पीठ पर उद्योग, कदमों में मीडिया

– विवेकानंद – हाल ही में दो ऐसी घटनाएं हुईं जो यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा किसी और राजनीतिक दल के नेता के साथ घटतीं तो शायद मीडिया में बवाल मचा होता। इसलिए यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मोदी की चरण वंदना में जुटा हुआ है? लोकसभा चुनाव के […]

Publish: Jan 11, 2019, 12:17 AM IST

पीठ पर उद्योग, कदमों में मीडिया
पीठ पर उद्योग, कदमों में मीडिया
p style= text-align: justify strong - विवेकानंद - /strong /p p style= text-align: justify हाल ही में दो ऐसी घटनाएं हुईं जो यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा किसी और राजनीतिक दल के नेता के साथ घटतीं तो शायद मीडिया में बवाल मचा होता। इसलिए यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मोदी की चरण वंदना में जुटा हुआ है? लोकसभा चुनाव के पहले से सिलसिलेवार कडिय़ों को जोड़ें तो टीवी मीडिया का एक बड़ा धड़ा पत्रकारिता की बजाए सिर्फ मोदी के कार्यक्रमों की सूचना देने वाला दिखाई पड़ता है। याद कीजिए चुनाव से पहले मोदी ने उद्योग चैंबर-फिक्की के महिला संगठन (एफएलओ) को संबोधित किया था। इसमें गुजरात की तरक्की की तस्वीर दिखाने के लिए उन्होंने देश के अन्य क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाने वाली महिलाओं को भी गुजरात का बता दिया था। मोदी के इस झूठ पर मीडिया के एक बड़े समूह ने बड़ी चालाकी से पर्दा डाल दिया और यह दिखाया गया कि महिलाओं पर भी चला मोदी का जादू। इसके बाद बिहार में इतिहास की ऐसीतैसी कर दी इसे भी किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी। हालांकि इसे सोशल मीडिया पर इसे जरूर नोटिस किया गया कुछ विपक्षी दलों ने भी खासतौर से बिहार में नीतीश कुमार ने आड़े हाथों लिया लेकिन उन्हें तबज्जो नहीं मिली। ऐसे अनेकों झूठ और बेतुकी सलाहें हैं जो प्रधानमंत्री बनने से पहले और प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने दीं जिन्हें मीडिया पचा गया। और जब-जब किसी ने मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाया तो उसे इस तरह घसीटा गया कि बेचारा दोबारा बोलने की हिम्मत नहीं जुटा सका। हाल ही में प्रधानमंत्री ने फिर एक ऐसा भाषण दिया है जिसे पत्रकारिता जगत के ही कुछ लोग मानते हैं कि यदि यह भाषण राहुल गांधी या मुलायम सिंह की ओर से आया होता तो मीडिया चैनलों पर ऐसे बहस चल रही होती जैसे कोई राष्ट्रीय संकट खड़ा हो गया हो। लेकिन चूंकि यह बात मोदी ने कही है इसलिए मीडिया का मुंह सिला हुआ है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक निजी अस्पताल का उद्घाटन करते हुए कहा कि प्राचीन भारत में जेनेटिक साइंस यानि आनुवांशिक विज्ञान का इस्तेमाल किया जाता था। बात-बात के निहितार्थ निकालने वाले मीडिया चैनलों ने इस पर कोई सवाल नहीं उठाए। इस पर चर्चा तब शुरू हुई जब पत्रकार करण थापर ने द हिंदू अख़बार के एक लेख लिखा। लेकिन यह चर्चा भी नक्कारखाने की तूती साबित हुई। घंटों तक मोदी के इंतजार में अमेरिका में नाच गा रहे लोगों को दिखाने वाले मीडिया ने इन सवालों पर गौर नहीं किया। दरअसल