Corona Effect: बंद हैं न्यायालयों के द्वार, कैसे चले वकीलों का परिवार
Corona in India: कोरोना महामारी में देश की प्रमुख बड़ी अदालतों में पिछले पांच महीनों से ठप है काम, वकीलों, मुंशियों और अदालती पेशे से जुड़े अन्य कामगारों के सामने रोजी-रोटी का संकट

देश में कोरोना महामारी के आगमन के साथ ही देश की प्रमुख बड़ी अदालतें बंद हो गईं थी, पिछले पांच महीनों से अधिक समय से इन अदालतों में काम लगभग ठप है, ऐसे में वकीलों, मुंशियों और अदालती पेशे से जुड़े अन्य कामगारों की रोजी-रोटी का संकट आ खड़ा हुआ है।
राकेश श्रीवास्तव बीस साल से अधिक समय से हाईकोर्ट से जुड़े वकीलों के चैंबर में मुंशी का काम कर रहे हैं। पिछले छः महीने से अदालत परिसर के अस्थाई रूप से बंद होने के कारण पहले की तरह सुनवाई नहीं हो रही है और राकेश श्रीवास्तव बेरोजगार हो गए हैं।
यह हाल अकेले राकेश श्रीवास्तव का नहीं बल्कि अदालत परिसर में कार्यरत हज़ारों गैर सरकारी कामगारों का है, वे चाहे अदालत से सीधा जुड़े हों या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हों। अदालत परिसर में होने वाली भीड़-भाड़ पर निर्भर लोगों का भी हाल बुरा है। आगे यह स्थिति कब तक बनी रहेगी उन्हें नहीं पता। इस रिपोर्ट में हमने इलाहाबाद हाईकोर्ट से जुड़े वकीलों, मुंशी और कोर्ट से जुड़े अन्य पेशेवर लोगों से बातचीत की है।
कोरोना महामारी के फैलाव के दौरान हुए लॉकडाउन से सभी क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। अदालतें भी लॉकडाउन से बड़े स्तर पर प्रभावित हुई हैं। भारतीय अदालतों में 3.53 करोड़ से अधिक मामले लम्बित हैं वहीं नेशनल जूडिशरी डेटा ग्रिड के मुताबिक 4363260 मामले देश के कुल पच्चीस उच्च न्यायालयों में लम्बित हैं। जानकारों का मानना है कि अदालत के बंद रहने से यह संख्या और अधिक हो सकती है।
वकीलों के सम्मुख रोजगार का संकट
लॉकडाउन से उपजे संकट का असर देश के सभी न्यायालयों से जुड़े लोगों के सम्मुख आया है। एशिया की सबसे बड़ी अदालत इलाहाबाद हाईकोर्ट अन्य उच्च न्यायालयों की अपेक्षा सबसे अधिक जनसंख्या को कवर करता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट से न्याय के अलावा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लोगों की एक विशाल संख्या का रोजगार के सम्बंध में जुड़ाव है। लॉकडाउन ने सबके सम्मुख आजीविका का संकट पैदा कर दिया है।
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एहतियात बरतते हुए लॉकडाउन के शुरुआती दिनों से ही अदालत परिसर को अस्थाई रूप से बंद किया गया। बीच-बीच में कुछ दिनों के लिए न्यायालय वर्चुअल रूप से खुलीं भी लेकिन एक दो दिन से अधिक नहीं चल सकीं। यह सिलसिला पिछले छः महीने से अनवरत जारी है। अदालत परिसर में बार, बेंच और वकील के अलावा इनसे जुड़ी एक श्रृंखला है जिसमें मुंशी से लेकर फाइल सिलने, बाइंडिंग करने, फोटो कॉपी करने, टाइपिस्ट और रेहड़ी-पटरी वाले लोगों पर भी लॉकडाउन में अदालत बंद रहने से गंभीर असर पड़ा है।
वकालत एक ऐसा पेशा है जिसमें वकीलों की एक बड़ी संख्या ऐसी है जिनकी कमाई ‘हैंड टू माउथ’ है। यानी बड़ी संख्या में वकील रोज गड्ढा खोदते हैं और रोज पानी पीते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की बात करें तो यहां लगभग 20000 वकील एडवोकेट ऑन रोल हैं। जिसमें सरकारी वकीलों की अनुमानित संख्या 500 से 600 तक होगी। लॉकडाउन के दौरान एडवोकेट ऑन रोल के तहत रजिस्टर्ड वकीलों की एक विशाल संख्या के समक्ष रोजगार संकट पैदा हो गया है।
सत्येंद्र कुमार सिंह पच्चीस साल से वकालत के पेशे से जुड़े हैं। वे कोरोना संकट के दौरान मदद न पहुंचाने के लिए सरकार को दोषी ठहराते हुए कहते हैं कि कलेक्ट्रेट से लेकर हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक में कोई काम नहीं हो रहा है। इसके बहुआयामी प्रभाव हैं। कानून व्यवस्था को लेकर समाज पर बुरा प्रभाव पड़ ही रहा है साथ ही वकीलों के समक्ष जीवनयापन का संकट पैदा हो गया है। अस्सी फीसदी वकील किराये के घर में रहते हैं, जो वकील घर बनवाये भी हैं उनका घर क़िस्त पर है।
