संविधान है तो हम हैं: भारतीय संविधान के मूल स्वरूप पर संकट

गांधी विभाजन को एक ‘‘आध्यात्मिक दुर्घटना” कहते थे। विभाजन से असहमत होते हुए भी उन्होंने इस बात का पूरा प्रयास किया कि आपसी कटुता न्यूनतम हो। उन्होंने विभाजन को दुर्घटना संभवतः इसलिए भी कहा होगा कि वे इसे एक षड़यंत्र का नाम देकर भविष्य में किसी भी तरह के मेल मिलाप की संभावना को खत्म नहीं कर देना चाहते थे।

Updated: Jan 28, 2023, 12:10 AM IST

‘‘भारत का हाथ से निकल जाना हमारे ऊपर अंतिम और घातक प्रहार होगा। यह अनिवार्य रूप से एक ऐसी प्रक्रिया का अंग बन जाएगा, जो हमें एक कमजोर शक्ति के स्तर पर पहुंचा देगी।“

- विंस्टन चर्चिल (हाउस आफ कामंस में भाषण फरवरी, 1931)

‘‘सालों पहले हमने नियति को वचन दिया था, और अब अपने उस वचन को पूरा करने का समय आ गया है। बारह बजे रात को, जब पूरा विश्व सो रहा होगा, तब भारत जीवन और स्वतंत्रता के स्वागत में अपनी आंखें खोलेगा। एक क्षण ऐसा आता है और वह क्षण इतिहास में विरल ही होता है, जब हम पुरातन से निकलकर नये परिवेश में कदम रखते हैं, तब एक युग समाप्त होता है और बहुत समय से दबे कुचले किसी राष्ट्र की आत्मा मुखर हो उठती है।“ 

- पं. जवाहरलाल नेहरू (भारतीय संविधान सभा में 14, अगस्त 1947 को दिया गया भाषण) 

उपरोक्त दोनों ही भाषण अपने-अपने देश की संसद में दिए गए हैं। भारतीय संसद में पंडित नेहरू के भाषण और उस दिन पारित प्रस्ताव व शपथ पर गौर करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि भारत का स्वतंत्रता संगठन किन मूल्यों को हासिल करने के लिए संघर्षरत था। कमोवेश दोनों ही भविष्यवाणियां सही सिद्ध हुई हैं। ब्रिटेन की वर्तमान स्थिति हम सबके सामने है। इससे यह भी तय होता जा रहा है कि ब्रिटेन का वैभव कमोवेश परजीवी और पूर्णतया शोषण आधारित था। 

भारत में सन् 1750 ई. के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की कार्यशैली और सन् 1858 से सन् 1947 तक सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन रहने से उपजीं परिस्थितियां सब कुछ समझा देतीं हैं। वहीं भारत जिन मूल्यों को आधार बनाकर अपनी आजादी का संघर्ष लड़ रहा था, उसकी नींव में एशिया, अफ्रीका और दुनिया के अन्य सभी हिस्सों में विभिन्न देशों के औपनिवेशिक शासकों से मुक्ति का भाव व धारणा भी शामिल थी। महात्मा गांधी और उनके साथी यह समझते थे कि दुनिया में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक न्याय पर आधारित व्यवस्था एकांत या एकाकीपन (आइसोलेशन) में न तो विकसित हो सकती है और न बची रह सकती है। इसी आधार पर भारतीय संविधान की रचना शुरू हुई और जनवरी 1947 यानी आजादी से 7 माह पूर्व भारत में कौन-कौन से मौलिक अधिकार होंगे को लेकर बहस की शुरूआत हो गई थी और छः सप्ताह के भीतर अंतरिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने पर सहमति भी बनी थी।

इससे यह भी तय हो जाता है कि भारत ने अपने भविष्य के समाज की दिशा के निर्धारण के बारे में आजादी से पहले ही, इसे संविधान का सबसे महत्वपूर्ण व शुरूआती हिस्सा बनाने की तैयारी कर ली थी। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि हमारे पूर्वज इस बात को लेकर बेहद सचेत थे कि भविष्य का भारत कैसा होगा। यहां इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि किन-किन संगठनों और राजनीतिक दलों ने हमारी संविधान सभा का बहिष्कार किया था। यह भी खोज लेना चाहिए कि 15 अगस्त, 1947 को पूना में जो झंडा फहराया गया उसमें किस प्रतीक का उपयोग किया गया था। 

भारत ने जो आजादी हासिल की थी उसने 26 जनवरी, 1950 को अपनी मुकम्मल शक्ल अख्तियार कर ली। तब भारत पूरी तरह से अपने विधान अपने संविधान के हिसाब से चलने वाला राष्ट्र बन गया। इसकी उद्ेशिका की शुरूआत ‘‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए‘‘ से शुरू होती है और इसके अंत में एक किस्म की स्वीकारोक्ति है, ‘‘एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।“ इन दोनों के बीच जो कुछ लिखा है वही भारतीय गणतंत्र की आत्मा है। इसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और समता की प्राप्ति तथा व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अंततः बंधुता के मूल्यों को बढ़ाने की बात कही गई है। 