मोदी ने कहा था महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था तभी तो मां की गोद के बिना उसका जन्म हुआ होगा। हम गणेश जी की पूजा करते हैं कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने में जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रख के प्लास्टिक सर्जरी का प्रारंभ किया हो। तकनीकी रूप से इस बयान में कोई खामी नहीं है लेकिन इस बात की पूरी गारंटी है कि यदि यही बात राहुल गांधी या मुलायम सिंह सरीखे किसी नेता ने की होती तो इसे ईश्वरीय महिमा का अपमान करार दिया जाता। लेकिन मोदी के खिलाफ लोग आवाज कोई आवाज नहीं उठी...क्यों? और यह अकेला मामला नही है ऐसे अनेकों मुद्दे हैं जो मीडिया की सुर्खियों में होने चाहिए थे लेकिन वे कहीं विलोपित कर दिए गए हैं। मसलन भ्रष्टाचार का मुद्दा अब गौण हो चुका है। लोकपाल पर भी अब कोई सवाल नहीं उठाए जा रहे। कोई नहीं पूछ रहा कि आखिर भ्रष्टाचार को किसी भी सूरत में वर्दास्त न करने की कसमें खाने वाले अब तक लोकपाल की नियुक्ति क्यों नहीं कर रहे हैं। जबकि इसी मुद्दे को लेकर यूपीए सरकार को इस कदर घेरा गया था मानो लोकपाल नहीं तो देश रसातल में चला जाएगा। अब कोई सवाल नहीं उठाता कि पिछले 40-50-60 साल में लोकपाल नहीं मिल सका तो अब जबकि कानून पास हो गया और कितना वक्त चाहिए और क्यों लोकपाल की नियुक्ति के लिए। लेकिन अब इसे लेकर कोई बयान भी नहीं है। राज्यों में भ्रष्टाचार के सवाल पर तो खामोशी छा गई है। मध्यप्रदेश में सबसे बड़ा शिक्षा घोटाला कमजोर विपक्ष के सबल सरकार ने दबा दिया। मीडिया को घोटाले से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कांग्रेस में कितने धड़े हैं। /p p style= text-align: justify वित्तमंत्री सीएजी को चेतावनी देते हैं कि नीतियों के कई पक्ष हो सकते हैं। जो फैसला है वह लिया जा चुका है वह सनसनी न करें हेडलाइन की भूख छोड़ दें। फिर वित्त मंत्री ही सफाई देते हैं कि उनकी बात को काटछांट कर पेश किया है। लेकिन यह किसी को पता नहीं कि वह कौन सी बात है जिसे कांछछांट दिया गया है। यदि यही बात राहुल गांधी या किसी और ने कही होती तो क्या मीडिया की यही प्रतिक्रिया होती। इसी तरह हर किसी के खाते में तीन लाख आएगा या नहीं इसका भी कोई जिक्र नहीं है। लेकिन यह सवाल तो उठाए जाने चाहिए कि जब पता नहीं था कि कितना काला धन विदेशों में है तो फिर यह दावे क्यों किए गए थे? संसद में बहस की मांग क्यों हुई स्थगन क्यों हुए यात्राएं क्यों निकाली गईं। वे कागजाद कहां से आए थे जिनके आधार पर कहा गया कि देश में लाखों करोड़ का कालाधन है। रेडियो पर प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसी को पता नहीं कि काला धन कितना है और मीडिया के मुंह से बोल नहीं फूटते। एक बार मनमोहन सिंह ने कहा था उनके पास जादू की छड़ी की नहीं थी। याद कीजिए सवालों के कैसे डंडे बरसाए गए थे। कालेधन पर यदि मोदी की तरह बोला होता तो क्या हुआ होता भगवान ही जाने? दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं उत्तरप्रदेश में उप चुनाव हो चुके हैं। दोनों स्थान पर एक ही जैसी घटनाओं पर गौर करें और फिर मीडिया के रुख पर। लव जेहाद यह नाम