उदासीन अदालतें और न्याय का नया मॉडल पेश करती सांप्रदायिक राजनीति

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुख के प्रतीक राम के जन्मदिन पर मध्यप्रदेश के खरगोन में हुए विवाद व हिंसा की परिणति में ढेर सारे मकानों को बुलडोजरों से ध्वस्त कर दिया गया..बजाय शांति के संदेश देने के, देश में अनेक स्थानों पर अशांति का बोलबाला के रूप में एक नया ट्रेंड सामने आया है.. न्यायालय के स्थान पर बुलडोजर अब एक चलित न्यायालय की तरह, वादी-प्रतिवादी के घर - दुकान पर पहुंचकर मनचाहा न्याय करता दिख रहा है

Updated: Apr 18, 2022, 05:33 AM IST

भारत पर बीते करीब 15 दिन बेहद खौफनायक साबित हुए हैं। कर्नाटक से शुरु हुआ सांप्रदायिक बवंडर रामनवमी को देश के तमाम राज्यों मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गोवा, बंगाल, आंधप्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र से होता हुआ हनुमान जयंती को राष्ट्र की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गया। कहां क्या हुआ ? कैसे हुआ ? क्यों हुआ ? इन सब सवालों को लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का माध्यम बनाया जा रहा है।

बुलडोजर क्या कानून का स्थानापन्न बन जाएगा यह नवीनतम प्रश्न है, भारतीय लोकतंत्र के सामने। सांप्रदायिकता को आधार बनाने वाले समुदाय को इस ऐतिहासिक तथ्य पर जरुर गौर करना चाहिए कि ‘‘भारत के विभाजन में मुस्लिम लीग की सफलता सांप्रदायिकता को सही ठहराती है और पाकिस्तान को एक रखने में उसकी विफलता इसे गलत सिद्ध करती है।’’ अतएव सांप्रदायिकता को आदर्श मानने वालों को पाकिस्तान की वर्तमान परिस्थिति का आकलन कर अपने व देश के भविष्य का ठीक-ठीक आकलन कर लेना चाहिए। न करें तो उनकी इच्छा। परंतु परिणाम निश्चित तौर पर सुखद तो नहीं ही निकलेगा। पाकिस्तान की दशा दुर्दशा के समानांतर एक और घटना पर गौर करिए।

सावरकर सन् 1857 के विद्रोह पर अपनी पुस्तक की प्रस्तावना (सन् 1909) में लिखते हैं, ‘‘राष्ट्र को अपने इतिहास का स्वामी होना चाहिए उसका दास नहीं। मुसलमानों के प्रति घृणा की भावना शिवाजी के काल में उचित और आवश्यक थी किंतु आज केवल इसलिए इस भावना को पाले रखना गलत और मूर्खतापूर्ण होगा कि यह उस समय हिंदुओं की प्रबल भावना थी।’’ गौरतलब है सावरकर सन् 1910 से 1921 तक अंडमान जेल में थे।

आज हर सांप्रदायिक मामले में औरंगजेब का प्रेत लगातार सामने लाया जा रहा है। बहरहाल रामनवमी पर घटी घटनाओं को आधार बनाकर कुछ बात करते हैं। मानस के बालकांड में तुलसीदास जी रामचन्द्र के नामकरण को लेकर लिखते हैं,

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।। सो सुखधाम राम अस नासा। अखिल लोक दायक विश्रामा।।

अर्थात, ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम ‘‘राम’’ है, जो सुख का भवन और संपूर्ण लोकों को शांति देने वाला है।" परंतु यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि रामनवमी के दिन सुख के भवन के प्रतीक राम के जन्मदिन पर मध्यप्रदेश के खरगोन में हुए विवाद व हिंसा की परिणति ढेर सारे मकानों के बुलडोजरों से ध्वंस और बजाय शांति फैलने के पूरे देश में अनेक स्थानों पर अशांति का बोलबाला के रूप में सामने आई है। सरकार कहती है कि दंगों की सजा के तौर पर घर तोड़े गए। प्रशासन कहता है कि अतिक्रमण था, इसलिए तोड़े गए। बहरहाल इस ध्वंस का समय स्वयं ही यह सिद्ध कर रहा है कि तोड़-फोड़ का मुख्य कारण रामनवमी पर हुआ उपद्रव ही था। मध्यप्रदेश के ही बड़वानी जिले के सेंधवा कस्बे में ऐसे तीन लोगों पर आगजनी की एफआईआर कर दी गई जो पिछले करीब एक माह से जेल में बंद थे। उनका भी मकान तोड़ दिया गया। क्या न्यायालय के स्थान पर बुलडोजर अब एक चलित न्यायालय की तरह, वादी-प्रतिवादी के घर - दुकान पर पहुंचेगा और मनचाहा न्याय कर देगा ?

