Munshi Premchand: दरिद्र के पक्ष में ‘कलम के सिपाही’

आज के हिंदुस्तान में जिस इंडिया और भारत का फर्क साफ-साफ नजर आता है, उसकी पूरी पृष्ठभूमि प्रेमचंद की रचनाओं में दिख जाती है। कहा जा सकता है कि प्रेमचंद सिर्फ अपने समय को नहीं देख रहे थे, उनकी दृष्टि भविष्य के देश, समाज और व्यवस्था पर भी थी। तभी प्रेमचंद लिख पाए थे - सरकार यहां न्याय करने नहीं आई भाई, राज्य करने आई है, अब व्यापार का राज्य है और जो इस राज्य को स्वीकार ना करे तो उसके लिए तोपें हैं

Updated: Jul 31, 2020, 06:27 PM IST

प्रेमचंद ऐसे कथाकार हैं जिनकी व्यापक हिंदी पाठक वर्ग में सर्वाधिक पैठ है। उनमें सारा भारत एक साथ धड़कता है। वे जितनी सूक्ष्मता, प्रामाणिकता और घनिष्टता से ग्रामीण भारत के सामर्थ्य को सामने लाते हैं, उतनी ही उनकी विश्वसनीयता के साथ शहरी जीवन का चित्रण उसकी विसंगतियों और विशेषताओं के साथ करते हैं। जाहिर है कि आज के हिंदुस्तान में जिस इंडिया और भारत का फर्क साफ-साफ नजर आता है, उसकी पूरी पृष्ठभूमि प्रेमचंद की रचनाओं में दिख जाती है। कहा जा सकता है कि प्रेमचंद सिर्फ अपने समय को नहीं देख रहे थे, उनकी दृष्टि भविष्य के देश, समाज और व्यवस्था पर भी थी।

प्रेमचंद की जयंती पर सबसे ज्यादा संगोष्ठियां प्रेमचंद की प्रासंगिकता के विषय पर केंद्रित होती हैं। और प्रायः इसके पक्ष-विपक्ष में गलत ढंग से सवाल उठाए जाते हैं। उनको अप्रासंगिक मानने वाले तर्क देते हैं कि हमारे दौर का जीवन यथार्थ और प्रेमचंद के जमाने की हकीकत में जमीन आसमान का फर्क है। जबकि उन्हें प्रासंगिक बताने वालों का जोर यह सिद्ध करने पर रहता है कि दोनों दौर की परिस्थितियों में आधारभूत अंतर नहीं है। दरअसल प्रेमचंद पर एकांगी दृष्टि से मनचाहे नतीजे नहीं निकाले जा सकते हैं। नासमझी, असत्य या अर्धसत्य के आधार पर उनका तथ्यपरक विश्लेषण संभव नहीं है। उनकी प्रासंगिकता को आंकने वाली दोनों दृष्टियां परंपरा, साहित्य और विकास में प्रेमचंद की भूमिका को नकारती हैं। प्रोफेसर चंद्रवली सिंह का मानना है कि परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया अबाध और अनंत है और उसके अगणित रूपों को एक में पिरोने वाला सूत्र ही परंपरा है। इसलिए प्रेमचंद की प्रासंगिकता का प्रश्न ऐतिहासिक द्वंदात्मकता का प्रश्न है, और उसी विचार पद्धति से उस पर विचार संभव है। 

हमारे समय और प्रेमचंद के समय में जीवन मूल्यों और साहित्यिक मूल्यों में बड़ा बदलाव आया है। उनकी यथार्थवादी दृष्टि के नजरिए से हम पाते हैं कि उनकी आशंकाएं उसी तरह सही साबित हो रही हैं, जैसी कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की। प्रेमचंद का आदर्शोन्मुखी आशावाद जरुर तिरोहित होता नजर आता है।

