देश की एकमात्र अदालत जहां भगवान पर चलता है मुकदमा, मन्नत पूरी नहीं होने पर दी जाती है सजा
छत्तीसगढ़ के बस्तर में जुर्म करने पर इंसानों को तो छोड़िए देवताओं को भी सजा देने की परंपरा है। यहां आदिवासी समुदाय के लोग मन्नत पूरी नहीं होने पर भगवान को भी सजा देते हैं।
बस्तर। छत्तीसगढ़ का आदिवासी बहुल बस्तर का क्षेत्र देशभर में नक्सली घटनाओं और नक्सलियों की अदालतों के कारण सुर्खियों में रहता है। इन अदालतों में माओवादी पुलिस के गुप्तचरों को सजा देते हैं। हालांकि, बस्तर में एक और अदालत है, जिसकी बैठक साल में एक बार होती है। यह अदालत इसलिए अनोखा है क्योंकि यहां मुकदमा इंसान पर नहीं भगवान पर चलाया जाता है। इतना ही नहीं ईश्वर के लिए सजा भी मुकर्रर की जाती है।
बस्तर क्षेत्र में आदिवासियों की आबादी 70 प्रतिशत है। यहां गोंड, मारिया, भतरा, हल्बा और धुरवा जैसी जनजातियां रहती हैं। यह अनोखी अदालत बस्तर संभाग के कोंडागांव जिले के केशकाल में लगती है। यहां की जनजातियां अपने देवताओं पर असीम आस्था रखती हैं। सदियों से, किसी भी प्राकृतिक विपदा, बीमारी या फसल खराब होने पर लोग ग्राम देवताओं की शरण में जाते हैं।
हालांकि, बस्तर की इस परंपरा का एक और अनूठा पहलू है कि अगर उनके अनुसार देवी-देवता उनकी मदद नहीं करते, तो यहां की जन अदालत उन्हें भी दोषी ठहरा देती है। केशकाल में हर साल भादों महीने में जोरता उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यहां की प्रमुख देवी भंगाराम देवी हैं। वह नौ परगना के 55 गांवों के हजारों लोगों की प्रमुख आराध्य हैं। हर साल भादों के अंतिम सप्ताह में यहां अदालत लगाई जाती है।
इस तीन दिवसीय उत्सव के दौरान मंदिर की देवता भंगाराम देवी उन मुकदमों की अध्यक्षता करती हैं, जिनमें देवताओं पर आरोप लगाया जाता है और मुर्गियां इसमें गवाही देती हैं। शिकायतकर्ता ग्रामीण होते हैं और उनकी शिकायतें खराब फसल से लेकर लंबी बीमारी तक किसी भी काम में प्रार्थना करने के बाद भी भगवान की ओर से मदद नहीं करने की हो सकती है। इन शिकायतों की सजा कठोर हैं। दोषी पाए गए भगवान को निर्वासन की सजा दी जाती है।
निर्वासन की सजा पाने वाले भगवान की मूर्तियों को मंदिर के अंदर से निकालकर मंदिर के पिछवाड़े में रख दिए जाते हैं। कभी-कभी, यह सजा जीवन भर के लिए होती है या जब तक वे अपना रास्ता नहीं सुधार लेते और मंदिर में अपनी सीट वापस नहीं पा लेते। सुनवाई के दौरान देवताओं को देखने के लिए सैंकड़ों गांवों के हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं। यहां उनके लिए भोज का आयोजन भी किया जाता है।
गांव के प्रतिष्ठित लोग इस अनोखे अदालत में वकील के रूप में कार्य करते हैं और मुर्गियां गवाह होती हैं। एक मुर्गी को अदालत में लाया जाता है और मुकदमे के बाद उसे आजाद कर दिया जाता है, जो उसकी गवाही के अंत का प्रतीक है। सजा भी गांव का ही शख्स सुनाता है और मान्यता है कि वह भंगाराम देवी के निर्देशों को आवाज दे रहा है। आरोप सिद्ध होने पर दंडित देवताओं को मंदिर से हटा दिया जाता है और कभी-कभी पेड़ों के नीचे रख दिया जाता है। यहां एक बही-खाता भी रखा जाता है, जिसमें हर मामले का विवरण सूचीबद्ध होता है। आरोपी देवताओं की संख्या, उनके कथित अपराधों की प्रकृति, गवाह और अंतिम निर्णय सब कुछ इसमें दर्ज होता है।