अरुंधती राय की नवीनतम पुस्तक है ‘‘आजादी’’। इसके पहले अध्याय का शीर्षक है, ‘‘सताये हुए शहरों पर किस भाषा में बारिश होती है।’’ अब भारत में जिस नई भाषा का प्रयोग हो रहा है, वह सांप्रदायिकता से ओतप्रोत है। क्या कभी यह सोचा गया था कि भारत में रामनवमी, जिसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्मदिन के रूप में माना जाता है, उस दिन जुलूस में भागीदारी करने वाले कई लोग सार्वजनिक तौर पर ‘‘माँ-बहन’’ की गालियां देते नजर आएंगे। सैकड़ों लोग तलवार नचाते हुए सार्वजनिक स्थानों पर ऊघम करते नजर आएंगे। कान का पर्दा फाड़ देने जैसी तेज आवाज में डीजे पर अश्लील व सांप्रदायिक गानों की दहाड़ सुनाई देगी।

याद रखिए कि देवताओं में भी सिर्फ रामचंद्र जी के ही आगे ‘‘मर्यादा पुरुषोत्तम’’ जुड़ा है। परंतु उस दिन बहुत से भारतीयों ने सभी तरह की मर्यादाओं और वर्जनाओं को छिन्न भिन्न कर डाला। गुजरात दंगे हमारे घरों में हो रही हिंसा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति का विस्तार थे। हम अपने को, अपने परिवार को लगातार हिंसक बना रहे हैं। इधर पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफार्म पर जिस तरह से हिंसा और अश्लील भाषा, यहां तक कि गंदी गालियों तक का खुलेआम प्रयोग हो रहा है, उसने भी भाषाई अश्लीलता और गालियों को सार्वजनिक स्वीकृति दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। तो समझ रहे हैं न भारतीय शहरों में कौन सी भाषा बरस रही है |

आजकल हम अपने आसपास तीन शब्दों को लगातार सुन रहे हैं, ‘‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’’। ये तीनों ही शब्द फारसी-अरबी से लिए गए हैं। भारत में पिछले दिनों हिन्दी को राजकाज की भाषा बनाने को लेकर शुरु हुई चर्चा से जो कुछ सामने आ रहा है, वह बेहद जोखिम भरा है। यूँ तो भारत की करीब 45 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिन्दी भाषी है, लेकिन इसमें भी कई उपभाषाएं या बोलियां शामिल हैं। इनमें से कई आठवीं अनुसूची में अपना स्थान चाहतीं हैं। अभी इसमें 22 भाषाएं हैं। जम्मू से डोगरी और कश्मीर से कश्मीरी इसमें शामिल हैं। भोजपुरी बोलने वाला समुदाय चाहता है कि उसे इस सूची में स्थान मिले। उनकी संख्या करीब 5 करोड़ है। बहरहाल एक के बाद एक विवाद खड़े होते जाने से देश की मुख्य समस्याएं तो हल नहीं होंगी बल्कि नई समस्याएं जरुर अपनी जगह बनाती जाएंगी।

भाषा विवाद आजादी के बाद सबसे संवेदनशील विषयों में रहा है। भारत में भाषायी आधार पर ही तो राज्यों का पुनर्गठन भी हुआ है। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान के टूटने और बांग्लादेश के बनने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक भाषा ही थी। बांग्ला पर उर्दू की प्रभुता पाकिस्तान के टूटने का एक बड़ा कारण बनी थी। इसी तरह श्रीलंका में सिंहलियों ने तमिलों पर सिंहला भाषा थोपने का परिणाम वहां पर भयानक व क्रूर गृहयुद्ध के रूप में देखने का आया था।

मीर तकी मीर का शेर हैं,

जिस सर को गुरुर आज है यहां ताज वारी का। कल उस पें यहीं शोर है फिर नौहागारी (मातम) का।।

इन पंक्तियों को भारतीय राजनीतिज्ञों से ज्यादा बेहतर और कौन समझ सकता है। इसके बावजूद सब कबूतरों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। सांप्रदायिकता नाम की बिल्ली तो बस मौके के इंतजार में है। समय के साथ सांप्रदायिकता स्वयं को विस्तारित करते हुए अपने में बहुसंख्यवाद को भी समाहित कर लेती है। इसी बजह से पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यामांर का पतन हमारे देखते-देखते ही हो गया। आज से करीब 15 वर्ष पहले श्रीलंका सभी पैमानों, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला अधिकार, प्रति व्यक्ति आय में हमसे आगे था। राजपक्षे, परिवार की सरकार ने सांप्रदायिकता व बहुसंख्यक होने के मुहावरों को थोपा और वहां की स्थिति हमारे सामने है। म्यांमार में बौद्ध सांप्रदायिकता और पाकिस्तान का इस्लामी अतिवाद उन देशों को किधर ले गया है, हमारे सामने है। बांग्लादेश जब तक इसे बचाता रहा, जबरदस्त तरक्की करता गया। वहां भी सांप्रदायिक ताकतें अब सिर उठाने को मचल रहीं है। सार्क देशों की स्थिति अब हम सबके सामने है। एक राष्ट्र, एक धर्म और एक भाषा का विचार मूलतः समतावादी समाज की स्थापना में सबसे बड़ा रोड़ा होता है।

