बापू का अंतिम उपवास यानी नए भारत के निर्माण के सात दिन
महात्मा गांधी ने अपने जीवन में कुल 15 बार अनशन किए, 13 जनवरी 1948 से अनिश्चितकालीन अनशन उनका अंतिम अनशन था, जिसकी वजह से भारत - भारत बन पाया
भारत आज जिस भयावह सांप्रदायिकता के दौर में पहुंच गया है कुछ वर्ष पूर्व तक वह सर्वथा अकल्पनीय लग रहा था। परंतु वर्तमान वास्तविकता तो यही है। आजादी के 75वें वर्ष में हम एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं, जिसमें लगने लगा है कि हमारा देश तमाम धार्मिक उपनिवेशों में बंटता जा रहा है। बहुसंख्यक भी अब स्वयं को एक विशिष्ट सोच का उपनिवेश बनाने की ओर अग्रसर हैं। अपवाद छोड़ दें तों समझ में आ रहा है कि विभिन्न धार्मिक समुदाय स्वयं को वैचारिक रूप से विस्तारित करने के बजाए अपनी हजारों-हजारों वर्षों की आध्यात्मिक उपलब्धियों को भस्मिभूत करने में लगे हैं। आज से ठीक 74 वर्ष पहले आजादी के तुरंत बाद देश की सांप्रदायिक स्थिति बेहद विस्फोटक हो गई थी। तब सबकी निगाह एक बार पुनः महात्मा गांधी पर अटक गई थी। सारा देश पुनः अपने बापू की शरण में ही समाधान खोज रहा था। बापू भी लगातार प्रयत्न कर रहे थे और आशा और निराशा के बीच स्वयं से प्रश्न कर रहे थे और अपने ईश्वर से उत्तर की अपेक्षा कर रहे थे।
अन्ततः उनका ईश्वर से वार्तालाप हुआ और उन्होंने 13 जनवरी 1948 से अनिश्चितकालीन अनशन पर जाने का ईश्वरीय आदेश पूरी दुनिया को संप्रेषित कर दिया। उपवास की पृष्ठभूमि व औचित्य पर चर्चा करते हुए उन्होंने 12 जनवरी 1948 को कहा था, ‘‘जो लोग दूसरे विचार रखते हैं, वे मेरा जितना भी विरोध करेंगे, उतनी ही मैं उनकी इज्जत करुंगा। मेरा उपवास लोगों की आत्मा को जाग्रत करने के लिए है, उन्हें मार डालने के लिए नहीं। जरा सोचिये तो सही, आज हमारे प्यारे हिन्दुस्तान में कितनी गंदगी पैदा हो गई है! तब आप खुश होंगे कि हिन्दुस्तान का एक नम्र यशकर्ता, जिसमें इतनी ताकत है और शायद इतनी पवित्रता भी है, इस गंदगी को मिटाने के लिए कदम उठा रहा है। अगर इसमें ताकत व पवित्रता नहीं, तब तो वह पृथ्वी पर बोझरूप है। जितनी जल्दी वह उठ जाए और हिन्दुस्तान को इस बोझ से मुक्त करे, उतना ही उसके लिए और सबके लिए अच्छा है।’’
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भारत उनके उस अनशन को जैसे भूल गया। उस अनशन के पीछे के उद्देश्यों को भी भूल गया। महात्मा गांधी ने अपने जीवन में कुल 15 बार अनशन किए। यह उनका अंतिम अनशन था और इसी अनशन की वजह से भारत - भारत बन पाया। वरना गृहयुद्ध में उलझा रहकर छिन्न भिन्न भी हो सकता था। 13 जनवरी की सुबह, जिस दिन गांधी जी ने अनशन शुरु किया था उसी दिन सुबह टहलने के वक्त किसी ने कहा, ‘‘अगर इस उपवास में मृत्यु हो जाएगी, तो यूनियन में एक भी मुसलमान जीता नहीं रह सकता।’’ इस पर बापू ने जवाब दिया था, ‘‘आपमें से किसी की सलाह या अक्ल काम नहीं आ सकती। क्यों ? इसका जवाब मैं नहीं दे सकता। जवाहरलाल पर तो मैं यकीन करता हूँ। उसने इस बारे में मुझसे जरा भी दलील नहीं की। लेकिन अब सरदार मान जाएं तो ठीक। जवाहर को न हर्ष है, और न ही शोक।’’ परंतु यहां इस तथ्य को ध्यान रखना जरुरी है कि बापू के अनशन शुरु करते ही पंडित नेहरु ने भी उपवास प्रारंभ कर दिया था, बिना इसकी सार्वजनिक घोषणा किए। और बापू के अनशन तोड़ने के बाद ही अपना अनशन तोड़ा था। वे अपने मन में निश्चय कर चुके थे कि यदि इस उपवास में बापू नहीं रहते हैं तो वे भी अपना उपवास नहीं खोलेगे। अपने नेता, अपने आदर्श पर इतना भरोसा और इतनी श्रद्धा शायद ही किसी और में देखने को मिले।
आज जिस तरह से सांप्रदायिकता का जहर फैलाया जा रहा है। जिसकी एक झलक हम हरिद्वार में दिसंबर में देख रहे हैं, वह हमें विभाजन के समय व्याप्त मानसिकता के दर्शन वर्तमान में करवा रहा है। पिछले 74 वर्ष हमने स्वयं को एक परिपक्व राष्ट्र बनाने में लगाए थे न कि कठमुल्लापन को बढ़ावा देने में। इसी दिन वे कहते हैं, ‘‘जब भारत का विभाजन नहीं हुआ था, उस समय मुसलिम लीग ने देश के टुकड़े कराने के सिवा दिल के टुकड़े करवाने में भी कम हिस्सा नहीं लिया। मुसलिम लीग जैसी संस्था इस अमानुषी कृत्य के लिए अत्यंत और गंभीर रूप से जिम्मेदार है। लेकिन अन्य मुसलमान, हिन्दू और सिखों ने भी भूलें तो की हैं। अब इन तीनों के दिलों में दिली-दोस्ती करनी हो, तो सबको अपने-अपने दिल साफ करने होंगे।’’ सात दशकों बाद जैसे हम पुनः जनवरी 1948 को दोहराने के दौड़ में लग गए हैं। प्रधानमंत्री की पंजाब यात्रा को लेकर उठे बवाल के बाद सिखों को जिस तरह से संबोधित किया गया | वह बेहद खतरनाक भविष्य का संकेत है। बहुसंख्य उपनिवेश वाद को यह समझना होगा कि अंततः एक सार्वयौम राष्ट्र ही सुखदायी हो सकता है।
14 जनवरी 1948 को बापू ने समस्त भारतीयों को समझाया था, ‘‘पत्नी के अतिरिक्त सभी स्त्रियों को अवस्था के अनुसार माता, बहन या लड़की मानेगा। किसी पर कुदृष्टि नहीं रखेगा और मन में भी बुरी भावना न रखेगा। वह अपने समान ही स्त्रियों का हक समझेगा। मौका आने पर स्वयं मरेगा पर दूसरों को कभी न मारेगा और वह सिखों के गुरु जैसा बहादुर होगा। अकेले सवा लाख के सामने खड़ा हो जाएगा और एक कदम भी पीछे नहीं होगा। ऐसा भारतीय पूछेगा ही नहीं कि क्या मुझे इस यज्ञ में भाग लेना चाहिए।’’ परंतु आज सांप्रदायिक विद्वेश व महिलाओं के खिलाफ घृणा का स्तर बढ़ता जा रहा है। मुस्लिम महिलाओं की नीलामी वाली पोस्ट हो या हिन्दू महिलाओं को वैश्या बताकर किराये पर देने वाली पोस्ट, दोनों में मूलतः कोई अंतर नहीं है। बढ़ती सांप्रदायिकता का शिकार भी सबसे ज्यादा महिलाए होंगी और गिरते नैतिक मूल्यों और बढ़ते उपभोक्तावाद की शिकार भी सबसे ज्यादा ही होंगी। इंटरनेट या सोशल मीडिया जिस तरह से हमारे सामाजिक ताने बाने को वे तोड़ रहा है, वह अतिरिक्त लंबी बहस की मांग करता है।
