प्रेम का अर्थ ही भुला बैठा है आधुनिक समाज, हम ऐसे युग में पहुंच गए जहां प्रेम करना गुनाह हो गया

हैदराबाद की घटना पर देशभर में कमोबेश चुप्पी है। हत्याएं अब इंसानी फितरत न हो के क्या मजहबी तौर पर देखी जाएंगी? पिछले कुछ सालों में सबसे ज्यादा चोट प्रेम पर ही पहुंचाई गई है। प्रेम से भाईचारा पनपता है जो कि तमाम लोगों नागवार गुजरता है।

Updated: May 08, 2022, 02:15 AM IST

बोल इंसानियत कहां है तू/तेरी नजरों के सामने ही मैं/जबह होती हूं लम्हा दर लम्हा/देख मैं चीखती हूं, सहमी हूं। बोल इंसानियत कहां है तू/किसलिए मोड़ ली नजरें/क्यों यह चेहरा छुपा लिया तूने/मैं यहां सड़ रही हूं मुद्दत से: नाहिदा इज्जत

सुलताना (पल्लवी) और बी. नागराजू को न तो हीर रांझा की श्रेणी में शुमार किया जाएगा और न ही रोमिया-जूलियट में। वे बाज बहादुर और रूपमती की श्रेणी में भी नहीं आएंगे! वे इसलिए इनकी गिनती में नहीं आ सकते क्योंकि आधुनिक समाज ‘प्रेम’ का अर्थ ही भुला बैठा है। अधिकांश लोगों के लिए प्रेम शब्द के मायने कम से कम वह तो नहीं है जो कि प्रेम के वास्तविक मायने होते हैं। सुलताना अपने वैवाहिक जीवन, जो कि करीब 3 महीने ही रह पाया, में अपने ससुराल नहीं जा पाई। वह पहली बार जब ससुराल गई तब तक वह विधवा हो चुकी थी। शायद यह विरला मौका होगा कि किसी घर में विधवा बहू का गृह प्रवेश हुआ होगा। सुलताना को जब एनडीटीवी पर बात करते सुना, तब राजू के घर की, यानी उसकी ससुराल की महिलाएं उसे घेरे हुए थीं। सुलताना के हाथों में राजू (वह उसे इसी नाम से पुकारती थी) की  एक तस्वीर थी जिसमें राजू को ‘कृष्ण’ के रूप में देखा जा सकता था।

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सुलताना ने जो कहा वह भारतीय समाज में पैठ बना चुके खोखलेपन और निर्दयता की जिन्दा मिसाल है। उसकी हैदराबादी या दख्खनी हिन्दी उस दिन होठों पर मुस्कान नहीं, रुलाई ला रही थी। राजू याने उसके पति को सुलताना के भाई और साथियों ने लोहे की राड से पीट-पीटकर और चाकू से गोदकर हैदराबाद के व्यस्त चौराहे पर सरेआम मार डाला। यह कोई साधारण हत्याकांड नहीं था कि कोई गोली मारकर या चाकू घोंपकर भाग गया हो। बिना यह खातरी करे कि सामने वाला मरा भी है या नहीं। सुलताना का कहना है कि वे दोनों मोटरसाइकल से जा रहे थे। किसी ने उन्हें धक्का देकर गिरा दिया। वे जैसे ही गिरे बी. नागराजू पर लोहे की राड से हमला कर दिया। सारे वार जो करीब 30-35 बार किए थे, सिर्फ सिर पर किए गए। जब सुलताना ने राजू का सिर हाथ में लिया तो उसका हाथ अंदर चला गया था। पूरा दिमाग बाहर आ गया था। हमलावर जो उसका भाई था, यहीं नहीं रूका, उसने इसके बाद राजू को चाकुओं से गोद डाला। वह घटनास्थल पर ही मर गया। इस पूरी वारदात या प्रक्रिया में 10 से 15 मिनट लगे। यानी उसे इतनी देर तक चौराहे पर लगातार पीटा गया। गौर करिए यह सब एक व्यस्त चौराहे पर चल रहा था।