भारत में फैल रही सांप्रदायिक नफरत हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। मुख्य समस्याओं से ध्यान बंटाने में इसकी भूमिका तलाशने वालों को यह समझना होगा कि आगामी कुछ वर्षों में यह भारत की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभर सकती है और तब तक बहुत देर हो जाएगी। इतिहासकार बिपिन चंद्र ने आजादी के पूर्व की सांप्रदायिकता पर बेहद महत्वपूर्ण बात कही है, ‘‘हमें सांप्रदायिक तनाव और सांप्रदायिक राजनीति के अंतर को भली प्रकार समझ लेना चाहिए। इनमें से पहला अर्थात सांप्रदायिक तनाव आकस्मिक होता था और इसमें आमतौर पर केवल निचला वर्ग ही प्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित होता रहा। सांप्रदायिक तनाव के समय जिस क्षेत्र में यह तनाव होता वहां भिन्न धर्मावलंबियों के बीच पारस्परिक संबंध बिल्कुल समाप्त हो जाते थे।’’ वहीं तत्कालीन सांप्रदायिक राजनीति पर वे कहते हैं, ‘‘दूसरी ओर सांप्रदायिक राजनीति का इतिहास अधिक लंबा है और उसमें निरंतरता दिखाई देती है। इसमें मुख्य रूप से मध्य वर्ग, जमींदार व नौकरशाह संबंद्ध रहे हैं। वे सांप्रदायिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। इसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक क्षेत्र में होती थी, अन्य समुदाय के सदस्यों के विरुद्ध प्रत्यक्ष कार्यकलापों में नहीं।’’ परंतु वर्तमान में परिस्थितियों ने नया मोड़ ले लिया है और सांप्रदायिक राजनीति हमसे देश के सामाजिक व सांस्कृतिक आधार में हस्तक्षेप कर रही हैं और इसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं।

भाषा को लेकर टूटन का इतिहास दक्षिण एशिया में रहा है तो सांप्रदायिकता से होने वाले भयानक दुष्परिणाम भी किसी से छुपे हुए नहीं है। भारत के विभाजन की विभीषिका आज भी हमें दहला देती है। परंतु हालिया समय में पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यामांर कमोवेश बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं। भारत में पिछले कुछ महीनों से बढ़ते सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को लेकर देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की चुप्पी वास्तव में चकित कर रही है। वहीं इसी विषय पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के बयान एकदम अलग मानसिकता की ओर इशारा कर रहे हैं। बुलडोजर संस्कृति को दिया जा रहा प्रोत्साहन कानून व्यवस्था व न्यायालयों की गरिमा को खतरे में डाल रहा है। उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय की चुप्पी भी डरावनी है।

सवाल यह है कि भारतीय राजनीति को किस दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है ? देश अभी भाषायी और सांप्रदायिक विवादों से अभी जूझ ही रहा था कि एकाएक अगले 15 वर्षों में अखंड भारत स्थापित होने की बात उछाल दी गई। इस विषय पर चलते - चलते यही कहा जा सकता है कि यह कोई समझदारी भरा वक्तव्य नहीं है और जो असंभव है उसे संभव बनाने का प्रयास ही आत्मघाती होता है। अभी अखंड भारत में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान व बर्मा (म्यांमार) ही आते हैं या पूरा जंबूद्वीप आएगा। यानी इंडोनेशिया वगैरह ? तब क्या भारत एक हिन्दू राष्ट्र बना रह पाएगा ? खैर इस पर भी अलग से बात होना चाहिए। यह प्रस्ताव भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि को धूमिल करेगा। यह प्रस्ताव भारत हमें वर्तमान रूस की मानसिकता के नजदीक पहुंचा देता है। वास्तविकता को झुठलाना स्वयं को (धोखा) देना है। संकटकाल में गांधी को याद करते हैं। अपना अंतिम उपवास प्रारंभ करते हुए उन्होंने 13 जनवरी 1948 को कहा था, ‘‘हम गुनहगार बन गए हैं, लेकिन कोई एक आदमी गुनहगार थोड़े है। हिन्दू, सिख, मुसलमान तीनों गुनहगार थे। अब तीनों गुनहगारों को दोस्त बनना है। हम तो धर्म के नाम पर अधर्मी बन गए। अगर हम तीनों धर्म पथ पर चलें तो किसी एक को डरने की आवश्यकता नहीं है।’’ जरुरी तो यह है कि सांप्रदायिक तनाव को सांप्रदायिक राजनीति में परिवर्तित होने से तुरंत रोका जाए।

(उपरोक्त आर्टिकल में लेखक ने अपने स्वतंत्र विचार को संप्रेषित किया है)