बहरहाल बापू का अनशन जारी है। उनकी सेहत बिगड़ती जा रही है। 14 जनवरी को वे पाकिस्तान को खरी-खरी सुनाते हैं और चेताते हैं कि यदि वहां अत्याचार बंद नहीं हुए तो, ‘‘भारत कब तक सहन करेगा ? और उसके बाद मेरे जैसा एक आदमी अनशन करे या 100 साधु भी अनशन करें, तो भी यह निश्चित है कि भारतीय जनता का रोष काबू में नहीं लाया जा सकता।’’ परंतु बापू का अनशन पाकिस्तान में भी असर कर रहा था। दो दिन में ही मारकाट रुकती नजर आ रही थी। सोचिये, तो क्या वर्तमान परिस्थितियां भारत को उस उच्च नैतिक पायदान पर बने रहने की अनुमति देती हैं ? बापू के अंतिम उपवास का प्रत्येक दिन का लेखा जोखा भविष्य के भारत के भाग्यविधाता जैसा रहा है।
16 जनवरी को भारत सरकार ने पाकिस्तान सरकार को बंटवारे के हिस्से के 55 करोड़ रु. देने का फैसला कर लिया। बापू बेहद खुश थे, वे बोले, ‘‘किसी जिम्मेदार हुकूमत के लिए सोच-समझकर किए हुए अपने किसी फैसले को बदलना आसान नहीं होता। फिर भी हमारी हुकूमत ने - जो हर मायने में जिम्मेदार हुकूमत है - सोच समझकर और तेजी से अपना तय किया हुआ फैसला बदल डाला है। उसे कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कराची से लेकर आसाम की हद तक सारे मुल्क को मुबारकबाद देना चाहिए।’’ गौर करिए बापू तब भी कराची को अपने से अलग नहीं मान रहे हैं। वे तो अगले ही महीने पाकिस्तान भी जाने वाले थे। इसी दिन वे कहते हैं, ‘‘अंग्रेजी में एक घरेलू कहावत है कि जहां मामूली कानून काम नहीं देता वहां न्याय हमारी मदद करता है। बहुत वक्त नहीं हुआ, जब कानून व न्याय के लिए वहां अलग-अलग कचहरियां हुआ करतीं थीं।’’ आज न्याय का स्थान कमोवेश कानून ने ले लिया है। भारत में दमनकारी कानूनों की लंबी फेहरिस्त है, जिसके चलते कैद में लोग मर रहे हैं। बीमारों को अस्पताल में भर्ती करने का विरोध किया जा रहा है| अब यहां कानून का राज्य है, जिसमें न्याय को एक अप्रांसांगिक हस्तक्षेप माना जा रहा है।
बापू के उपवास की अवधि बढ़ती जा रही थी। 17 जनवरी को काफी अशक्त हो गए थे। परंतु रोज की तरह सुबह 3 बजे उठे प्रार्थना की। उस समय भी उनकी विनोद वृत्ति में रत्ती भर की कमी नहीं आई। बोले, ‘‘आज मुझमें कल से अधिक शक्ति मालूम पड़ रही है। आप लोगों की अपेक्षा कितना अधिक खाता हूँ ? पानी में भी एक तरह की खुराक ही रहती है।’’ मनुबहन लिखती हैं, "इसी दिन सुबह पंडित नेहरु आए। बापू की (मन और शरीर की) बेचैनी देखकर आँखों से अश्रुओं की धारा बह पड़ीं। चुपके से दूसरी ओर मुँह करके उन्होंने उन्हें छुपा लिया - पोंछ लिया। जिनकी छत्रछाया में आजाद हिन्द में आजादी लाए, ऐसे बापू की यह दशा देखना उनके लिए असह्य ही हो उठा होगा। वातावरण इतना करुण था कि उसके लिखने के लिए शब्द ही नहीं है। ‘‘काँटो का ताज’’ कहा जाता है, वह सचमुच ठीक ही है।’’ भारत के शासकों की संवेदना ही तो देश को आपस में गूथ पाई थी। परंतु आज तो जैसे असंवेदनशीलता ही सभ्यता का पर्याय बनती जा रही है।