दरअसल सबसे महत्वपूर्ण बात जो सुलताना ने कही है, वह वास्तव में हमारे समाज की मानसिकता को उधेड़कर रख देती है। वैसे समाज ने शर्मिंदा होना तो छोड़ ही दिया है। सुलताना कहती है ‘मैंने समाज से मदद मांगी। किसी ने मदद नहीं की। मैंने समाज पर भरोसा करके जो समय वेस्ट किया, उसकी जगह अगर स्वयं कुछ करती तो शायद राजू को बचा सकती थी। कोई मदद को नहीं आया। 20 लोग 4 लोगों को रोक सकते थे। किसी ने नहीं रोका, वीडियो बनाते रहे।’ सारा समाज खड़ा देखता रहा तमाशबीन की तरह और एक व्यक्ति उनकी आंखों के सामने मार डाला गया। एक 23 साल का जवान व्यक्ति उसकी 21 साल की पत्नी मदद की गुहार लगाती रही और....? हमें विचार करना होगा कि हम सब किस विकृत और डरी हुई मानसिकता के शिकार हैं या हो गए हैं। 

साम्प्रदायिकता का जहर जिस तरह से समाज के प्रत्येक तबके में अपनी पैठ बनाता जा रहा है, वह भी विचारणीय है। र्निलज्ज हिंसा पर उतारू लोग सब तरफ मौजूद हैं। मध्यप्रदेश के सिवनी में दो आदिवासियों की पीट-पीटकर मार डाला गया। मारने वाले किस धार्मिक पंथ को थे, यह चर्चा का विषय हो सकता  है। बात तो राजनीतिज्ञों की इच्छानुसार मोड़ देना आज का सबसे बड़ा गुनाह है। समाज में जिस तरह से हिंसा का अतिक्रमण कर क्रूरता और जघन्यता जगह बनाती जा रही है, वह समझा रही है कि वह दिन दूर नहीं, जब कानून और न्याय की बात करने वाले लोग गिनती के रह जाएंगे। यह सवाल लगातार कोंच रहा है कि हम लोग कैसे ऐसे युग में पहुंच गए जहां प्रेम करना गुनाह हो गया। अभी इन्दौर के खजराना मंदिर से सांईबाबा की मूर्ति को हटाने की मुहीम छेड़ दी गई है। वे तो सबका मालिक एक है, ही कहते थे। यह बढ़ती दरार धीरे-धीरे खाई बनती जा रही है। खाई को पाटना असंभव हो जाता है। पुल बनाए जा सकते हैं, लेकिन पुल आपस में जोडऩे और जुडऩे के अवसर सीमित कर देता है। साथ ही पुल के ढहने और उसे ढहाने की भी संभावना बनी रहती है। इसलिए जरूरी तो यही है कि दरार न पड़े, खाई न बन पाए। 

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इकबाल कहते हैं -
यही मक्सूद फितरत है, यही रंजे मुसलमानी,
अखुव्वत की जहांगीरी मुहब्बत की फरावानी।।
अर्थ - प्रकृति की नियति है और इस्लाम का रहस्य, दुनियाभर में भाईचारा और प्रेम की बहुलता। 
क्या सारे समाज इस भावना के ठीक विपरित कार्य नहीं कर रहे। ऐसे तमाम राष्ट्रवादी जिनके बच्चे अमेरिका, यूरोप व ऑस्ट्रेलिया की नागरिकता ले चुके हैं, उनमें से अधिकांश अब साम्प्रदायिकता को अपना शौक, अपनी हॉबी बना चुके हैं। गरीब, दलित व अल्पसंख्यकों के बच्चे छुरे, चाकू, बंदूकें लहरा रहे हैं, गालियां बक रहे हैं। वहीं इन राष्ट्रवादियों के बच्चे विदेशों में गोल्फ खेल रहे हैं, कंसर्ट सुन रहे हैं। स्थितियां दिनोंदिन गंभीर होती जा रही है। 