परंतु वर्तमान परिस्थितियां हमें समझा रहीं हैं कि एक लोकतंत्र गणराज्य की भारतीय संवैधानिक परिकल्पना कमोवेश अभी संकट के दौर से गुजर रही है। इसका नवीनतम उदाहरण है न्यायपालिका और केंद्र सरकार के बीच बढ़ता टकराव और उस विवाद में उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक रूप से दूसरे सबसे सशक्त व्यक्ति का न्यायपालिका को लेकर सार्वजनिक होता असंतोष, वास्तव में चकित के साथ भ्रमित भी कर रहा है। इससे आज भारतीय संविधान के मूल स्वरूप पर ही संकट का आभास हो रहा है। ‘‘संसद सर्वोच्च है या भारतीय संविधान” इस तरह की बहस का उठना ही लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक भविष्य का रास्ता खोल रही है। वस्तुतः संविधान ही सर्वोच्च है। संसद की सर्वोच्चता का सीधा सा अर्थ है बहुसंख्यवाद के शासन की ओर पहला कदम उठाना। 

गौरतलब है उपराष्ट्रपति को लेकर संविधान के अनुच्छेद 66 (2) में स्पष्ट कर दिया है कि वह अब किसी भी सदन का सदस्य नहीं है और पूर्णतया तटस्थ के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग करेगा। परंतु वर्तमान में भारत के कानून मंत्री और उपराष्ट्रपति के बयानों में एक सा ध्वनित होना वास्तव में हैरान कर देने वाला है। भारत के दूसरे सबसे गरिमामय पद पर आसीन व्यक्ति का एक अन्य संवैधानिक संस्था पर इतना तीखा व सीधा प्रहार वास्तव में संविधान के लागू हो जाने के बाद पहली बार सामने आ रहा है। वहीं संविधान में संघ की न्यायपालिका (अध्याय-4) में उच्चतम न्यायालय की स्थापना यानी अनुच्छेद-124 से लेकर अनुच्छेद-147 तक का अध्ययन करने से यह एक बात स्पष्ट होती है कि संसद सर्वोच्च न्यायालय को अतिरिक्त अधिकार तो प्रदान कर सकती है, परंतु संसद उसके अधिकारों में कमी कर सकेगी, ऐसा कोई प्रावधान संविधान में नजर नहीं आता। 

इसके बावजूद आज सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों में न केवल कटौती की बात सामने आ रही है बल्कि उसे अपनी हद में रहने तक की हिदायतें लगातार दी जा रहीं हैं। यह बेहद विचारणीय विषय है। यह संवेधानिक अनिवार्यता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता अक्षुण्य रहे। सरकार को यदि लगता है कि वह कालेजियम प्रणाली में या न्यायपालिका के किसी अन्य आयाम को लेकर पृथक विचार रखती है, तो वह बजाय अनावश्यक बयानबाजी और पत्र व्यवहार करने के, इसके संदर्भ में संसद में उस पर बहस करे। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय यदि जरूरी समझेगा तो उसकी वैधानिकता पर विचार करेगा। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि विधेयक, अध्यादेश या किसी कानून की वैधानिकता की अंतिम पड़ताल सर्वोच्च न्यायालय के अधीन ही है। अतः केंद्र सरकार व अन्य सभी को इस तरह के विवादों से स्वयं को व न्यायपालिका को बचाना चाहिए।

भारतीय गणतंत्र इस वक्त भयानक सांप्रदायिकता से जूझ रहा है। गौर करिए आजादी के तुरंत बाद महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘मैं पाकिस्तान में हो रहे नरसंहार से उतना ही चिन्तित हू, जितना कि भारत में हो रहे नरसंहार से। लेकिन पहले मुझे भारत के नरसंहार को रोकना होगा। इसलिए मैं यहां अनशन कर रहा हू। जब मैं यहां सफल हो जाऊॅंगा, मैं पाकिस्तान में भी उसी लक्ष्य के लिए प्रयासरत रहूंगा। पाकिस्तान भी मेरा देश है।“ उनके जीवन के आखिरी 9-10 महीने, उनके पूरे जीवन का सार जैसे हैं। वे इस असाधारण हिंसक समय, जो कि कमोवेश एक व्यापक गृहयुद्ध में परिवर्तित हो सकता था, के दौरान भी अपने सिद्धांतों पर डटे रहे। एक पिता के नाते उन्होंने अपना कर्तव्य पूरी शिद्धत से निभाया। बंटवारे के बाद पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दिए जाना इसी बात का प्रभाव है। उनकी यह असाधारण निष्पक्षता ही हमारे संविधान और अंततः हमारे देश का आधार बनी। 

पिछले 75 वर्षों में हमने जो कुछ भी अर्जित किया वह इसी सांप्रदायिक सौहार्द और महात्मा गांधी जैसे तमाम लोगों के बलिदान का ही प्रतिफल है। वहीं डाॅ. राममनोहर लोहिया कहते हैं, ‘‘केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिन्दुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा पैदा नहीं कर सकता, लेकिन उदार हिन्दुत्व कर सकता है, जैसा पहिले कई बार कर चुका है। हिन्दू धर्म संकुचित दृष्टि से राजनीतिक धर्म, सिद्धांतों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन राजनीतिक देश के इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इसमें प्रेरणा मिली और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिन्दू धर्म के उदारता और कट्टरता के महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है।“ 

