प्रेम का मूल है आत्मा

हमारा स्वयं से सर्वाधिक प्रेम होता है, आत्मा प्रेमास्पद है, इसलिए वह परमानंद स्वरुप है, दूसरी वस्तुओं में जो प्रियता है वह आत्मा के सम्बंध से है, स्वत: नहीं

Updated: Aug 29, 2020, 08:06 PM IST

परम प्रेमास्पद होने के कारण प्रत्येक प्राणी का सहज प्रेम अपनी आत्मा से ही होता है। हमारे भारतीय दर्शनों में चार्वाक को छोड़कर वैदिक दर्शन जिनमें सांख्य-योग,न्याय-वैशेषिक, पूर्व मीमांसा-उत्तर मीमांसा (वेदांत) है। जैन दर्शन भी जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति के लिए तपस्या का संदेश देता है। यदि यह संसार सुख रुप ही होता तो फिर मोक्ष की इच्छा कौन करता? और जो बौद्ध हैं, उनका तो यह कथन ही है चाहे जो सौत्रान्तिक हो, वैभाषिक हो, योगाचार हो या माध्यामिक हो, सभी बौद्ध यही कहते हैं- 

सर्वं दु:खं, सर्वं क्षणिकं, सर्वं स्वलक्षणं,सर्वं शून्यं।

ऐसी स्थिति में अध्यात्म चिंतन की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन भारत में भी भौतिक समृद्धि कम नहीं थी। उस समय भी विमान थे,उस समय भी अट्टालिकाएं थीं,कृषि कार्य होता था, वाणिज्य भी होता था, नदियों में नहर भी होती थी,संहारक अस्त्र शस्त्र भी होते थे। इन सबको विनाश का कारण समझते हुए ऋषियों ने अध्यात्म चिंतन किया था, उसमें सच्चे सुख का साधन बताया गया है। यह सिद्धांत है कि जिस वस्तु में हमारा प्रेम होता है, उसके मिलने पर ही सुख का अनुभव होता है। और सुख व प्रियता एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अन्वेषण करने पर यह पाया गया कि यह आत्मा ही हमारा परम प्रेमास्पद है। उपनिषद् कहते हैं-

 न वा अरे पत्यु: कामाय पति: प्रियो भवति, न वा अरे 

जायाया:कामाय जाया प्रिया भवति, न वा 

अरे पुत्रस्य कामाय पुत्रं प्रियं भवति,

न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवति, न वा अरे सर्वस्य 

कामाय सर्वं प्रियं भवति, आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।

अर्थात्- पति,पत्नी,पुत्र,धन आदि सब कुछ उन-उन के लिए प्रिय नहीं होते किन्तु आत्मा के लिए ही प्रिय होते हैं।  इसका अर्थ ये हुआ कि हमारा स्वयं से सर्वाधिक प्रेम होता है। आत्मा प्रेमास्पद है, इसलिए वह परमानंद स्वरुप है। दूसरी वस्तुओं में जो प्रियता है वह आत्मा के सम्बंध से है,स्वत: नहीं है।

आपके पास जो नोट हैं, वे आपको अच्छे लगते हैं लेकिन नोट के नाते नहीं,वे आपके हैं इसलिए आपको अच्छे लगते हैं। शक्कर के सम्बंध से सूखे चणक चूर्ण में भी मधुरता की प्रतीति होती है। उसी प्रकार आत्मा के सम्बंध से ही आत्मीय वस्तुओं में सुख की प्रतीति होती है।  

संसार के वस्तुओं में कभी-कभी प्रेम देखा जाता है लेकिन वह प्रेम स्थायी नहीं होता, स्थायी प्रेम तो अपनी आत्मा से ही होता है इसलिए सच्चा सुख या तो भगवद्भक्ति में है या ब्रह्म साक्षात्कार में है। भगवद्भक्ति में भगवान के साथ दास्य, सख्य आदि सम्बंध को लेकर श्रवणादि साधन किए जाते हैं, इनकी परिणति आत्मसमर्पण में होती है। इसलिए यह कहना होगा कि आत्मा की प्रियता के कारण ही सभी प्रिय होते हैं।