विषयों के पार है विष्णु का परम पद

व्यावहारिक जीवन में वही सफल होता है जो विचार पूर्वक निर्णय करता है, विचार करके उचित समय पर उचित शब्दों में बोलता है

Publish: Jul 25, 2020, 12:08 PM IST

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- मनुष्य को चाहिए कि आत्मा का उद्धार करे, आत्मा का विनाश न होने दे, क्यूंकि आत्मा ही आत्मा का बन्धु और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। जिसने आत्मा के द्वारा आत्मा को जीत लिया,उसकी आत्मा उसका मित्र और इसके विपरीत आत्मजय के बिना आत्मा ही आत्मा का शत्रु बन जाता है। यहां आत्मा शब्द का अर्थ अन्त:करण है।

परम पूज्य गुरुदेव भगवान का कथन है कि- मन-बुद्धि चित्त और अहंकार अन्त: करण के ही चार भेद हैं। अपंचीकृत पंच महाभूतो के  समष्टि सात्त्विक अंश से निर्मित होने के कारण अन्त: करण साक्षी चैतन्य का आभास (प्रतिबंध) ग्रहण कर लेता है। यही चैतन्य का आभास जीव कहलाता है।जब किसी सरोवर में रात्रि के समय चन्द्रमा का प्रतिबिंब पड़ता है तब यदि सरोवर का जल निर्मल और निस्तरंग रहा तो चन्द्रमा का प्रतिबिंब निर्मल निश्चल तथा जल के मलिन और चंचल होने पर चन्द्रमा भी मलिन और चंचल प्रतीत होता है। चंद्रमा के प्रतिबंध के मलिन और चंचल प्रतीत होने पर आकाश में स्थित चन्द्रमा में भी मलिनता और चंचलता का आरोप होने लगता है। इसलिए अन्त: करण का शान्त और स्वच्छ होना अत्यंत आवश्यक माना जाता है।यह तभी संभव होता है जब अन्त: करण इन्द्रियों का अनुसरण न करके उनको अपने नियंत्रण में रखता है।

इस विषय को कठोपनिषद में रथ का रूपक देकर समझाया गया है। वहां कहा गया है कि आत्मा (जीव) ही रथी है,शरीर रथ है। शब्द स्पर्श रूप रस गंध ये पांच विषय ही गंतव्य हैं, इन्द्रियां घोड़े हैं, मन लगाम है, और बुद्धि ही सारथी है।यदि बुद्धि रूपी सारथी अप्रमत्त होकर सावधानी से मन की लगाम को थाम कर रखता है तब तो ठीक है अन्यथा थोड़ी सी असावधानी से इन्द्रिय रूपी घोड़े रथ-सारथी दोनों को पतन के गर्त में डाल देते हैं। विषयों के पार विष्णु का परम पद है। जो इनके प्रलोभन में नहीं पड़ता वह विष्णु पद को प्राप्त करके कृतकृत्य हो जाता है। आत्मनियंत्रण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य की उन्नति में सहायक है। व्यावहारिक जीवन में भी वही सफल होता है जो विचार पूर्वक निर्णय ग्रहण करता है। विचार करके उचित समय पर उचित शब्दों में बोलता है तथा विचार-पूर्वक कार्य करता है।

सहसा विदधीत न क्रियाम्

एकाएक कोई कार्य नहीं करें। मानस में भी आता है-

 सहसा करि पछिताहिं विमूढ़ा

पर जीवन में कभी कभी ऐसे अवसर आते हैं जब मनुष्य को तत्काल निर्णय लेना पड़ता है, विलम्ब से हानि होती है। ऐसे अवसरों पर भी धैर्य और सूझ-बूझ आवश्यक है जो असंतुलित मन में नहीं होते। धैर्य का ही सूक्ष्म रूप धृति है।जिस धृति से शान्त एकाग्र अन्त:करण के द्वारा मन,प्राण और इन्द्रियों की क्रियाएं धारित होती हैं।वह धृति सात्त्विक है और जिसके कारण स्वप्न,भय,शोक, विषाद और मद को बुद्धि नहीं छोड़ पाती,उस धृति को तामसी माना जाता है।

इस तरह रथी के संयम और संतुलन पर ही रथ की संपूर्ण व्यवस्थाएं आधारित होती हैं। हमारी बुद्धि रूपी सारथी के नियंत्रण में हमारा रथ चले तो ही जीवन सही दिशा में चल सकता है।