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सत्येंद्र कुमार आगे कहते हैं कि दस फीसदी ही वकील हैं जो चार-छह महीने बैठकर खा सकते हैं बाकी के सम्मुख ऐसी स्थिति आ गई है कि कोई वकील न किसी से मदद ले सकता है न दे सकता है। वहीं सरकार कोरोना नहीं रोक पाई, लोग विदेश से आते रहे उनकी जांच नहीं हुई, देश भर में कोरोना फैलता रहा। लेकिन कोरोना महामारी फैल जाने के बाद जो रिलीफ हमें देना चाहिए सरकार की तरफ से नहीं दिया गया।
उच्च अदालत से जुड़े वकीलों में एक बड़ी संख्या विजिट पर जाने वाले वकीलों की है। इलाहाबाद से हर सप्ताह हजारों की संख्या में वकील प्रदेश के अन्य जिला कचहरियों में केस के संबंध में जाते हैं। लॉकडाउन में एक शहर से दूसरे शहर का आवागमन बंद होने के कारण विजिट पर जाने वाले वकीलों के समक्ष रोजगार का संकट पैदा हो गया है। वकील अवसाद ग्रस्त हो रहे हैं वे आत्महत्या की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।
विधि विशेषज्ञ और उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रमेश कुमार कोरोना के कारण हाईकोर्ट बंद करने को उचित नहीं मानते वे कहते हैं कि कोर्ट बंद होने के कारण उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ रहा है। कोरोना के बहाने पूरा सिस्टम लकवाग्रस्त हो गया है। वकील भुखमरी के कगार पर हैं, घर, गाड़ी की क़िस्त और बच्चों के स्कूल की फीस जमा नहीं कर पा रहे हैं। जो वकील किराये पर रह रहे हैं वे अपना किराया नहीं चुका पा रहे हैं। एक वकील से लगभग पांच परिवार चलता है जिसमें मुंशी से लेकर फाइल सिलने, बाइंडिंग करने वाले हैं सबके सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया है।
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जूनियर वकील संदीप कुमार कहते हैं कि हाई कोर्ट बंद होने से जीवन अस्त व्यस्त हो गया है। छः महीने से एक भी केस नहीं आया है। उधार-बाड़ी लेकर किसी तरह काम चल रहा है। हाईकोर्ट के अध्यक्ष और बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश की तरफ से आश्वासन दिया गया कि जूनियर वकील और मुंशी को आर्थिक मदद की जाएगी लेकिन अभी तक कुछ नहीं मिला।
मुंशियों पर लटकती आजीविका की तलवार
इलाहाबाद हाईकोर्ट से जुड़े मुंशियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, अनुमानित मुंशियों की संख्या लगभग 5000 है। वकील के बाद मुंशी लॉकडाउन में सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। मुंशी का रोजगार वकीलों के रोजगार पर निर्भर है। पिछले छः महीने में ज्यादातर अदालत के अस्थाई रूप से बंद रहने के कारण वकीलों के पास केस आने लगभग बंद हो चुके हैं। जरूरी केस ही अदालत में सुने जा रहे हैं। नए केस दायर नहीं हो रहे हैं। लगभग वकीलों ने अपने मुंशियों को काम पर आने से मना कर दिया है। वकीलों का कहना है उनके पास जब रोजगार नहीं है तो वे अपने स्टॉफ को कैसे रोजगार दे सकते हैं?
राकेश श्रीवास्तव बीस साल से मुंशी हैं। लॉकडाउन में बेरोजगार हो गए हैं। राकेश ने जीविकोपार्जन भत्ता फार्म भरा लेकिन छः महीने बाद तक उनके बैंक खाते में सरकारी मदद नहीं पहुंची, वे कहते हैं कि महीने में हफ्ते दस दिन अदालत खुल रही है। सरकारी कर्मचारी छोड़कर चाहे वे वकील हों या मुंशी सभी लाचार हो गए हैं। जो अदालत पर आश्रित था उसके सामने खाने-पीने का संकट आ गया है। सरकारी कोटे से मिल रहे दाल-चावल से राहत तो है लेकिन सबकुछ उसी पर निर्भर नहीं है। वहीं दूसरी ओर हमारे साथ के कई मुंशी रास्ता बदल लिए, ईंटा-गारा कर रहे हैं या शहर से गांव चले गए हैं।
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लॉकडाउन के दौरान अदालत के बंद रहने के विषय में उच्च न्यायालय में अधिवक्ता राकेश गुप्ता कहते हैं कि हाईकोर्ट बंद होने से रोजगार का संकट है इससे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन एक संकट न्यायपालिका की प्रासंगिकता पर भी है। न्यायालय के बहुत दिनों तक बंद रहने से लोकतंत्र के दो प्रमुख पायदान व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के निरंकुश हो जाने का खतरा है। जनता के सिविल और आपराधिक मामले अदालतों तक पहुँचने के पहले ही पुलिस-प्रशासन द्वारा मनमाने तरीके से निर्णित कर लिए जाने का खतरा बढ़ गया है।
वे आगे कहते हैं कि यदि कोरोना महामारी का संकट दो तीन सालों तक बना रहा तो क्या न्यायालयों को इसी तरह आंशिक तौर पर चलाया जाएग। ऐसे में अदालतों की प्रासंगिकता और उनके वजूद पर खतरा मंडराने लगेगा। इस तरह वकीलों की आजीविका का संकट और अदालत का वजूद दोनों एकदूसरे से जुड़े हुए हैं।