रफ्ता रफ्ता फासीवाद ! इन्सानियत हां, मोदी ना ना !!

–सुभाष गाताड़े- आखिर 2014 के आसन्न चुनावों की आजाद भारत के इतिहास में आज इतनी अहमियत क्यों बनी हुई है? क्यों उसकी तुलना जर्मनी के 1933 के चुनावों से की जा रही है, जिसने हिटलर के आगमन का रास्ता सुगम किया था, यह विचारणीय प्रश्न है। वजह साफ है कि आज़ादी के बाद पहली बार […]

Publish: Jan 08, 2019, 03:43 AM IST

रफ्ता रफ्ता फासीवाद !   इन्सानियत हां, मोदी ना ना !!
रफ्ता रफ्ता फासीवाद ! इन्सानियत हां, मोदी ना ना !!
- span style= color: #ff0000 font-size: large सुभाष गाताड़े- /span p style= text-align: justify strong आ /strong खिर 2014 के आसन्न चुनावों की आजाद भारत के इतिहास में आज इतनी अहमियत क्यों बनी हुई है? क्यों उसकी तुलना जर्मनी के 1933 के चुनावों से की जा रही है जिसने हिटलर के आगमन का रास्ता सुगम किया था यह विचारणीय प्रश्न है। /p p style= text-align: justify वजह साफ है कि आज़ादी के बाद पहली बार ऐसी घड़ी आयी है जब तमाम अनुदारवादी संकीर्णमना असमावेशी ताकतें - जिन्होंने हमेशा ही संविधान के बुनियादी मूल्यों की मुखालिफत की है- आज नयी वैधता हासिल कर जनता के एक हिस्से को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब होती दिख रही हैं। और इस मुहिम की अगुआई वही शख्स कर रहा है जो खुद एक अकार्यक्षम मुख्यमंत्री है जिसकी अकर्मण्यता या संलिप्तता के चलते उसका सूबा साम्प्रदायिक दावानल में झुलस गया था और यह इल्जाम महज विपक्षी पार्टियों ने ही उसकी पार्टी के वरिष्ठतम नेता ने ही लगाया है कि वह कठिन समय में राजधर्म निभाने में असफल रहा था। /p p style= text-align: justify पिछले दिनों अग्रणी राजनीति विज्ञानी कान्ति वाजपेयी ने अपने एक आलेख जर्नी टूवर्डस साट फैसिजम में मुल्क में जो हवाएं चल रही हैं उसे देखते हुए नरम फासीवाद के आगमन के खतरे को रेखांकित किया है। आखिर इसकी क्या विशिष्टताएं हैं ? उनके मुताबिक फासीवाद राज्य अधिनायकवाद कानून के बाहर खड़े समूहों द्वारा दमन अंधराष्ट्रवाद एक महान नेता के समक्ष व्यक्तियों एवं संगठनों का समर्पण और सामाजिक जीवन के प्रति डार्विनवादी नज़रिया अर्थात ताकतवर की ही जीत होती है आदि से चिन्हित किया जा सकता है। उनके मुताबिक भारत जैसे विशाल मुल्क में जो तमाम प्रांतों एवं शहरों में बंटा हुआ है वहां उसकी विविधता विशालता और बहस मुबाहिसे की लम्बे समय से चली आ रही परम्परा के मद्देनज़र फिलवक्त उसके लिए नरम फासीवाद अधिक आकर्षक लग सकता है मगर बाद में यह सख्त फासीवाद के लिए भी रास्ता सुगम करेगा। /p p style= text-align: justify विदित है कि भारतीय समाज के प्रबुध्द तबके के एक छोटे हिस्से में लोकतंत्र की कथित अराजकता को समाप्त करने के नाम पर किसी तानाशाह के प्रति जबरदस्त सम्मोहन हमेशा रहा है हिटलर की आत्मकथा माइन काम्फ अर्थात मेरा संघर्ष की बिक्री में कभी कोई कमी नहीं आयी है। हाल के समयों में