सिर्फ एक बार लिया गया था जिसे मीडिया ने एक धोखेबाजी के केस की आड़ में एक अभियान की तरह चलाया। यहां के दंगे और तनाव मिनटों में सुर्खियां बन जाते थे लेकिन यूपी चुनाव के परिणाम नकारात्मक निकले तो अब यहां के तनाव सुर्खियां नहीं बनते। दिल्ली में चुनाव है बवाना और त्रिलोकपुरी में गंभीर घटनाएं हुई हैं और मीडिया खामोश है। बवाना की पंचायत अगर उत्तरप्रदेश में होती तो कई सवाल अखिलेश सरकार पर दागे जा चुके होते लेकिन दिल्ली में किसकी जवाबदेही तय की जाए इस पर सवाल गायब है। क्यों किसी ने नहीं कहा कि जिस दिल्ली के लाल किले से 10 साल तक सांप्रदायिकता पर रोक लगाकर देशसेवा में जुटने का आह्वान किया गया उसी दिल्ली में किसकी इजाजत से महापंचायतें हो रही हैं। क्यों तनाव हो रहे हैं। क्यों नहीं प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से इन पंचायत कर्मियों को डांट लगाते हैं। /p p style= text-align: justify अब सवाल यह उठता है कि यह मौन क्यों? कोई भय है या फिर लालच। क्या मोदी नेगुजरात के मुख्यमंत्री रहते उनके खिलाफ लिखने वालों का जो हाल किया यह उसकी वजह है। शायद नहीं क्योंकि किसी एक या दो पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है उन्हें परेशान किया जा सकता है। मीडिया के पूरे एक बड़े धड़े पर इस तरह की कार्रवाहियां नहीं हो सकती। जाहिर है इस मौन और महिमामंडन के पीछे है व्यवसाय। अपने आप को निरपेक्ष बताने वाला मीडिया वास्तव में व्यावसायिक हितों के पोषण में जुटा हुआ है। पत्रकार मजबूरी में लिखते और बोलते हैं क्योंकि ऐसा उनका मालिक चाहता है। और मालिक इसलिए चाहता है क्योंकि मोदी ने मालिक को पीठ पर बैठा लिया है इसलिए पत्रकार कदमों में आ गिरे हैं। इसका उदाहरण भी हाल ही में देखने को मिला। /p p style= text-align: justify लेकिन देश के सबसे बड़े उद्योगपति ने सवा अरब आबादी के नुमाइंदे नरेंद्र मोदी की पीठ पर हाथ रखा। यह न सिर्फ व्यावहारिक बल्कि प्रोटोकॉल के लिहाज से भी मुकेश अंबानी द्वारा प्रधानमंत्री पद की गरिमा का अपमान था। यदि यही हाल मनमोहन सिंह के साथ हुआ होता तो क्या मीडिया इसे इसी तरह पचा गया होता? इसे क्यों पचाया गया इसका जवाब आम लोग शायद कम ही जानते होंगे। दरअसल मुकेश अंबानी का बड़े पैमाने पर मीडिया में पैसा लगा है। इसके आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। /p p style= text-align: justify अब जरूरत है उन आरोपों पर ध्यान देने की जो आम आदमी पार्टी चुनाव से पहले लगाती रही है। चुनाव के दौरान अरविंद केजरीवाल ने सीधे तौर पर नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगाया था कि मोदी को अंबानी और अदानी चुनाव में मदद कर रहे हैं। अंबानी के अस्पताल में मुकेश के व्यवहार से साबित हो गया कि आरोप महज आरोप भर नहीं है। मुकेश अंबानी के नरेन्द्र मोदी के निजी और प्रगाढ़ रिश्ते हैं शायद इसीलिए कुछ वक्त पहले मुकेश अंबानी की पत्नी और बेटा पीएम मोदी से मिलने प्रधानमंत्री आवास भी आकर जा चुके थे। बहरहाल दो परिवारों के रिश्ते पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन इस रिश्ते में जब व्यावसायिकता झलकने लगे तो आपत्ति लाजमी है। /p