उत्तरप्रदेश के ललितपुर में 13 साल की लड़की अपने ऊपर हुए बलात्कार की रिपोर्ट कराने जाती है तो थाने का थानेदार ही उससे पुन: बलात्कार कर देता है। सैकड़ों किलीमीटर दूर चैन्नई के एक थाने में थानेदार अपनी हिरासत में व्यक्ति को यातनाएं देकर मार डालता है। आप कहां जाएंगे? कानून से सहारा नहीं मिलता तो सोचेंगे कि चलिए संविधान का सहारा लें। मौलिक अधिकारों का सहारा लें, कुछ राहत पाएं। परन्तु वहां तो हिन्दू राष्ट्र का नारा बुलंद किया जा रहा है। इकबाल तो इस्लाम को भाईचारे का पर्याय बता रहे हैं। हिन्दू वसुद्यैव कुटुंबकम की बात कर रहे हैं, लेकिन इस धरती पर उनका ही कुटुम्ब बसा रहना चाहिए, ऐसी तमाम लोगों की सोच बनती जा रही है।
सुलताना और राजू की त्रासदी पर लौटते हैं। वे दोनों पुलिस के पास भी गए थे। पुलिस ने सुलताना के परिवार को समझाइश भी दी थी। उन्होंने सुलताना और राजू को भी समझाइश दी थी कि वे कहीं दूर चले जाएं। पुलिस का काम सुरक्षा देना है या पलायन करवा के आराम से बैठ जाना? होना तो यह चाहिए था कि पुलिस इस युगल से कहती कि तुम लोग यहीं रहो, हम देखते हैं कि कोई क्या बिगाड़ता है। सबके अपने-अपने तरीके  है, मामले निपटाने के और सुलटाने के। माया एंजलो की कविता की पंक्तियां है - ‘क्या यह ख्वाहिश है कि मैं टूट के टुकड़े होऊं/ और नजरें मेरी झुक जाएं और सर झुक जाए? मेरे रोने की सदा सुन के सहम के आखिर/शाने झुक जाएं मेरे आंसू के कतरे की तरह’।। 

हैदराबाद की घटना पर देशभर में कमोबेश चुप्पी है। हत्याएं अब इंसानी फितरत न हो के क्या मजहबी तौर पर देखी जाएंगी? पिछले कुछ सालों में सबसे ज्यादा चोट प्रेम पर ही पहुंचाई गई है। प्रेम से भाईचारा पनपता है जो कि तमाम लोगों नागवार गुजरता है। क्या भारतीय लोकतंत्र अब इतना कमजोर हो गया है कि वह अपने नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा में सक्षम नहीं है? क्या संविधान कानून व न्याय के पैमाने अब (अ) धार्मिक वातावरण के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करेंगे।

बी. नागराजू दलित समुदाय से आता था और सुलताना एक अल्पसंख्यक समुदाय से। भारतीय समाज में आज दोनों ही हाशिए पर हैं। इसके बावजूद इस तरह की नफरत कैसे घर कर रही है? क्या गलत मान्यताएं व्यक्ति का अस्तित्व उसका वजूद तक मिटा देने को बाध्य कर रही है। समाज का किसी हत्या का तमाशबीन बनकर रह जाना एक ऐसे कल की ओर इशारा कर रहा है, जिसमें कोई भी सुरक्षित नहीं। वे भी नहीं जिनके हाथ में रॉड, लाठी, चाकू, तलवार, बंदूक, तोप और एटम बम भी है यदि समाज भीतर से पतनशील होंगे तो फिर सुधार की गुंजाइश ही नहीं बचेगी। दुखद तो यह है कि इस तरह की अनैतिक हत्याएं समाज के आपसी रिश्तों को तोडऩे का काम बखूबी कर रही हैं। 

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हत्या के बाद सामने आने वाली प्रतिक्रियाएं वातावरण को और भी विषाक्त बना रही है। देश और प्रदेश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों की चुप्पी भी यह जतला रही है कि उनकी कल्पना का भारत कैसा होगा। हमें सोचना होगा कि क्या हम भी उसी तरह का भारत चाहते हैं? राजनीति का चुनावी जंग में सिकुड़ जाना भी इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार है। कुछ अर्से पहले तक मुखरता को वोट मिलते थे, अब चुप्पी भी चुनाव जिता सकती है। हत्या के बारे में चयनात्मक (सिलेक्टिव) होना भी बेचैन कर रहा है। इस सबके बावजूद सुलताना का साहस और आत्मविश्वास भरोसा दिलाता है कि दुनिया में अभी साहस बचा है। इन दोनों प्रेमियों के लिए माया एंजलों की कविता की कुछ और पंक्तियां -
पिछली तारीखों में जो शर्म थी उससे बढ़कर
फिर से मैं उठती हूं खुद अपनी बुलंदी बनकर
दर्द के माजी को उठकर उसे ठोकर देकर
फिर से मैं उठती हूं खुद अपनी बुलंदी बनकर।