आज भारत पुनः उदारता बनाम कट्टरता में उलझ गया है और इस टकराव का बड़ा कारण है, समाज के एक वर्ग का भारतीय संविधान के प्रति अंसतोष वैसे इस वर्ग का असंतोष संविधान की निर्माण प्रक्रिया के दौरान ही खुलकर सामने आ गया। भारतीय संविधान में निहित उदारता और लचीलापन इस वर्ग को कभी भाया नहीं। आज असहिष्णुता का नया दौर हमारे सामने है और इसमें अब वे भी शामिल हो गए हैं, जिनसे कि यह उम्मीद की जाती रही है कि वे इन परिस्थितियों का ठीक-ठीक विश्लेषण करेंगे और सत्य सामने लाएंगे। 

वर्तमान दौर में मीडिया का रुख बेहद विचित्र हो गया है। यह तो पूरी तरह से स्पष्ट हो चुका है कि मीडिया जगत भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद-19 वाक स्वातंत्रय, अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीवन का अधिकार, अनुच्छेद-25, 26 व 27 धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार और अनुच्छेद 29 व 30 में अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण आदि को लेकर कमोवेश एकपक्षीय होता जा रहा है। मीडिया का बड़ा वर्ग नागरिकों के मूल अधिकारों के संरक्षण को लेकर अपने दायित्वों को निभा पाने में बेहद कमजोर साबित हो रहा है। 

मीडिया के इस अवतार को इस तरह भी समझा जाना चाहिए कि यह इसमें निवेश किए गए धन के बोझ से स्वयं ही हिलडुल पाने की स्थिति में नहीं है और दूसरी ओर इस पर अधिकांशतः उन व्यक्तियों और व्यावसायिक समूहों का पूर्ण नियंत्रण हो गया है जिनके तमाम अन्य व्यावसायिक हित हैं। अधिकांश मीडिया अंततः डायनासोर की गति को प्राप्त हो ही जाएगा। वर्तमान में कथित मुख्यधारा मीडिया का जो एकमात्र ध्येय या लक्ष्य सामने आ रहा है, वह यही है कि समाज में व्यवस्था के प्रति किसी भी तरह के असंतोष को बढ़ने ही नहीं दिया जाए। बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, सांप्रदायिकता को तो छोड़ ही दें तो जोशीमठ में हुई तबाही को लेकर सरकार द्वारा प्रेस को जानकारी देने पर रोक लगाने वाले कदम की आलोचना भी मुख्य धारा के मीडिया में देखने को नहीं मिल रही है। अपने अधिकारों की कमी को लेकर भी मीडिया का मौन अब ज्यादा अचंभित भी नहीं करता। क्या यह बेहद खतरनाक व अपमानजनक नहीं है? 

गांधी विभाजन को एक ‘‘आध्यात्मिक दुर्घटना” कहते थे। विभाजन से असहमत होते हुए भी उन्होंने इस बात का पूरा प्रयास किया कि आपसी कटुता न्यूनतम हो। उन्होंने विभाजन को दुर्घटना संभवतः इसलिए भी कहा होगा कि वे इसे एक षड़यंत्र का नाम देकर भविष्य में किसी भी तरह के मेल मिलाप की संभावना को खत्म नहीं कर देना चाहते थे। इसीलिए संविधान सभा में हुई बहसों पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जब देश सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा था, तब भी उससे उपजी कटुता का प्रवेश संविधान सभा में नहीं हो पाया और इसी वजह से हमारे सामने इतना परिपक्व संविधान आ पाया था। हमें यह स्वीकारना होगा कि वास्तव में संकट संविधान पर नहीं बल्कि हम पर है। 

संविधान तो उस गणदेवता की तरह है, जिसके माध्यम से हम अपने भय से मुक्त हो सकते हैं। भारतीय संविधान की असाधारण उपलब्धि यह है कि उसने औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने के बाद भारत के और विभाजन की संभावनाओं को सिरे से नष्ट कर दिया। इस संविधान ने भारत की (आजादी के पहले की) रियासतों और नागरिकों को इतना आश्वस्त कर दिया कि उन्होंने पृथक राष्ट्र का सपना कभी देखा ही नहीं। भारत के वर्तमान स्वरूप में बने रहने के पीछे का सबसे बड़ा कारण भारत का संविधान ही है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस बात पर नये सिरे से विचार करना शुरू करें कि ‘‘विकास” के नाम पर की जा रही गतिविधियों से भारत में ‘‘विषमता” क्यों बढ़ती जा रही है। 

अंत में नाजिम हिकमत की इन पंक्तियों पर गौर करें,

"दुनिया सरकारें या दौलत नहीं चलाती, दुनिया को चलाने वाली है अवाम, हो सकता है मेरा कहा सच होने में लग जाएं सैंकड़ों साल, पर ऐसा होना है जरुर"