18 जनवरी को भी सुबह 3 बजे उठकर प्रार्थना के तुंरत बाद बापू ने एक लेख लिखवाया ‘‘क्रोध नहीं - मोह नहीं!’’ इस दिन वे हिन्दी की लिपियों पर गंभीरता से विवेचन करते रहे। उन्होंने अनशन छोड़ने के लिए अपनी 7 शर्तें लिखवाई। शर्तो को गौर से पढ़ने से पता चलता है कि भारत को बनाने में उनके अंतिम अनशन के 7 दिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्यों हैं | बापू आज अपना अनशन तोड़ रहे हैं। संयोग से उस दिन गुरु गोविंद सिंह की जयंती भी थी। वे कहते हैं, ‘‘यह कहना कि हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओ के लिए ही है और पाकिस्तान सिर्फ मुसलमानों के लिए ही - तो इससे बड़ी बेवकूफी और क्या हो सकती है ? शरणार्थी यह न समझें कि पाकिस्तान का उद्धार भी दिल्ली के ही माध्यम से होगा। मैं फाके से डरने वाला आदमी नहीं हूँ। मैंने बहुत बार फाके किये हैं और जरुरत हुई, तो फिर भी कर सकता हूँ इसलिए आप जो भी करें, बार-बार सोच समझ कर करें।’’ अगले ही क्षण वे कहते हैं कि दिल्ली का काम हो गया अब मैं पाकिस्तान जाऊंगा और वहां के मुसलमानों को समझाऊंगा। पाकिस्तान के हाई कमिश्नर जहीन हुसैन, बापू से कहते हैं, ‘‘मैं इसलिए हाजिर हूँ कि पाकिस्तान के लोग बेचैन हैं। सब पूछते हैं आपकी हालत कैसी है ? इस मामले में हम जो मदद कर सें, करने को तैयार हैं।’’
गौर करिए भारतीय उपमहाद्वीप का पूरा वातावरण उन पिछले 6-7 दिनों में पूरी तरह से बदल गया था। बापू पाकिस्तान तो नहीं जा पाये लेकिन वे भारत को एक ऐसी विरासत दे गए थे, जो उसे विश्व का अग्रणी राष्ट्र बनाने में लगातार मदद कर रही थी। मनु बहन लिखती हैं, इंदिरा बहन ने खबर दी कि, ‘‘पंडित जी भी अनशन कर रहे है। बापू अपने हाथ से पंडित जी को सुंदर सा पत्र लिखकर भेजते हैं
चि. जवाहरलाल,
अनशन छोड़ो। साथ में पा. पंजाब के स्पीकर के तार की नकल भेज रहा हूँ। जहीन हुसैन ने, मैंने तुमसे कहा, वही कहा था। बहुत वर्ष जियो और हिन्द के जवाहर बने रहो।
बापू के आशीर्वाद
बापू का आशीर्वाद हम सबको आज भी प्राप्त है। क्या हम सोचने-विचारने, मिलने-जुलने, सहमत-असहमत होने की अपनी मौलिक संस्कृति पर पुनः लौटेगे ? बापू के अंतिम अनशन के 7 दिनों का अध्ययन हमें भविष्य की राह सुझा सकता है। बापू ने 30 जनवरी 1948 को आखिरी भजन सुना था,
‘थाके न थाके छतांय हो,
मानवी न लेजे विसामो।’
बापू अभी भी विश्राम नहीं कर पा रहे हैं।
(गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्रा के यह स्वतंत्र विचार हैं)