आइए गांधी के बहाने किसान आंदोलन को याद करें

यह देश किसानों की मेहनत से ही आबाद है, किसान अगर संतुष्ट और खुशहाल हैं तो देश के खुशहाल होने की संभावना बढ़ जाती है

Updated: Dec 06, 2020, 12:16 AM IST

Photo Courtesy: The Logical Indian
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कभी कभी परिस्थियां ऐसी बन जाती हैं और ऐसा लगता है जैसे वर्तमान अतीत से आगे निकलने की होड़ में सब कुछ सरेआम कर देना चाहता है। वह जो हमारी पीढ़ियों के न तो जेहन में है और न ही जुबां पर। सब कुछ काल चक्र के धुंधलके में खो चुका हो। दरअसल किसान आंदोलन की आहें लोकतांत्रिक भारत में चीखों में बदलने को मजबूर हों तब बरबस ही हमारी निगाहें चंपारण आंदोलन के उस मोहनदास को तलाशने लगती हैं, जो यहीं की किसान पाठशाला से सीखकर महात्मा गांधी बन सके।

हिंदुस्तान की तारीख के चंपारण आंदोलन के इन 103 सालों में बहुत कुछ बदला है। अब अंग्रेज नहीं हैं और इसे यूँ समझिए कि हम उपनिवेश भी नहीं हैं। गैर बराबरी को खत्म करने की आशा लिए संवैधानिक प्रावधान कसमसाते रहते हैं अपने अस्तित्व को लेकर। इनकी चर्चा चुनावी रैलियों में अक्सर जनता जनार्दन को उद्वेलित और उत्साहित करने के लिए होती रहती है। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि भारत में एक व्यक्ति एक मत का सिद्धांत है और अधिकतम वोट पाने की होड़ में जन अस्मिता को अल्प समय के लिए उभारना होता है।

भारत में दो समुदाय रहते हैं। एक किसान, जो बहुसंख्यक है और दूसरे जो किसान नहीं हैं। उनकी संख्या बहुत कम है, लेकिन सत्ता, शासन, प्रशासन में उन्हीं का दम है। इन्हें पूंजीपति हितों का संवर्धन करने वाला प्रभावी समूह भी कहा जा सकता है। चंपारण में जाने के लिए मोहनदास ने गुजरात से रेल के तीसरे दर्जे में बैठकर तकरीबन दो हज़ार किलोमीटर का सफर तय किया था। चम्पारण में किसान नील की खेती का विरोध करने के लिए जमा थे। मोहनदास दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हितों के लिए इतना संघर्ष कर चुके थे कि भारत के लोग भी इस दुबले पतले व्यक्ति से अपरिचित नहीं रहे थे। अंग्रेजों के औपनिवेशिक और अमानुषिक शासन में भी आचार्य कृपलानी का यह मन था कि वे मोहनदास का स्वागत आरती उतार कर करें और आचार्य ने ऐसा किया भी।

नील की खेती नकदी फसल थी और उसे आकर्षक फायदों से जोड़ा भी गया था। अंग्रेज सरकार को मिल रहे मुनाफे ने नये भूमि कानूनों के निर्माण को मजबूर कर दिया जो कि नील की खेती को अधिकतम करने पर केंद्रित था। अंग्रेज सरकार को लगता था कि किसान बहुत खुश होंगे, जबकि भारत के किसानों को लगता था कि इसमें किसानों के कल्याण पर कोई विचार नहीं किया गया था।

मोहनदास द्वारा भारत में सत्याग्रह का यह पहला प्रयोग था। हजारों किसान चंपारण में जमा थे और उनका मोहनदास पर पूरा भरोसा था। अंग्रेज भी यह सब देख रहे थे और वे जानते थे कि किसान अलगाववादी या पृथकतावादी नहीं होते। अत: नाम मात्र के लिए एक दरोगा वहां तैनात कर दिया था। हजारों किसानों से घिरे हुए मोहनदास ने सभा के पास ही उनकी कुर्सी लगा दी थी।

इस आंदोलन में मोहनदास ने अपने प्रथम सत्याग्रह आंदोलन का सफल नेतृत्व किया। अब उनका पहला उद्देश्य लोगों को 'सत्याग्रह' के मूल सिद्धांतों से परिचित कराना था। सरकार ने मजबूर होकर एक जाँच आयोग नियुक्त किया एवं मोहनदास को भी इसका सदस्य बनाया गया। परिणाम सामने था। कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया। जमींदारों  के लाभ के लिए नील की खेती करने वाले किसान अब अपनी जमीन के मालिक बन गए। इस प्रकार मोहनदास ने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूंका। चंपारण ही भारत में सत्याग्रह की जन्म स्थली बना। 