हम नोट कर सकते हैं कि संसदीय लोकतंत्र का परित्याग कर निर्णय प्रक्रिया को विशेषज्ञों के हवाले करने राजनेताओं के बजाय विशेषज्ञों को जिम्मा सौंपने को लेकर यह रूझान बढ़ा है। /p p style= text-align: justify अपने एक आलेख में क्रिस्टोफ जाफरलो सीएसडीएस (सेन्टर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसायटीज) के सर्वेक्षण का हवाला देते हुए इसकी ताईद करते हैं। उनके मुताबिक दक्षिण एशिया में जनतंत्र की स्थिति पर केन्द्रित सीएसडीएस के सर्वेक्षण में 2008 में जहां अभिजात तबके के 51 फीसदी बेहद मजबूती के साथ सहमत जबकि 29 फीसदी इस प्रस्ताव पर सहमत दिखे कि मुल्क के बारे में सभी प्रमुख निर्णयों को विशेषज्ञों द्वारा न कि राजनेताओं द्वारा लिया जाए। इसके बरअक्स आम जनता के 29 फीसदी इस प्रस्ताव के प्रति मजबूती से सहमत दिखे। स्पष्ट था कि वे जनतंत्र में संख्या की अपनी ताकत को कम करके नहीं आंकते थे। पांच साल बाद हम देखते हैं कि मध्यम वर्ग में लोकतंत्र की लोकप्रियता और कम हुई है। उनके मुताबिक सीएसडीएस ने हाल में जो आंकड़े जारी किए हैं उनके मुताबिक जनतंत्र के कामकाज को लेकर पहले अगर 55 फीसदी लोग सन्तुष्ट थे तो आज यह आंकड़ा 46 फीसदी तक आया है। /p p style= text-align: justify ध्यान रहे कि इस चुनावी दंगल का वास्तविक नतीजा मई माह के मध्य में ही पता चल सकेगा यह भी मुमकिन है कि 2004 में जिस तरह इंडिया शाइनिंग का गुब्बारा पंक्चर होता दिखा था उसी तरह भारत का समझदार मतदाता कुछ ऐसे निर्णय सुना दें जिसका आकलन किसी मतदाता सर्वेक्षण में आया हो। मगर कोईभी इस बात से सहमत हो सकता है कि 80 के दशक के उत्तरार्ध्द में जिस दक्षिणपंथी राजनीतिक परियोजना का आगाज़ हुआ था जिसने भारत के जनतांत्रिक राजनीति की मध्यभूमि को जिस तरह पुनर्परिभाषित किया था या शिफ्ट किया था वह स्थिति अब स्थायी हो चली दिखती है। बकौल सुहास पलशीकर (इंडियन एक्स्प्रेस मूविंग द मिडल ग्राउण्ड 22 नवम्बर 2014) /p p style= text-align: justify रामजन्मभूमि आन्दोलन भले ही विलुप्त हो गया हो मगर उसने जिन राजनीतिक संवेदनाओं को जन्म दिया वह तत्कालीन मधयभूमि के लिए नयी थी। राष्ट्रीयता के विचार का नया तसव्वुर/कल्पना एक बहुसंख्यकवादी राजनीतिक समुदाय को जनतंत्र की बुनियाद के तौर पर पेश करना धार्मिक-सांस्कृतिक दावेदारी को जनतांत्रिक अभिव्यक्ति का दर्जा देना इस नयी मध्यभूमि को चिन्हित कर रही थी। /p p style= text-align: justify वह आगे बताते हैं कि किस तरह आज बाकी पार्टियां भी किस तरह भाजपा के हिन्दुत्व की आलोचना करते हुए एक तरह से प्रतिध्दंध्दात्मक बहुसंख्यकवादी तुष्टिकरण करती दिखती हैं और किस तरह राष्ट्रीय राजनीतिक भावविश्व अधिक हिन्दू (धार्मिक सन्दर्भों) में हो चला है और आज बहस इस बात पर है कि अच्छा हिन्दू कौन है और कौन अच्छा हिन्दू होने के नाते गैरहिन्दुओं की हिमायत करता है। /p p style= text-align: justify निश्चित ही मधयभूमि में