उनके समय में मार्क्सवाद ने दुनिया पर बड़ा प्रभाव डाला था। पूंजीवाद, सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध वैचारिक हथियार, सामाजार्थिक राजनीति पर प्रभाव डाल रहे थे। वह गांधी, लेनिन, हो ची मिन्ह के संघर्षों का काल भी है। वैचारिक रूप से चाहे कितनी ही भिन्न क्यों ना हो, भौगोलिक परिस्थिति में भले ही बड़ा अंतर था, लेकिन जो एक केंद्रित बात थी वह थी - जनोन्मुक्ता। सभी के लक्ष्य अंतिम व्यक्ति की पीड़ा के हरण और शोषण की समाप्ति थे। इसलिए प्रेमचंद में गांधीवाद और मार्क्सवादी मूल्यों का निरूपण नजर आता है। उनकी साहित्यिक भूमिका का विश्लेषण करते समय इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती। यहां प्रेमचंद के साहित्य के विषय विश्लेषण का ना तो अवकाश है और ना स्थान। लेकिन जो सर्वाधिक आश्चर्य की बात है वह यह कि प्रेमचंद की मृत्यु भारत की आजादी के एक दशक पूर्व हो चुकी थी और भारत का संविधान उसके भी बाद बना और लागू होता है। बावजूद इसके संविधान की मूल प्रतिज्ञाओं के प्रति प्रेमचंद का समूचा साहित्य शत-प्रतिशत खरा कैसे उतरता है? क्या यह स्वतंत्रता संग्राम के सभी मूल्यों को आत्मसात या हृदयमय किए बिना संभव था? 

‘हम भारत के लोग भारत को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उनके समस्त नागरिकों को सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली वंधुता बढ़ाने के के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ईस्वी (तिथि मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत 2006 विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।'  

संविधान की इस मूल प्रस्तावना में 42 वां संविधान संशोधन भी शामिल है इसे पढ़कर प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य (पत्रकारिता साहित्य) पर नजर डालें तो पाएंगे कि वहां ये सभी मूल्य ससम्मान स्थापित हैं। संविधान स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षों का आदर्श कोष है तो प्रेमचंद का साहित्य उसका अघोषित दस्तावेज। यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद के जीवन मूल्य और साहित्यिक मूल्यों में कोई द्वेध नहीं है। वे शत प्रतिशत सामाजिक जीव थे। उनके सामाजिक संघर्षों में नए समाज की रचना का स्वप्न समाहित है। पहले उपन्यास 'असरारे माआविद' (देवस्थान रहस्य) से लेकर अंतिम उपन्यास गोदान तक उनकी वैचारिक जूझ और सामाजिक सरोकारों के प्रमाण हैं। 'प्रेमचंद घर में' शिवरानी देवी उनका एक वाक्य में सीधा परिचय देती हैं -’वे सामान्य जीवन यापन के लिए जूझने वाले इंसान थे।“ उन्होंने ना अपने जीवन को, ना सम सामयिक ग्राम्य जीवन को कभी महिमा मंडित किया। उल्टे उनकी विषमताओं, हीनताओं, दु:खों, विभिन्नताओं, सामंती प्रताड़नाओं और उनसे उपजी मजबूरियों, समझौतों और पराजयबोध को भी वर्णित किया है। पूस की रात, सवा सेर गेहूं, दो बैलों की कथी, ठाकुर का कुआं और कफन आदि कहानियां इसके उदाहरण हैं। उनके यहां 'अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों ना इसे सबका मन चाहे’ ...जैसे भावोच्छवास नहीं मिलते।

दिल्चस्प  है कि एक ही क्षेत्र, एक ही शहर में, एक ही  समय में जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद कथा साहित्य के सृजन में व्यस्त थे, लेकिन दोनों की भाषा में कितना फर्क है? प्रेमचंद जन संबोधनी भाषा में लिख रहे थे। जो भाषा गांधी जी को भी अभिष्ठ थी। 

साहित्य में व्यक्त विचारों या धारणाओं को आलोचक पात्रों के हिस्से में डालकर उसे लेखक के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं मानने की हिमाकतअमली कर लेते हैं। लेकिन निबंधों, लेखों, संपादकीयों और पत्रों में तो लेखक परादर्शी ढंग से सामने आता है। आहुति कहानी में एक संवाद है ‘कम से कम मेरे लिए स्वराज्य का अर्थ यह नहीं है कि जॉन की जगह गोविंद बैठ जाए।' रंगभूमि उपन्यास में प्रेम सेवक कहता है -'सरकार यहां न्याय करने नहीं आई भाई, राज्य करने आई है। न्याय करने से कुछ मिलता है? अब व्यापार का राज्य है और जो इस राज्य को स्वीकार ना करे तो उसके लिए तारों का निशाना मारने वाली तोपें हैं।' 

