MODI 2.0 की सालगिरह : नाकामियों को अवसर में तब्दील करने का हुनर

coronavirus महामारी बाकी दुनिया के लिए चाहे जितना बड़ा अभिशाप बन कर आई हो, कई दृष्टियों से मोदी सरकार के लिए यह “अवसर” साबित हो रही है।

Publish: May 26, 2020, 02:04 PM IST

Photo courtesy : bloomberg
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नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की पहली सालगिरह कोरोना महामारी से उपजे भीषण संकट के बीच मना रहे हैं। ये महामारी बाकी दुनिया के लिए चाहे जितना बड़ा अभिशाप बन कर आई हो, कई दृष्टियों से मोदी सरकार के लिए यह “अवसर” साबित हो रही है। इस महामारी ने इस सरकार को लॉकडाउन लागू करने का मौका दिया। अगर लॉकडाउन नहीं होता, तो इस पहली (और वैसे कुल मिला कर छठी) सालगिरह पर मोदी सरकार के सामने कम-से-कम तीन बड़ी चुनौतियां खड़ी होतीं।
 
पहली चुनौती तो बेशक अर्थव्यवस्था संबंधी होती, जो लॉकडाउन के पहले ही जर्जर हाल में पहुंच चुकी थी। लंबे समय से जारी ग्रामीण संकट, घटते रोजगार, और उनके परिणामस्वरूप आमदनी, मांग एवं उपभोग में चिंताजनक स्तर तक कमी से ग्रस्त अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर तेजी से गिर रही थी। अर्थव्यवस्था को इस हाल में पहुंचाने में ‘raw wisdom’ से लिए गए नोटबंदी जैसे फैसले और वस्तु एवं सेवा कर (GST) पर ऐसी ही बुद्धि से अमल की भी बड़ी भूमिका रही थी। लॉकडाउन ने इस कमजोर हाल अर्थव्यवस्था पर लगभग घातक प्रहार किया है। मगर मोदी सरकार के लिए फायदे की बात यह है कि फिलहाल उससे कोई सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। विपक्ष भी अभी उसकी जवाबदेही तय करने के मूड में नहीं दिखता.. तो कुल मिलाकर केंद्र सरकार के कु-प्रबंधन, अर्थव्यवस्था संबंधी समझ के उसमें स्पष्ट घोर अभाव और कुछ उद्योग घरानों के हित में नीतियों को ढालने के उसके उत्साह के कारण जो बदहाली देश में आई है, उसकी लगभग सारी जिम्मेदारी कोरोना महामारी के मत्थे मढ़ कर अपनी जवाबदेहियों से बचने का ‘अवसर’ उसे मिल गया है।
लगभग साढ़े पांच साल के शासन काल के बाद नरेंद्र मोदी सरकार के सामने पहली बड़ी राजनीतिक चुनौती नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध में खड़े हुए जन आंदोलन से उपजी थी। यह उचित ही कहा गया था कि इस आंदोलन के जरिए भारत की संवैधानिक आत्मा ने अपने को फिर से साधिकार व्यक्त किया है। शाहीन बाग और देश भर में दो सौ से अधिक जगहों पर उभरे ‘शाहीन बागों’ ने सत्याग्रह का आधुनिक संस्करण हमारे सामने प्रस्तुत किया। तमाम पुलिस दमन और सत्ता समर्थक तबकों की भड़काऊ कार्रवाइयों के बावजूद अहिंसक लेकिन निडर होकर अपनी आत्म-चेतना को व्यक्त करने पर अडिग लाखों लोगों खासकर नौजवानों ने निराश माहौल में नई उम्मीदें जगा दीं। उम्मीद यह थी कि हमारे लंबे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जन्मी- लेकिन हिंदू राष्ट्रवाद के आक्रमण से खतरे में पड़ी भारत की परिकल्पना को बचाना अब भी संभव है।

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लेकिन “लाज़िम है कि हम भी देखेंगे” के संकल्प और अहिंसक सत्याग्रह के आगे किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ी सत्ता को कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने एक ‘अवसर’ उपलब्ध करवा दिया। संक्रामक बीमारी ने वैसे भी लोगों में भय पैदा किया। इसकी पृष्ठभूमि में लागू किए गए लॉकडाउन से प्रतिरोध को खत्म कराने का एक ‘नैतिक’ मौका सरकार को मिला। महामारी की चर्चा के अत्यधिक हावी हो जाने के कारण सीएए विरोधी आंदोलन को आम चर्चा से बाहर करवाने का मौका उसे मिल गया। कहा जा सकता है कि सरकार ने इस ‘मौके’ का भरपूर उपयोग किया है। पहले तो सत्याग्रहियों को धरना स्थलों से हटाया गया। फिर सीएए विरोधी आंदोलन में अपनी सक्रियता के कारण नेतृत्व की भूमिका में आए नौजवानों पर वार किया गया और अवैध गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए,UAPA) के तहत कई नौजवान गिरफ्तार कर जेल में डाल दिए गए। उनमें गर्भवती जफूरा जरगर भी शामिल हैं। कई अन्य नौजवानों पर गिरफ्तारी तलवार लटक रही है। लॉकडाउन में स्थगित लोकतंत्र, पंगु राजनीति और नियंत्रित मीडिया विमर्श के कारण ये गिरफ्तारियां ना तो सियासी मुद्दा बनी हैं, ना ही उनका वैसा विरोध हुआ है, जैसा आम दिनों में होता।
 
