RBI ने EMI में नहीं दी कोई राहत, ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं

RBI Monetary Policy: ब्याज दरों में नहीं हुआ बदलाव, रेपो रेट 4% पर बरकरार, GDP ग्रोथ रेट -7.5% रहने का अनुमान

Updated: Dec 04, 2020, 05:54 PM IST

Photo Courtesy: Moneycontrol.com
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नई दिल्ली। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) ने आम लोगों को EMI में कोई राहत नहीं दी है। दरअसल RBI ने ब्याज़ दरों में कोई बदलाव नहीं करने का फैसला देश में महंगाई की ऊंची दर को ध्यान में रखते हुए किया है। यह फैसला भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की दिसंबर की मौद्रिक समीक्षा बैठक में ब्किया गया। ऐसा लगातार तीसरी बार हुआ है, जब भारतीय रिजर्व बैंक की 6 सदस्यों की मौद्रिक नीति समिति (MPC) ने नीतिगत ब्याज़ दरों यानी रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में कोई बदलाव नहीं किया है। रेपो रेट 4%, रिवर्स रेपो रेट 3.35% और कैश रिजर्व रेशियो 3% के स्तर पर बरकरार हैं।

RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि ब्याज़ दरों में कोई बदलाव नहीं करने का फैसला MPC के सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से किया है। रेपो रेट का सीधा असर आपकी होम लोन, कार लोन, एजुकेशन लोन की EMI पर पड़ता है। रिज़र्व बैंक ने यह फ़ैसला भी किया है कि कॉमर्शियल बैंक पिछले वित्त वर्ष यानी 2019-20 के लिए डिविडेंड यानी लाभांश का भुगतान नहीं करेंगे। 

महंगाई दर और विकास दर के अनुमान

रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि खुदरा महंगाई के वित्त वर्ष 2020-21 की तीसरी तिमाही में 6.8 फीसदी और चौथी तिमाही में 5.8 फीसदी के ऊंचे स्तर पर बने रहने का अनुमान है। वित्त वर्ष 2021-22 की पहली छमाही में खुदरा महंगाई दर 5.2 से 4.6 फीसदी तक रह सकती है।

रिज़र्व बैंक का अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष यानी 2020-21 में देश की रियल जीडीपी -7.5 फीसदी की दर से घट जाएगी। चालू कारोबारी साल की तीसरी तिमाही में इसके +0.1 फीसदी और चौथी तिमाही में +0.7 फीसदी रहने का अनुमान है। मौजूदा वित्त वित्त वर्ष की पहली तिमाही में देश की जीडीपी में 23.9 फ़ीसदी की भयानक गिरावट देखने को मिली थी, जबकि दूसरी तिमाही में यह गिरावट 7.5 फ़ीसदी रही थी। लगातार दो तिमाही में निगेटिव ग्रोथ रेट का मतलब यह है कि हमारा देश औपचारिक रूप से भयानक मंदी का शिकार हो चुका है।

और आइए अब आपको बताते हैं कि रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट और CRR का क्या मतलब है और इनका आप पर क्या असर पड़ सकता है।

रेपो रेट (Repo Rate)

जिस तरह बैंकों से क़र्ज लेने पर हमें उस पर ब्याज़ देना पड़ता है, ठीक वैसे ही कॉमर्शियल बैंकों को भी कई बार भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) से कर्ज़ लेना पड़ता है। इस कर्ज़ पर उन्हें रिज़र्व बैंक को जिस रेट से ब्याज़ देना पड़ता है, उसे ही रेपो रेट कहते हैं। यानी ब्याज़ की वो दर जिस पर रिज़र्व बैंक दूसरे बैंकों को कर्ज़ मुहैया कराता है। अगर बैंकों को रिज़र्व बैंक से लिये गए कर्ज़ पर कम ब्याज़ देना पड़ता है यानी रेपो रेट कम होता है, तो वे हमारे-आपके जैसे ग्राहकों को भी कम ब्याज़ पर कर्ज़ दे पाते हैं। लेकिन अगर उन्हें ज़्यादा ब्याज़ देना पड़ता है यानी रेपो रेट ज़्यादा होता है, तो वे ग्राहकों से भी ज़्यादा ब्याज़ वसूल करते हैं।

रिवर्स रेपो रेट (Reverse Repo Rate)

यह रेपो रेट से उलट होता है। बैंकों के पास जब दिन-भर के कामकाज के बाद बड़ी रकम बची रह जाती है, तो उस रकम को वे रिजर्व बैंक में रख देते हैं। इस रकम पर RBI उन्हें ब्याज़ देता है। रिजर्व बैंक इस रकम पर जिस दर से ब्याज़ देता है, उसे रिवर्स रेपो रेट कहते हैं।

जब भी बाज़ारों में बहुत ज्यादा कैश यानी नकदी दिखाई देती है, रिज़र्व बैंक रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है, ताकि बैंक ज्यादा ब्याज कमाने के लिए अपनी रकम उसके पास जमा करा दें। इस तरह बैंकों के पास ग्राहकों को देने के लिए कम रक़म रह जाती है। रेपो रेट की तरह रिवर्स रेपो रेट का ग्राहकों से वसूली जाने वाली ब्याज़ दरों पर सीधा असर तो नहीं पड़ता, लेकिन इसका असर फंड की उपलब्धता पर ज़रूर पड़ता है। अप्रत्यक्ष रूप से ब्याज़ दरों पर भी इसका कुछ असर पड़ सकता है, क्योंकि बैंकों को रिज़र्व बैंक से जितना ब्याज़ मिलेगा, आमतौर पर वे दूसरों से उससे ज़्यादा ही ब्याज़ वसूलेंगे।

कैश रिज़र्व रेशियो (CRR)

बैंकिंग नियमों के तहत हर बैंक को अपने कुल कैश रिज़र्व का एक निश्चित हिस्सा रिज़र्व बैंक के पास रखना पड़ता है। इसे ही कैश रिजर्व रेशियो (CRR) या नकद आरक्षित अनुपात कहा जाता है। यह नियम इसलिए होता है ताकि बैंकों के रिज़र्व का एक हिस्सा हमेशा RBI के पास सुरक्षित रहे और अगर उन्हें जमाकर्ताओं को अचानक बड़ी रकम का भुगतान करना पड़े तो बैंक उसे चुकाने से इनकार न कर सकें। CRR बढ़ने पर बैंकों को अपने पास मौजूद फंड का ज़्यादा बड़ा हिस्सा RBI के पास रखना पड़ता है, जिससे उसके पास कर्ज़ देने के लिए कम रकम बच जाएगी। यानी बाज़ार में फंड का फ्लो कम हो जाएगा। CRR घटाने पर इसका ठीक उल्टा असर होगा, यानी बाज़ार में फंड की उपलब्धता बढ़ जाएगी। बैंकिंग सिस्टम की सुरक्षा भी CRR से जुड़ी हुई है। CRR जितना अधिक होगा, तुलनात्मक रूप से बैंकिंग सिस्टम कागज़ पर उतना ही मज़बूत कहा जा सकता है। हालांकि यह मज़बूती अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत, NPA और राजनीतिक-आर्थिक स्थिरता जैसी कई और बातों पर भी निर्भर होती है, जो CRR से बिलकुल अलग और उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण हो सकती हैं।