जय जय गिरिवर राज किशोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी

भगवान श्री राम भी भगवती राज राजेश्वरी की आराधना करके ही अपनी खोई हुई सीता को प्राप्त करते हैं

Updated: Oct 21, 2020, 02:17 AM IST

Photo Courtesy: India Today
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जय जय गिरिवर राज किशोरी

जय महेश मुख चंद्र चकोरी

भगवती के माहात्म्य के विषय में आता है ये सबकी आराध्या हैं। सब इनकी आराधना करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण भगवती की आराधना करके ही रास प्रारंभ करते हैं।

 योगमायामुपाश्रित:

भगवान श्री राम भी भगवती राज राजेश्वरी की आराधना करके ही अपनी खोई हुई सीता को प्राप्त करते हैं।

लक्ष्मणाग्रज पूजिता

अर्थात् लक्ष्मण के अग्रज श्री राम जी के द्वारा पूजित हैं। श्रीराम इनके उपासक हैं, परशुराम इनके उपासक हैं, बलराम इनके उपासक हैं। इस प्रकार बड़े-बड़े देवता इनकी आराधना करते हैं। पराम्बा भगवती जब अपने धाम मणिद्वीप में विराजमान रहती हैं, तो उनका एक श्री चरण सिंहासन पर रहता है और दूसरा मणिमय पादपीठ पर रहता है। तो इन्द्र चन्द्र वरुण कुबेर बड़े-बड़े देवता अपना मणिमय मुकुट उन श्री चरणों में झुकाते हैं, उठाते हैं। मानो अपने मुकुट मणि से उनके श्री चरणों का नीराजन (आरती) उतारते हैं। ऐसा महा वैभव जगदम्बा का है।

श्रीमद् देवी भागवत का प्रतिपाद्य भगवती को ही माना गया है। उनके स्वरूप और स्वभाव का वर्णन है ऐसी भगवती पराम्बा दस महाविद्या और नौ दुर्गा के रूप में सर्वत्र पूजित हैं। पद्मावती के रूप में जैन समाज में भी पूजित हैं। उनकी आराधना से ही मनुष्य की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। श्री मद् देवी भागवत के अनुसार महाराज परीक्षित शापित हो गए, आज से सातवें दिन तक्षक नाग के काटने से आपकी मृत्यु हो जायेगी। मृत्यु से बचने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किए। अपने सतखंडा महल के सातवीं मंजिल पर बैठ गए, ऊपर तक पहुंचने के सारे रास्ते बंद कर दिए, भोजन और जल का भी त्याग कर दिया। बहुत से तांत्रिक मांत्रिक बुला लिए कि यदि तक्षक काट भी ले तो तुरंत उपचार करके विष को उतार दिया जाय। इस प्रकार सात दिन व्यतीत हो गए।

तक्षक चला राजा को काटने के लिए और भगवान धन्वंतरि भी चले परीक्षित को बचाने के लिए। दोनों मार्ग में मिल गए आपस में चर्चा हुई पता चला दोनों एक ही स्थान पर जा रहे हैं। तक्षक ने कहा हम तो राजा की मृत्यु बनकर जा रहे हैं। भगवान धन्वंतरि ने कहा मैं उसको जीवन दान देने जा रहा हूं। तक्षक ने कहा मैं सामने वाले पेड़ को काट रहा हूं। आप उसे हरा भरा कर दें तो मैं मानू कि आप परीक्षित को जीवन दान दे सकते हैं। ऐसा कहकर तक्षक ने एक बहुत ही सघन हरे भरे वृक्ष को काटा तो तत्काल वह वृक्ष जलकर भस्म हो गया।

अब भगवान धन्वंतरि ने औषधि को मंत्र से अभिमंत्रित करके जो उस भस्म पर छिड़का तो पुनः वह हरा भरा वृक्ष हो गया। तक्षक समझ गया कि ये परीक्षित को जीवन दान देने में समर्थ हैं। उसने भगवान धन्वंतरि के चरण पकड़ लिए और निवेदन किया कि उसने ब्राह्मण का अपमान किया है, यदि उसे दंड नहीं मिला तो ऐसे ही लोग ब्राह्मणों का अपमान करते रहेंगे और सनातन धर्म की रक्षा कैसे होगी आदि-आदि अनेक प्रकार से समझाकर उसने भगवान धन्वंतरि को लौटा दिया। इधर सातवें दिन तक्षक कुछ नागों को ऋषि कुमार बनाकर वहां भेज दिया।

ऋषि कुमार आए और राजा के मंत्रियों से कहा कि हम एक यज्ञ में जा रहे थे मार्ग में राज महल दिखाई पड़ा तो राजा के दर्शन के लिए आ गए। दर्शन करना चाहते हैं मंत्रियों ने महाराज के कक्ष के बाहर से निवेदन किया कि कुछ ऋषि कुमार आपका दर्शन चाहते हैं। महाराज परीक्षित ने कहा कि सात दिन पूर्ण होने पर ही किसी को आने की अनुमति मिल सकती है। तब उन ऋषि कुमारों ने कहा कि महाराज के लिए हम कुछ फल लाए हैं, इन फलों को महाराज तक पहुंचा दीजिए, हम तो नहीं रुक पायेंगे। असल में ये तक्षक के ही लोग थे। नाग ही ऋषि कुमार बनकर आए थे।

सातवें दिन संध्या के समय राजा ने दरवाजा खोल दिया और बोले कि सप्त दिवसीय व्रत का पारण कर लें। तो पारण के लिए वही फल लाए गए। उसमें से एक फल उठाकर राजा ने तोड़ा तो उसमें से एक छोटा सा कीड़ा निकला, हंसते हुए परीक्षित ने कहा कि तक्षक तो आया नहीं ब्राह्मण का वचन झूठा न हो इसलिए आओ तुम्ही मुझे काट लो ऐसा कहकर जो उसे गले से लगाया तो वह तक्षक ही था और पूरे शरीर में लपेट लिया, महाराज परीक्षित को काटा उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु से कोई भी बच नहीं सकता।

बड़े-बड़े योधा खड़े,

सबइ बजावत गाल।

बीच महल से ले चला,

ऐसा काल कराल।।

ब्रह्म शाप से मृत्यु होने के कारण उनकी दुर्गति हो गई। क्षत्रिय यदि युद्ध में मारा जाय तो उसकी सद्गति होती है। वह वीर गति प्राप्त करता है। तो शाप से मृत्यु होने के कारण राजा की दुर्गति हुई और पिता को दुर्गति से बचाना पुत्र का परम कर्तव्य होता है। तो अपने पिता को दुर्गति से बचाने के लिए महाराज परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने देवी भागवत कथा का श्रवण किया और अपने पिता को मुक्ति प्रदान कराई। इस प्रकार हम-सब भी देवी भागवत और उसकी प्रतिपाद्य भगवती की शरण ग्रहण कर अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।