमात्मा हैं। स्नेहाधिक्य में ऐसा होता है। तब भगवान श्रीकृष्ण ने देवराज से कहा कि यदि आप प्रसन्न हैं वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि अर्जुन से मेरी मित्रता सदा बनी रहे। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कौरव लोग अर्जुन से शत्रुता करके मुझसे ही शत्रुता कर रहे हैं।
भगवान् पाण्डवों को अपना बहिश्चर प्राण बताते हैं। उनके शत्रुओ को अपना शत्रु और उनके अनुगामी को अपना अनुगामी बताते हैं 
पाण्वान् द्विषसे राजन् 
मम प्राणाः हि पाण्डवा:।
यस्तान् द्वेष्टि स मां द्वेष्टि,
यस्ताननु स मामनु।।

गीता के अभिप्राय को समझने के लिए श्रीकृष्ण से थोड़ी मित्रता होनी ही चाहिए। ऐसे मित्र वत्सल भगवान और श्रीमद्भगवद्गीता जी को बारम्बार प्रणाम करती हूँ।