महात्मा और सिद्ध पुरूष को कैसे पहचानें

हंस की विशेषता होती है कि वह क्षीर नीर विवेकी होता है। यदि दुग्ध को जल से मिश्रित करके हंस के समक्ष रखें तो वह जल का त्याग करके दूध को पी लेता है। इसी प्रकार जिसने प्रकृति-प्राकृत प्रपञ्च से पृथक, असंग अनन्त चेतन तत्व का विवेक कर लिया है, उस कोटि के महात्माओं को हंस कहते हैं।

Updated: Oct 15, 2020, 05:42 PM IST

हमारे शास्त्रों में महात्माओं की तीन श्रेणी बताई गई हैं। 
हंस, परमहंस और श्रीपरमहंस

हंस की विशेषता होती है कि वह क्षीर नीर विवेकी होता है। यदि दुग्ध को जल से मिश्रित करके हंस के समक्ष रखें तो वह जल का त्याग करके दूध को पी लेता है।इसी प्रकार जिसने प्रकृति-प्राकृत प्रपञ्च से पृथक, असंग अनन्त चेतन तत्व का विवेक कर लिया है, उस कोटि के महात्माओं को हंस कहते हैं। 

परमहंस - जिनकी दृष्टि में समस्त प्रकृति और प्राकृत प्रपंच बाधित हो चुके हैं, वे महापुरुष परमहंस कहलाते हैं।

श्रीपरमहंस- परन्तु जिन्होंने भगवान के मधुर मनोहर मंगल मय स्वरूप में पूर्ण अनुरक्त होकर अपने ज्ञान को सुशोभित कर लिया है वे महापुरुष श्रीपरमहंस कहलाते हैं।

*नैष्कर्म्य मप्यच्युत*
*भाव वर्जितं* ।
*न शोभते ज्ञानमलं*
 *निरंजनम्*।।

श्री परमहंस की श्रेणी में श्रीशुकदेवजी, श्री सनकादि कुमार और महाराज जनक आदि आते हैं। एक बार सनकादि कुमार ध्यानस्थ थे, उसी समय प्रभु के श्री चरणारविन्द की सुगन्धि उनके नासाविवर के माध्यम से हृदय तक पहुंची तो ध्यान भंग हो गया। फिर तो उन ब्रह्मनिष्ठ महामुनि भगवान के श्री चरणारविन्द-मकरंदमिश्रित तुलसी की सुगन्धि ने कुमारों के मन और शरीर को क्षुब्ध कर दिया। अर्थात् शरीर में पुलकावलि, नेत्रों में अश्रु और मन में द्रवता हो उठी।
*तस्यारविन्द नयनस्य पदारविन्द*,
*किंजल्क मिश्र तुलसी मकरंदरेणु*:।
*अन्तर्गत: स्वविवरेण* 
*चकार तेषां*, 
*संक्षोभमक्षरजुषामपि*
   *चित्ततन्वो*:।।

श्री शुकाचार्य,जिनका चित्त स्वरूपभूत परमानंद सुधा सिंधु से परिपूर्ण हो गया था। जो सर्वत्र केवल एक परमात्मतत्व का ही दर्शन करते थे, भगवान की लीला रुचिर से उनका भी धैर्य च्युत हो गया। उन्होंने स्वयं कहा कि मेरा मन निर्गुण ब्रह्म में परिनिष्ठित था। फिर भी उत्तम श्लोक भगवान की लीला ने मेरे चित्त को खींच लिया।श्री हरि के गुणों से आक्षिप्तमति होकर श्रीमद्भागवत रूप महाख्यान का मैंने अध्ययन किया।

*परिनिष्ठितोपि नैर्गुण्य*,
*उत्तमश्लोक लीलया*।
*गृहीतचेता राजर्षे*,
*अध्यगां संहितामिमाम्*।।

           और भी
*लखी जिन लाल की मुसकान*
*तिनहिं बिसरी वेदविधि*
*सबयोग संयम ज्ञान*

        एवं
*आत्मारामाश्च मुनयो*
*निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे*।
*कुर्वन्यहैतुकी भक्तिं*,
*इत्थं भूतगुणों हरि*:।।

और श्री जनक जी जैसे विदेह, ब्रह्मविद्वरिष्ठ, तत्वनिष्ठों की यह अनुभूतियां हैं कि भगवान की सौन्दर्य छटा, आकर्षक माधुरी, एवं रूपराशि को देखते ही उनका ज्ञान मानो मूर्छित हो गया। देह की सुधि जाती रही, रोमांच हो आया, वाणी गदगद हो गयी और आंखें भर आईं।
 

*इनहिं विलोकत अति अनुरागा*।
*बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा*।।
*सहज विराग रूप मन मोरा*।
*थकित होत जिमि चंद चकोरा*
।।

भक्ति की बहुत महिमा है। हमें भी भगवान के श्री चरणों में अनुरक्त होना चाहिए।