आधुनिक युग में माला जपने की क्यों है आवश्यकता
साधन सम्पन्नों को भी श्री भगवान का आश्रयण आवश्यक है, फिर तो जो साधन विहीन हैं, उनके लिए तो सिवा भगवान के और सहारा ही क्या है

किसी ने जिज्ञासा प्रकट की है कि वर्तमान युग में माला जपने की क्या आवश्यकता है? अगर घर में आग लगी हो तो आग बुझाने का प्रयास करना चाहिए या माला जपना चाहिए? माला जपने से क्या घर में लगी आग बुझ जाएगी?
वस्तुत: ऐसी शंकाओं का मूल कारण है कि अपने धर्म, कर्म, सभ्यता और संस्कृति से सम्बंध रखने वाले शास्त्रों का अध्ययन न करना, उसके विपरीत इतिहासों, साहित्यों का अभ्यास और विपरीत वातावरण में पलना।
जब धर्म के स्वरूप पर हम विचार करते हैं तो पता चलता है कि धर्म केवल हमें माला जपना ही नहीं सिखाता बल्कि वह तो अधिकार के अनुसार सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सब प्रकार के कर्त्तव्यों को सोच समझकर यथायोग्य कार्य करने को कहता है। यहां पर एक ध्यान देने योग्य बात है कि घर में आग लगने पर "राम-राम" कहते हुए बैठे रहना सबसे हो भी नहीं सकता।
श्री कबीर दास जी महाराज काशी में निवास करते थे। कहते हैं कि जहां पर बाबा की कुटिया थी, उसके निकट ही कुछ अराजक तत्व भी रहते थे। तो उन्हें कबीर दास जी के भजन सत्संग से बड़ी असुविधा होती थी। तो एक दिन उन लोगों ने बाबा की कुटिया में आग लगा दिया। लेकिन भगवत्कृपा से ऐसी हवा चली कि वह आग लगाने वालों के घर में लग गई और उन्हीं का घर धू-धू करके जलने लगा सब दौड़कर कबीरदास जी पास आए और निवेदन किया कि बाबा! आग बुझाओ। हंसते हुए कबीरदास जी ने कहा कि चिंता न करो यह तो यारों का झगड़ा है। तुम्हारे यार ने हमारी कुटिया और हमारे यार ने तुम्हारी कुटिया में आग लगाई है। अब उसी से प्रार्थना करो।
जिन लोगों को राम-राम जपते हुए भी भूख लगती है,प्यास लगती है, संतानोत्पत्ति की इच्छा होती है उनके घर की आग बिना बुझाए नहीं बुझ सकती। और दूसरी ओर श्री राम जी का नाम जपते हुए जिनकी भूख प्यास बंद हो गई है, समस्त इच्छाओं का उन्मूलन हो गया है उनकी आग बिना बुझाए ही बुझ जाएगी।
जो लोग संसार के, समस्त कार्यों को करते हुए नाम जपते हैं तो वो लोग घर की आग बुझाने के लिए और-और उपायों को करते हुए श्री राम नाम जपते रहेंगे तो ईश्वर कृपा से शीघ्र ही आग बुझ सकती है। अन्यथा विपरीत भावना से प्रचंड वायु से और अधिक उत्तेजित भी हो सकती है। प्रत्येक कार्य को उचित अनुचित अवसर देखकर ही करना चाहिए।
वैराग्य के स्थान पर राग, राग के स्थान पर वैराग्य, प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति और निवृत्ति के स्थान पर प्रवृत्ति अनुचित है हानिकारक है।
नीकीहूं फीकी लगै, बिनु अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में, रस सिंगार न सुहात।।
गीता में भगवान ने चार प्रकार के भक्त बताए हैं।
आर्तो जिज्ञासु अर्थार्थी, ज्ञानी च भरतर्षभ।।
यहां पर तत्व निष्ठ कृतकृत्य ज्ञानी भक्त स्वभाव से ही भगवान को भजते हैं। जिज्ञासु ज्ञान- प्राप्त्यर्थ भगवान को भजते हैं और आर्त-अर्थार्थी अपनी अर्थ प्राप्ति और आर्त निवृत्ति के लिए परमेश्वर को भजते हैं। किसी भी कामना वाला व्यक्ति अपनी अभीष्ट पूर्ति के लिए तत्तत् उपायों का अनुष्ठान करता हुआ भी उनकी सफलता के लिए परमेश्वर की आराधना करता है। क्योंकि ईश्वर अनुकूल होने पर ही सम्पूर्ण लौकिक उपायों की सफलता होती है।भगदुपेक्षित प्राणी के लिए सम्पूर्ण उपाय व्यर्थ हो जाते हैं। इसीलिए माता पिता के द्वारा अनेक उपचारों से लालन-पालन करने पर भी बालकों की मृत्यु देखी जाती है। चिकित्सकों के अनेक उपचार करने पर भी रोगी मरते हुए देखे जाते हैं।
बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह, नार्तस्य चागद मुदन्वति मज्जतो नौ:
अतः साधन सम्पन्नों को भी श्री भगवान का आश्रयण आवश्यक है। फिर तो जो साधन विहीन हैं, उनके लिए तो सिवा भगवान के और सहारा ही क्या है? जैसे एक परम वीतराग तत्वनिष्ठ कृतकृत्य केवल भगवान के ही सहारे रहता है, उसके सम्पूर्ण योगक्षेम का भगवान ही निर्वाह करते हैं।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां, ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां, योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
अनन्य भावना से भगवान की आराधना में तत्पर प्राणियों को अभीष्ट प्राप्ति रूप योग और प्राप्तरक्षण रूप क्षेम श्री भगवान ही पूरा करते हैं। वैसे ही साधन-विहीन विश्वासी आर्त-अर्थार्थी को भी एकमात्र भगवान ही सहारा हैं। अतः उसके योगक्षेम को भी भगवान ही वहन करते हैं। परन्तु भारत की स्थिति तो आज उससे भी अधिक चिंतनीय है।वह आज आत्माराम कृतकृत्य नहीं, निष्काम मुमुक्षु नहीं, साधन सम्पन्न आर्त और अर्थार्थी नहीं, इतने पर भी भगवद्विश्वासी नहीं, अर्थात् आर्त-अर्थार्थी होने पर भी आर्त निवृत्ति और अर्थ प्राप्ति के लिए अपेक्षित साधनों से भी रहित है। ऐसी स्थिति में निराश्रय निष्कपट भाव से भगवान को पुकारना चाहिए। क्योंकि भगवन्नाम की बहुत महिमा है।