ये कथन भले ही प्रेमचंद की विचार प्रणाली की ही उपज है, फिर भी इन पर कमल किशोर गोयनकाओं ने प्रश्न चिह्न लगाया है। ऐसे विचारों को पात्रों का विचार कहकर खारिज करने की कोशिशें की है। अगर उनकी दृढ़ वैचारिकी उनके कथेत्तर साहित्य में प्रकट है। 

  • हमारे जितने विद्यालय हैं, सब गुलामी के कारखाने हैं। शिक्षार्थी को स्वार्थ का, जरूरत का, नुमाइश का,अकर्मण्यता का गुलाम बनाकर छोड़ देते हैं। और लूत्फ यह है कि तालीमें भी मोतियों के मोल बिक रही हैं। (जीवन में साहित्य का स्थान) 
  • हिंदू जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जा जनक कलंक यही टके पंथी दल हैं, जो एक विशाल जौंक की भांति उसका खून चूस रहा है। और हमारी राष्ट्रीयता में यही सबसे बड़ी बाधा है। राष्ट्रीयता की सबसे पहली शर्त है, समाज में साम्यवाद का दृढ़ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। (विविध प्रसंग खंड 2 पृष्ठ 471)
  • अगर हिंदुस्तान को जिंदा रहना है तो वह राष्ट्र के रूप में ही जिंदा रह सकता है। एक राष्ट्र का बनकर ही वह संसार की संस्कृति में अपने स्थान की रक्षा कर सकता है।(प्रेमचंद रचनावली -9 पृष्ठ 241)
  • हमारा आदर्श सदैव रहा है कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखा उसको समाज के सामने रखा। चाहे हिन्दू हों, पंडित हों, जैन हों, मुसलमान, या कोई....हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे। गरीब किसान, मजदूर, अछूत औऱ दरिद्र उसके आघात को सह कर भी अपने धर्म और मान्यताओं को हाथ से ना जाने देंगे क्योंकि  हमने उनमें सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवाभाव पाया है। 

यहां स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने अपनी राजनीति को, आदर्श को यथार्थ से अर्जित किया, वरना गोदान के लिए एक छोटे से बिना रीढ़ के किसान को नायक क्यों चुना? क्यों कफन के नायक घीसू माधव हैं? यह तो नायक की शास्त्रीय परिकल्पना के धीरोदात्त नायक नहीं हैं। 

बेशक, गांधीजी को उन्होंने साम्राज्यवाद विरोध, जातिवाद विरोध, सांप्रदायिकता विरोध और कर्मकांड विरोध के चलते गुरु कहा। गांधीजी ने दरिद्र नारायण की पूजा की बात की, मगर प्रेमचंद दरिद्र के पक्ष में ‘कलम के सिपाही’ बने। उन्होंने उथल-पुथल के दौर से गुजरते हुए भारत की बदलती हुई सूरत का चित्रण किया। राजनीतिक मुद्दों पर कलम चलाते हुए किसान- मजदूरों का पक्ष लिया।

1922 में 'जमाना' में प्रेमचंद लिखते हैं कि ‘एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मजदूर, किसान एक होकर जो चाहे कर सकते हैं, उनकी शक्ति असीम है। वे जब तक बिखरे हुए हैं, घास के टुकड़े हैं। एक होकर जहाज खींचने वाले रास्ते हो जाएंगे।'  यूं तो उनकी समाज और समाजवाद से प्रतिबद्धता 1936 के उनके प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के अतिथेय व्याख्यान, महाजनी सभ्यता निबंध और नमक का दरोगा कहानी से स्पष्ट है लेकिन  साहित्यकारों के लिए भी उनका एक कठोर आप्त वाक्य है- ‘जिन्हें धन-वैभव प्यारा है, साहित्य के मंदिर में उनके लिए स्थान नहीं है।’ (साहित्य का उद्देश्य)