गृहस्थी में रहते हुए कैसे करें संन्यास धर्म का पालन

विदेहराज जनक के जीवन से शिक्षा लें, जिनका धर्म, राजनीति और ब्रह्म विचार पर समान रूप से अधिकार था

Updated: Dec 29, 2020, 05:33 PM IST

Photo Courtesy: dandavats 108
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एक गृहस्थ साधक की जिज्ञासा है कि हम गृहस्थी में रहते हुए संन्यास धर्म का पालन कैसे करें? गृहस्थों के मन में ये जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि हम अपने कर्तव्य का पालन करते हुए बिना गेरुआ वस्त्र धारण किए किस प्रकार संन्यास धर्म का पालन कर सकते हैं। ऐसे साधकों को महाराज विदेहराज श्री जनक जी के जीवन से शिक्षा लेनी चाहिए। जिनका धर्म,राजनीति और ब्रह्म विचार पर समान रूप से अधिकार था। स्वयं उन्होंने कहा भी है-

धरम राजनय ब्रह्म विचारू।

इहाँ यथा मति मोर प्रचारू।।

जिनके दरबार में बड़े-बड़े ऋषि मुनि ज्ञान प्राप्त करने के लिए जाया करते थे। एक बार देवर्षि नारद ने महाराज श्री जनक जी से पूछा कि महाराज! गृहस्थी में रहते हुए भी आपकी निश्चल ब्रह्म निष्ठा का निर्वाह कैसे हो पाता है? यह सुनकर महाराज ने देवर्षि का आतिथ्य सत्कार किया और निवेदन किया कि आज आपसे मेरा आग्रह है कि आप अपनी हथेली पर एक जलता हुआ दीपक रखकर पूरी मिथिला नगरी का परिभ्रमण करें। परन्तु एक बात का ध्यान रखना अति आवश्यक है कि दीपक बुझने न पाए, अन्यथा बहुत बड़ा अनर्थ हो सकता है।

देवर्षि ने वैसा ही किया। सायंकाल महराज जनक ने पूछा कि देवर्षि! आपने नगर भ्रमण कर लिया? नारद जी बोले कि हां महाराज। श्री जनक जी बोले कि आपने दीपक को बुझने से कैसे बचा लिया? देवर्षि नारद ने कहा कि महाराज! सम्पूर्ण मिथिला नगरी का परिभ्रमण करते हुए भी मेरा ध्यान दीपक की लौ पर ही था, मुझे ऐसा लगता था कि कहीं दीपक न बुझ जाय। बस मेरी एकाग्रता के कारण ही जलता हुआ दीपक सुरक्षित लेकर मैं लौट आया।

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देवर्षि की बात सुनकर श्री विदेहराज जनक ने कहा कि देवर्षि! बस मैंने भी जीवन में इसी प्रक्रिया को अपना लिया है। अपने समस्त कर्तव्यों का सम्यक निर्वहण करते हुए भी चित्त को एकाग्र करके ज्ञान दीपक की लौ बुझ न जाय इसके लिए मैं सतत सावधान रहता हूं। अतः महाराज श्री जनक जी की भांति ही प्रत्येक गृहस्थ अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए लक्ष्य की प्राप्ति भी कर सकता है।