अपने सुख की परिभाषा बदलनी चाहिए

जब तक व्यक्ति की भौतिक सुखों की तृष्णा को नियंत्रित नहीं किया जायेगा तब तक न तो समाज में हिंसा दूर होगी और न ही घृणा,द्वेष तथा ईर्ष्या

Publish: Jul 16, 2020, 11:31 AM IST

आज हमारा देश स्वतंंत्र है। देश का निर्माण हम अपनी इच्छा के अनुसार कर सकते हैं, फिर भी देश में नैतिक मूल्यों का ह्रास बढ़ता जा रहा है। देश और समाज के घातकों की संख्या बढ़ रही है। यही कारण है कि हमारे सामने अनेकों समस्याएं खड़ी हो गई हैं, जिनका कोई समाधान नहीं सूझ रहा है।

वस्तुत: जब तक व्यक्ति की भौतिक सुखों की तृष्णा को नियंत्रित नहीं किया जायेगा तब तक न तो समाज में हिंसा दूर होगी और न घृणा,द्वेष तथा ईर्ष्या ही दूर होगी। और यह कार्य बिना अध्यात्म  और धर्म के नहीं हो सकता।

यह एक विचित्र बात है कि आज व्यक्ति या समाज अपने वैयक्तिक या राजनीतिक स्वार्थ के लिए धार्मिक भावनाओं का उपयोग तो करना चाहता है पर उसका आचरण या पालन नहीं करना चाहता। किन्तु जब-तक हम अपने जीवन में धर्म को स्थान नहीं देंगे, तब तक उससे लाभ मिलना सम्भव नहीं है। देश को ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जो देश के लिए सर्वस्व त्याग कर सकें पर क्या

जिनके जीवन में धर्म नहीं है, उनसे ऐसी आशा की जा सकती है?

अध्यात्म, भौतिक समृद्धि या उसके लिए किए जाने वाले पुरुषार्थ का विरोधी नहीं है। पर वह चाहता है कि समृद्धि धर्म के मार्ग से आए। मनुष्य उसका अभिमान न करे, उसका भोग धर्मानुसार बांटकर करे। आज के मानव को अपने सुख की परिभाषा बदलनी चाहिए।उसे यह जानना चाहिए कि जितना सुख सुस्वादु पदार्थों से अपना पेट भरने में मिलता है उससे कई गुना सुख भूख से पीड़ित किसी मानव की जठराग्नि को वैश्वानर भगवान समझकर उसको खिलाने से प्राप्त होता है। निर्मल अन्त:करण वाला पुरुष सुख के लिए बाह्य परिस्थितियों के परतंत्र नहीं रहता। उसका सुख ग्रहण में नहीं वरन् त्याग में निहित होता है। जबकि मलिन हृदय सदा सुविधाएं ढूढ़ता रहता है और सदा अपेक्षित सुविधाएं मिलती नही, इस कारण से और अशांत, दुखित ही बना रहता है। वर्तमान परिस्थितियों में भटकती मानवता को अपने अध्यात्म, संस्कृति और धर्म का पुनः मूल्यांकन करके उसकी ओर अभिमुख होना चाहिए।