ज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति 

जो जिज्ञासु है,वह परमात्मा के निर्गुण रूप को प्राप्त करना चाहता है और दूसरा जो भक्त है वह परमात्मा के सगुण रूप को चाहता है

Updated: Sep 02, 2020, 12:32 PM IST

जिव जब ते हरि ते बिलगान्यौ, जब ते देह गेह निज मान्यौ।

माया बस स्वरूप बिसरायो, तेहि भ्रम ते नाना दुःख पायो।।

समस्त दु:खों की आत्यंतिक-निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति,जीव का परम पुरुषार्थ है।ब्रह्म की प्राप्ति से ही परमानंद का अनुभव हो सकता है और दु:खों की निवृत्ति आनुषंगिक रूप से स्वाभाविक ही हो जाती है। जो जिज्ञासु है,वह परमात्मा के निर्गुण रूप को प्राप्त करना चाहता है और दूसरा जो भक्त है वह परमात्मा के सगुण रूप को चाहता है। दोनों ही जब अपने जिज्ञास्य और आराध्य को छोड़कर दूसरी ओर से अपना मुंह मोड़ लेते हैं तभी उनकी साधना सफल होती है।

इसमें एक दृष्टांत है-एक राजा अपनी राजधानी में परिवार को छोड़कर दिग्विजय के लिए निकला और सर्वत्र विजय प्राप्त करके लौटते समय अपने स्वजन और पत्नियों के पास संदेश भेंजा कि हम शीघ्र ही लौट रहे हैं,जिसको जो वस्तु अच्छी लगती हो,वह पत्र में लिखकर भेंज दे।सब रानियों ने अपनी- अपनी अभीष्ट चीजें लिखकर भेंज दीं।जो सबसे छोटी रानी थी उसने पत्र में "आप" लिखकर भेंज दिया। उसने संदेश दिया कि मैं तुम्हें चाहती हूं। जिसने जो वस्तु मांगी थी वह वस्तु उसके पास भेंजकर राजा स्वयं छोटी रानी के पास चला गया। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्त वैभव से युक्त राजा उसका हो गया।

हमारे उपनिषद् कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् है,वह सभी भोगों को एक साथ प्राप्त कर लेता है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति है, और वही परमात्मा का दर्शन है। 

जब भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतरित हुए, सबने उनको देखा लेकिन उनका स्वरूप बोध बहुत कम लोगों को हुआ।अपने इष्टदेव की सच्ची पहचान वह है जब हम उनकी प्रत्येक लीलाओं में उनकी ब्रह्म रूपता का दर्शन करें।