नरेंद्र मोदी सरकार के सामने तीसरी बड़ी चुनौती प्रतिकूल अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया के कारण उभर रही थी। यह प्रतिक्रिया दुनिया में इस वक्त डेमगॉग (demagogue) नेताओं का दौर होने के बावजूद उभर रही थी। यूरोप ले कर अमेरिका और मुस्लिम देशों तक में भारत की वह प्रतिष्ठित छवि टूट रही थी, जो गांधी- नेहरू की परंपरा और उसी परंपरा से निकली भारत की संवैधानिक वचनबद्धताओं के कारण दुनिया में बनी थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने इस छवि को तोड़ कर भारत की अलग छवि गढ़ने की कोशिश की है। हालांकि इस प्रयास की शुरुआत मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में हो गई थी, लेकिन इस कार्यकाल में जिस तेजी से इस सरकार ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने के कदम उठाए, उससे दुनिया के जागरूक और आधुनिक चेतना से प्रेरित जनमत का रहा-सहा भ्रम भी टूटने लगा। इसकी शुरुआत कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 के खात्मे से हुआ। इस कदम को लागू करने के लिए जिस तरह पूरे कश्मीर में महीनों का लॉकडाउन किया गया और नागरिक अधिकारों की अवहेलना की गई, उसका परिणाम दुनिया भर में देखने को मिला।
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जब बीजेपी सरकार ने सीएए पारित कराया, तो उससे यही संदेश दुनिया ने ग्रहण किया कि भारत में अब औपचारिक (यानी वैधानिक) रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की शुरुआत कर दी गई है। सीएए विरोधी आंदोलन के दमन और उसी सिलसिले में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों ने दुनिया में तीखी प्रतिक्रिया पैदा की। इस पर भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बचाव की मुद्रा अपनाने पर मजबूर होना पड़ रहा था। लेकिन तभी कोरोना महामारी दुनिया पर छा गई। इसके साथ दुनिया में किसी को दूसरे की खबर लेने की परवाह नहीं बची। जब तमाम लोग ही एकांत में रहने को विवश हो गए (या कर दिए गए), तो फिर अधिकार, स्वतंत्रता, इंसानियत आदि की फिक्र अभी कौन कर रहा है? तो इस बिंदु पर भी कोरोना महामारी ने मोदी सरकार को भारी राहत दी है।
 
कम से कम निकट भविष्य में तो इनमें से कोई ‘अवसर’ सरकार के हाथ से निकलता नहीं दिखता। भारत में लॉकडाउन एक नाकाम उपाय साबित हुआ है। अब जिस तरह कोरोना वायरस से संक्रमण के नए मामले तेजी से सामने आ रहे हैं, उससे भारत को इस बीमारी के वैश्विक हॉटस्पॉट में गिना जाने लगा है। ये आशंका सच होती लग रही है कि ये बीमारी भारत के लिए बहुत खतरनाक साबित होगी। इस बीच लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों को रोजी-रोटी से महरूम कर दिया है। इसके परिणामस्वरूप देश में मानवीय त्रासदी का ऐसा नजारा सामने आने लगा है, जिसकी कल्पना भी आजाद भारत में नहीं की जाती थी। भुखमरी की बनती स्थितियों की बीच अर्थव्यवस्था के संभलने (या उसे संभालने के उपाय) जैसी चर्चाएं भी बेमतलब हो गई हैं.

