कर्त्तव्य का पालन ईश्वर की आराधना का पर्याय

कर्त्तव्य का पालन और स्वधर्म का अनुसरण मनुष्य के कल्याण का हेतु होता है, यही बन जाता है ईश्वर की आराधना

Updated: Sep 07, 2020, 08:06 PM IST

Photo Courtesy: Indian Express
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हमलोग श्री राम चरित मानस में वर्णित धर्म रथ के प्रसंग की चर्चा कर रहे हैं। श्री विभीषण जी भगवान श्रीराम के परम भक्त थे।अनुरक्त थे। यद्यपि उनको श्री राम के प्रति विश्वास था कि भगवान श्रीराम समर्थ हैं। रावण उनपर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। फिर भी ये नियम है कि - प्रेमाSनिष्टशंकी अर्थात् जहां प्रेम होता है वहां अनिष्ट की आशंका अधिक होती है। तो विभीषण को भी अनिष्ट की आशंका इसलिए हो गई कि उन्होंने देखा कि श्री राम जी के शरीर पर न तो कवच है, न चरणों में पदत्राण है, और न रथ है। ये सीधे सीधे रावण से लड़ने चले हैं। परन्तु बिना साधनों के रावण पर कैसे विजय प्राप्त करेंगे। इस आशंका से उनका मन क्षुब्ध हो गया।

ऐसे अवसर पर मन के उस क्षोभ को दूर करने के लिए जो उपदेश होता है। वो गीता के समान हो जाता है। गीता में जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य अर्जुन को ज्ञान का उपदेश दिया। उस प्रकार का ज्ञान सर्वत्र गीता पद से ही वाच्य होता है। श्री राम चरित मानस में जहां भी शोक मोह की निवृत्ति के लिए उपदेश किया है उन प्रसंगों को गीता के नाम से ही जानते हैं। जैसे-जब निषाद राज को मोह हुआ और उनके मोह को दूर करने के लिए श्री लक्ष्मण जी ने उपदेश किया, उस प्रसंग को "लक्ष्मण गीता" कहते हैं। जब श्री लक्ष्मण कुमार को भगवान श्रीराम उपदेश करते हैं तो उस प्रसंग को "राम गीता" कहते हैं। यहां भी श्री विभीषण जी के शोक मोह को दूर करने के लिए भगवान श्रीराम ने जो "धर्म रथ" का उपदेश किया है, एक प्रकार से धर्म रथ के प्रसंग को भी गीता कहा जा सकता है।

विभीषण रावण को अजेय शत्रु मानकर राम जी से कहते हैं- केहिं विधि जितब कैसे विजय प्राप्त करेंगे? परन्तु राम जी रावण को अजेय मानते ही नहीं। भगवान श्रीराम ही श्रीकृष्ण के रूप में आए हैं। उन्होंने भगवद्गीता में कहा है कि युद्ध करने से तभी दोष नहीं लगता जबकि-

सिद्ध सिद्ध्यो समो भूत्वा, सुख दु:खे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ

सुख-दुःख,लाभ-अलाभ, जय-पराजय को समान मानकर के तुम युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, तुम्हें पाप नहीं लगेगा। तो भगवान श्रीराम रावण पर विजय प्राप्त करने नहीं चले हैं, वो तो अपने स्वधर्म का पालन करने के लिए युद्ध करने जा रहे हैं।

जब कोई आतताई क्षत्रिय के सम्मुख आता है। तब क्षत्रिय का ये कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उससे युद्ध करे।

अग्निदो गरदश्चैव, शस्त्रपाणिर्धनापह:।

क्षेत्र दाराSपहर्ता च, षडैते आततायिन:।।

जो नगर में और घर में आग लगाए, जो किसी को विष दे, हाथ में शस्त्र लेकर मारने आए, हमारे धन का अपहरण करे, क्षेत्र और दारा का अपहरण करे ये छः आतताई कहलाते हैं। इन आतताइयों के साथ युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म होता है। तो रावण आतताई है। राम जी की दारा (स्त्री) का अपहरण किया है इसलिए उसके साथ युद्ध करना राम जी का कर्त्तव्य है।

वस्तुत: हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि यदि मनुष्य अपने कर्त्तव्य का पालन करता है स्वधर्म का अनुसरण करता है तो वह उसके कल्याण का हेतु होता है। उसके मोक्ष का कारण बनता है और वही ईश्वर की आराधना बन जाता है। तो भगवान श्रीराम स्वधर्म पालन की दृष्टि से युद्ध करने जा रहे हैं।उ नका लक्ष्य रावण पर विजय प्राप्त करना नहीं है। इस प्रसंग से शिक्षा मिलती है कि यदि हम अपने धर्म का पालन करते रहें तो हमें विजय की लालसा नहीं करनी पड़ेगी विजय हमारे पीछे-पीछे घूमेगी।