उनके सत्याग्रह का उद्देश्य भी यही था कि अपने निष्क्रिय प्रतिरोध से विरोधी का हृदय परिवर्तन किया जा सके। यह प्रयोग औपनिवेशिक काल में भी सफल रहा। ब्रिटिश सरकार ने गांधी और किसान नेताओं का मार्गदर्शन स्वीकार किया। इस क्षेत्र के गरीब किसानों के लिए खेती पर अधिक मुआवजा और नियंत्रण प्रदान करने के समझौते पर हस्ताक्षर किए और अकाल समाप्त होने तक राजस्व वृद्धि और संग्रह रद्द कर दिया। 

भारत में हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था है। किसानों की मेहनत से ही यह देश आबाद है और किसान अगर संतुष्ट और खुशहाल है तो देश के खुशहाल होने की संभावना बढ़ जाती है।  किसानों के लिए कोई कानून बने तो किसानों से बात तो की ही जानी चाहिए। किसानों को विश्वास में लिए बिना कोई कानून बहुमत के बल पर कैसे लागू किया जा सकता है। 

कोरोना काल के असहनीय और अकस्मात प्रहार से मजदूर किसान हताश और निराश हैं। इस समय वह अपने हितों को लेकर ज्यादा प्रतिबद्ध नजर आ रहा है। उसे अपना अस्तित्व बनाए और बचाए रखने के लिए कोशिश तो करनी ही होगी। दिल्ली में किसानों का आंदोलन भावावेश में उठाया गया या राजनीतिक षड्यंत्र से ग्रस्त नहीं माना जाना चाहिए।  इसमें पंजाब और हरियाणा के किसानों का बहुतायत में होना संयोग नहीं है, बल्कि उनकी जागरूकता का प्रमाण है। 

किसान सबसे ज्यादा चिंतित इस बात से है कि वे बाज़ार में पूंजीपतियों के एकाधिकार का शिकार न हो जाएँ। किसानों का चिंतित होना लाज़मी है। देश ने निजीकरण और विकास के नाम पर बीएसएनएल की बलि और उसकी लाश पर जिओ के महल को बनते और बढ़ते देखा है। कोरोना काल में जब लोग भूखे मरने को मजबूर हो गये हों, रोजगार का बड़ा संकट हो तब कुछेक नामी पूंजीपतियों की सम्पत्ति में बेतहाशा वृद्धि भी देखी है। यह संयोग नहीं, शीर्ष सत्ता के प्रयोग से ही संभव हुआ है। 

चंपारण के किसान औपनिवेशिक कानून के कारण अपनी जमीन पर नील उगाने के लिए मजबूर थे। यह नील उनसे अंग्रेज ले लिया करते थे। इस समय भारत के किसान यह सोचकर आशंकित हैं कि उनकी जमीन पर क्या उत्पादन करें, इसके लिए आने वाले समय में कहीं निजी कंपनियां उन्हें मजबूर न करने लगें और ऐसे में इसका फायदा भी उन कम्पनियों को ज्यादा न मिलने लगे। 

चंपारण आंदोलन के 100 साल पूरे होने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चम्पारण गये थे और उन्होंने सफाई के लिए सत्याग्रह का आह्वान किया था। प्रधानमंत्री के आह्वान पर देश में जनता ने स्वच्छता अभियान खूब चलाये हैं। लेकिन अब जनता के मांगने की बारी है। किसान और आम जनता पूंजीपतियों के प्रभाव की सत्ता से सफाई चाहते हैं। किसान पूंजीपतियों से ही तो आशंकित है। यह आशंका समाजवादी भारत में पहले कभी नहीं देखी गई। 

मोहनदास कहा करते थे कि हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं। हम अपने वर्तमान को स्वयं ही सुधार या बिगाड़ सकते हैं। उस पर हमारा भविष्य निर्भर है। उन्होंने किसान आंदोलन के सफर को देश के भविष्य से जोड़कर आज़ादी की मंजिल तक पहुँचाने में सफलता पाई थी, इसीलिए वे जन नायक कहलाते हैं। आखिर जन नायक बनने के लिए स्वहित और राजनीतिक हितों का बलिदान करना होता है। मोहनदास के बहाने ही उनकी इस सीख को याद रखने की जरूरत है जो उन्होंने बंगाल में 15 अगस्त 1947 को उनसे मिलने आये नेताओं से कही थी। मोहनदास करमचंद गांधी ने उनसे कहा था,“विनम्र बनो, सत्ता से सावधान रहो।  सत्ता भ्रष्ट करती है। याद रखिए, आप  भारत के गरीब गांवों की सेवा करने के लिए पदासीन हैं।”