होने वाले ऐसे स्थित्यंतरों से वापसी बहुत मुश्किल होती है। अगर आपातकाल भारत में वह कालखण्ड दिखता है जहां आजादी के बाद कायम लिबरल जनतंत्र पर पहली चोट पड़ी थी बाबरी मस्जिद विधवंस के नाम पर चले व्यापक जनान्दोलन ने इसे और नुकसान पहुंचाया था तो मोदी ब्राण्ड हिन्दुत्व और हिन्दुत्व की सियासत इस पर तीसरी बड़ी चोट के तौर पर सामने आ रही है जहां जनतंत्रा को विविधता विरोधाी बहुसंख्यकवाद के घोल के साथ पेश किया जा रहा है। /p p style= text-align: justify इस नरम फासीवाद का रास्ता सुगम करने में कार्पोरेट सेक्टर भी एक मुहिम की तरह जुटा हुआ है। गुजरात में आयोजित सालाना वायब्रेंट समिट में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से लेकर मोदी के मॉडल की खुल्लमखुल्ला तारीफ करने तक यहां तक कि उन्हें ही प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे सुयोग्य प्रत्याशी घोषित करने तक लेकर इसके कई रूप सामने आ रहे हैं। इतनाही नहीं मोदी के प्रति आलोचनात्मक रूख रखनेवाले सम्पादकों या अग्रणी पत्रकारों की जिस तरह हाल के दिनों में छुट्टी की गयी वह इसी बात का एक संकेत हैं। /p p style= text-align: justify दरअसल कार्पोरेट इंडिया के मोदी के प्रति सम्मोहन की जड़ें उनके मुताबिक चाइनीज मॉडल के प्रति मोदी के आकर्षण से उपजा है। आखिर इस चीनी मॉडल की क्या विशिष्टताएं देखी जा सकती हैं - यह ऐसा मॉडल है जो बकौल सिध्दार्थ वरदराजन (मोदी एण्ड द कल्ट आफ क्रोनिजम सेमिनार अप्रैल 2014) ऐसा प्रारूप है जहां जमीन खदानों और पर्यावरण के लिए क्लीअरेन्स कोई मायने नहीं रखते जहां गैस की कीमतों को लेकर असहज करनेवाले प्रश्न पूछे नहीं जाते । /p p style= text-align: justify स्पष्ट है कि जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिए इतनी बड़ी लोकप्रिय चुनौती इसके पहले कभी उपस्थित नहीं थी। वे सभी जो संविधान के बुनियादी मूल्यों पर विश्वास करते हैं उन्हें पुरजोर कोशिश करनी चाहिए कि ऐसी असमावेशी ताकतें जो 2002 के जनसंहार में अपनी संलिप्तता के तमाम प्रमाणों के बावजूद उसके साफसुथराकरण में लगी हैं उन्हें कैसे शिकस्त मिले। /p p style= text-align: justify जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिए जनसमन्वय द्वारा चुनाव के मौके पर जारी अपील इस मायने में बहुत कुछ कहती है : हमें ऐसी राजनीतिक ताकतों को चुनना चाहिए जो इन्सानियत समानता और इन्साफ की हिमायती हों। भारत के एक समावेशी न कि असमावेशी विचार का साथ दें। अपने वोट को सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के लिए इस्तेमाल करें। न्याय पाने के अपने अधिकार के लिए स्वतंत्र रूप से चिन्तन कर सकने के लिए और बेहतर जीवन के लिए संघर्ष जारी रखने के अपने अधिकार की हिफाजत करें। साम्प्रदायिक घृणा को खारिज करें और परस्पर सम्मान एवं सम्वाद का रास्ता चुनें। यह आप का वोट है। यह आप का मुल्क है। /p p style= text-align: justify /p