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इसके बावजूद प्रधानमंत्री मोदी की सफलता यह है कि उनकी लोकप्रियता पर कोई आंच नहीं आई है। वे इस बात को लेकर आश्वस्त रह सकते हैं कि देश में 35 से 40 प्रतिशत मतदाताओं की पूरी (या अंध) आस्था उनमें बनी हुई है। अगर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो भी जाएं, तब भी अपनी चुनावी व्यवस्था में इतने वोट किसी पार्टी को विजयी बनाने के लिए पर्याप्त होते हैं। दरअसल ये गोलबंदी और पुख्ता करने में बीजेपी/आरएसएस कामयाब नजर आते हैं। उनका यह प्रचार कारगर है कि प्रधानमंत्री के कुशल नेतृत्व और त्वरित फैसले के कारण भारत कोरोना की आफत से बच गया था, लेकिन तबलीगी जमात ने सारा खेल बिगाड़ दिया. इस तरह मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण को एक नया तर्क मिल गया है। इसका असर उत्तर भारत में गांव-गांव तक हुआ दिखता है तो इस तरह जो पहले की नाकामियां थीं, कोरोना महामारी ने उस पर परदा डाल दिया। जो अब की नाकामियां हैं, उसके लिए मोदी समर्थकों के पास एक तर्क है।
 
इस तर्क में तथ्य और सच्चाई की कोई अहमियत नहीं है। अगर गुजरे छह वर्षों पर गौर करें, तो असल में नरेंद्र मोदी- अमित शाह की जोड़ी की सबसे बड़ी सफलता ही यह है कि उन्होंने देश के सार्वजनिक विमर्श में आम कथानक (कॉमन नैरेटिव) को कंट्रोल कर रखा है। ऐसा उन्होंने मेनस्ट्रीम मीडिया के बहुत बड़े हिस्से को अपने नियंत्रण में लेकर और सोशल मीडिया के कुशल उपयोग (या दुरुपयोग कहें) से किया है। इस तरह उन्होंने देश की एक तिहाई से ज्यादा आबादी (बीजेपी के असल प्रभाव क्षेत्र में ये जनसंख्या 45 से 50 प्रतिशत तक है) को अपनी कहानी के मुताबिक सोचने और व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर रखा है। ऐसे प्रचार इतना मजबूत है कि इसके जरिए नाकामियों को कामयाबी बताने और तमाम मुश्किलों का दोष जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस पर डालने में वे सफल होते रहे हैं। उन्होंने अपने कथानक की ऐसी आभासी दुनिया निर्मित कर दी है, जिसके बाशिंदे सिर्फ वही देखते और सोचते हैं, जो उन्हें बताया जाता है। लोगों के सामाजिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों के बल पर उन्होंने अपनी ऐसी ताकत बनाई है, जो फिलहाल अपराजेय लगती है।

Click  असली लॉकडाउन की शुरुआत तो अब हुई है
 
सोशल मीडिया के प्रसार के साथ ऐसे राजनीतिक कथानकों के कारगर होने की ऐसी परिघटना दुनिया के अनेक लोकतांत्रिक देशों में देखने को मिली है। राजनीति-शास्त्रियों ने इसे ‘पोस्ट ट्रूथ’ का दौर कहा है। यानी ऐसा दौर जब सच राजनीतिक कथानक को निर्मित करने के लिहाज से अप्रासंगिक हो जाता है। जब कभी इस दौर का इतिहास लिखा जाएगा, मोदी-शाह का नाम इसके सबसे सफल प्रयोगकर्ताओं में दर्ज होगा। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उन्होंने पिछले छह साल में भारत की पहचान बदल दी है। ऐसा करने में वे कैसे कामयाब हुए या यह सिलसिला कैसे और कब से आगे बढ़ा, यह दीगर कहानी है। फिलहाल, मौजूं पहलू यह है कि इन छह वर्षों में वह विमर्श, वो चिंताएं, वो मुद्दे, और वह उद्देश्य निष्प्रभावी हो गए हैं, जिनसे (आजादी के बाद) उसके पहले की अवधि में भारत की अस्मिता बनी थी। गुजरा एक साल इस परिघटना के और मजबूत तथा अधिक ठोस होने का रहा है।
 
इसके बावजूद मार्क्सवादी शब्दावली में कहें, तो गुजरा एक साल इस परिघटना के एंटी-थीसीस (प्रतिवाद) के उभार का भी हो सकता था। सीएए विरोधी आंदोलन ने ये संभावना जताई थीं, मगर कोरोना महामारी ने उस संभावना पर अंधकार का चादर डाल दिया। फिलहाल कहना मुश्किल है कि ये चादर हट पाएगी या नहीं, अथवा ऐसा होगा तो कब होगा। वर्तमान सच्चाई यही है कि मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में पहली सालगिरह अपने लिए उपलब्ध ‘अवसरों’ के साथ मना रही है। इन ‘अवसरों’ का उसने बखूबी इस्तेमाल किया है। संकट कैसे ‘अवसर’ में बदल जाता है, या कैसे इसे ‘अवसरों’ में तब्दील कर दिया जाता है, आखिर में ये साल इसकी ही कहानी बन गया महसूस होता है।