प्रेस फ्रीडम डे : जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे
आज प्रेस फ्रीडम डे है यानि पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस। स्वतंत्रता की चाहत तो उसे होती है जो गुलाम हो। तो क्या विश्व में पत्रकारिता गुलाम है। शब्दावली अलग अलग हो लेकिन सच्चाई यही है कि पत्रकारिता गुलाम हो चली है। कहीं नीति मीठा मीठा गप और कड़वा कड़वा थू वाली है तो कहीं जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे टाइप। इसी पत्रकारिता को आजादी चाहिए लेकिन कैसे ?
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आज बात हिंदुस्तान के वर्तमान परिवेश की। मेरा मानना है कि आज हमारे हिन्दुस्तान का मीडिया या पत्रकारिता सबसे ज्यादा स्वतंत्र है। आप खुद ही सोचिये एक चैनल खुलेआम हिन्दू- मुस्लिम के नाम पर जन भावनाओं को भड़काने को स्वतंत्र है। दूसरा टीवी चैनल, कोरोना संकट को भी धार्मिक मोड़ देने को स्वतंत्र है। कठुआ में एक मासूम बच्ची के साथ हुए वीभत्स घटनाक्रम को भी देश का प्रमुख अखबार झूठा बताने को स्वतंत्र है। सोशल मीडिया के तौर पर हजारों युवाओं की भीड़ महात्मा गाँधी से लेकर जवाहरल लाल नेहरू तक को बदनाम करने के लिए स्वतंत्र है। इसी देश में हर कोई मीडिया के नाम पर सच को झूठ और झूठ को सच बनाने को स्वतंत्र है।
दरअसल, बीते सालों में एक माया जाल रचा गया है जिसमें पाठक या दर्शक को यह बोध होता है कि वह खबर को पढ़ रहा है या देख रहा है। बल्कि सच्चाई यह है कि वह खबर का वैसे ही उपभोग कर रहा होता है जैसे किसी मनोरंजन चैनल पर सास बहू के सीरियल का। देश में जिसे पत्रकारिता के नाम पर स्वतंत्रता मिली है वह पत्रकारिता नहीं, बल्कि वही चरण वंदना है जिस पर प्रसन्न होकर राजा-महाराजा, गले का हार उतार कर इनाम दिया करते थे। ऐसी स्वतंत्रता से कुछ बंदिशें अच्छी। जिंसमे भले कुछ कष्ट हों लेकिन कम से कम सच और झूठ के बीच का अंतर तो हो।
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दरअसल, पत्रकारिता न तो किसी की अच्छाई में निहित है और न बुराई में। यह सिर्फ एक आईना है। जिसमे बिना लाग लपेट के सच को बिलकुल आईने की तरह ही जनता को दिखाना है। विषय या क्षेत्र भले कोई भी हो। यदि सिर्फ भलाई यह बुराई ही तलाशनी हो तो फिर तो चारण भाटों की परंपरा तो सदियों से राजाओं के यहां रही है। एक से एक कवि, लेखक अपने अपने राजाओं, आकाओं के सम्मान में लिखते आये हैं। परन्तु वे दरबारी की कहलाये पत्रकार नहीं।
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पत्रकारिता लोकतंत्र का बेहद महत्वपूर्ण साथी है। ऐसा इसलिए क्यूंकि दुनिया में जब भी कोई आजादी की लड़ाई लड़ी गई तो उसमें यह लड़ाई भी सबसे प्रमुख रही कि कैसे पत्रकारिता स्वतंत्र रहे। ऐसा इसलिए नहीं कि आंदोलनकारियों ने पत्रकारिता का इस्तेमाल किया। बल्कि इसलिए क्यूंकि जनता का दमन पत्रकारिता के जरिये ही बाकी जनता के बीच आया।
इसलिए अब जनता को ही यह समझना होगा कि आखिर उसे इस मायाजाल को समझकर सच और झूठ के बीच की दीवार तोड़नी है या नहीं। पत्रकारिता के नुकसान में लोकतंत्र का नुकसान और लोकतंत्र में जनता का ही असल नुकसान छिपा है।