तराई के दलदल में भाजपा, विपक्ष को मिली उपजाऊ जमीन

पिछले एक सप्ताह से देश के राजनैतिक भूगोल में यूपी-उत्तराखंड का तराई इलाका महत्वपूर्ण हो गया है। तराई स्थित यूपी के सबसे बड़े लखीमपुर खीरी जिले में तीन अक्टूबर को दो घटनाएं हुईं। यूपी में भाजपा नेताओं का विरोध नहीं हो सकता है, इससे यह गलतफहमी दूर हो गई। 

Updated: Oct 10, 2021, 03:12 AM IST

दिल दहला देने वाला लखीमपुर खीरी कांड किसान आंदोलन और विपक्षी राजनीति के लिए वैसी ही उपजाऊ जमीन तैयार कर सकता है, जैसे हिमालय की तराई के सुदूर तक फैले उर्वर इलाके में फसलें लहलहाया करती हैं। समय-समय पर भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारें किसान आंदोलन से निबटने के अपने तौर-तरीकों से उसे और मजबूती देती रही हैं। चाहे हरियाणा में सरकारी कार्रवाइयां हों, पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा नेताओं की कोशिशें हों या अब लखीमपुर कांड, इन सबसे किसान आंदोलन का संदेश फैलता गया है।

पिछले साल जब तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान लामबंद हुए तो उसे हरियाणा-पंजाब का आंदोलन बताया गया था। उसके बाद जब भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेता राकेश टिकैत ने दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर मोर्चा संभाले रखा तो आंदोलन को पश्चिमी यूपी के कुछ जिलों तक सीमित माना गया। लेकिन पिछले एक सप्ताह से देश के राजनैतिक भूगोल में यूपी-उत्तराखंड का तराई इलाका महत्वपूर्ण हो गया है।

तराई स्थित यूपी के सबसे बड़े लखीमपुर खीरी जिले में तीन अक्टूबर को दो घटनाएं हुईं। पहले आंदोलनकारी किसानों ने यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य का हेलीकॉप्टर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के गढ़ में नहीं उतरने दिया। इससे पहले यूपी में भाजपा नेताओं का विरोध तो हुआ था, लेकिन सरकारी हेलीकॉप्टर न उतरने देने की यह पहली घटना थी। यूपी में भाजपा नेताओं का विरोध नहीं हो सकता है, इससे यह गलतफहमी दूर हो गई। लखीमपुर में विरोध-प्रदर्शन से लौट रहे किसानों को गाड़ियों से कुचलने की जो घटना हुई, उसने किसान आंदोलन में नया मोड़ ला दिया है। किसानों को कुचलने के आरोप जिस केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे अशीष मिश्रा पर हैं, उन्हें आज तक मंत्रिमंडल से बर्खास्त नहीं किया गया है। 

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लखमीपुर कांड में चार किसानों और एक पत्रकार समेत कुल 8 लोगों की मौत हुई। इस दौरान हुई हिंसा में मंत्री का ड्राइवर और दो भाजपा कार्यकर्ता भी मारे गये। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने इस घटना पर एक ट्वीट करना भी जरूरी नहीं समझा। दूसरी तरफ विपक्ष के नेताओं में मृतक किसानों के परिजनों से मिलने की होड़ मच गई।  

साल भर से कई तरह की बाधाएं और हमले झेल रहे किसान आंदोलन पर यह अब तक का सबसे बड़ा और हिंसक हमला है। घटना के छह दिन बाद विपक्ष के विरोध, किसानों की चेतावनी और सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद लखीमपुर कांड के मुख्य आरोपी आशीष मिश्रा उर्फ मोनू भैया की गिरफ्तारी हुई। इन छह दिनों में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने जिस मजबूती के साथ योगी सरकार पर हल्ला बोला, उससे पूरे विपक्ष में जान पड़ गई है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल तो निश्चित रूप से बढ़ा है।

प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ लखीमपुर कांड पर मौन रहे, उससे भाजपा के सत्ता के दंभ में होने का संदेश गया है। एक दागी अतीत वाले दबंग छवि के नेता को केंद्र में गृह राज्यमंत्री बनाना और फिर उसकी थार से किसानों को कुचला जाना मोदी सरकार पर सवाल खड़े करता है। अभी तक अजय मिश्रा से इस्तीफा न लेना भी मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष को मुद्दा दे रहा है। दूसरी तरफ योगी सरकार ने पूरी ताकत विपक्षी दलों के नेताओं को लखीमपुर जाने से रोकने पर लगा दी थी, जबकि ‘मोनू भैया’ इंटरव्यू देते घूमते रहे थे। इससे पहले गोरखपुर में हुए मनीष गुप्ता हत्याकांड को लेकर भी यूपी में कानून-व्यवस्था सुधारने के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के दावों पर सवाल उठ रहे हैं।

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लखीमपुर कांड पर केंद्र और राज्य सरकार के रवैये ने किसान आंदोलन और विपक्ष की राजनीति को एक राह पर ला खड़ा कर दिया है, जो भाजपा की चुनावी शिकस्त की तरफ जाता है। गत 5 सितंबर को यूपी के मुजफ्फरनगर में हुई ऐतिहासिक किसान महापंचायत में किसान नेता राकेश टिकैत भाजपा पर ‘‘वोट की चोट’’ करने का आह्वान कर चुके हैं। भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों का साथ देने की किसान यूनियनों की रणनीति बंगाल में कामयाब रही है और अब इसे यूपी में दोहराया जाएगा।

लखीमपुर कांड से न सिर्फ यूपी बल्कि पंजाब और उत्तराखंड की राजनीति भी गरमा गई है। देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान और पश्चिमी पंजाब से आए किसानों को यूपी के तराई इलाके में बसाया गया था। अब यह इलाका यूपी और उत्तराखंड राज्यों में बंट चुका है लेकिन इसकी जड़ें पंजाब में हैं। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की कांग्रेस से बगावत के सहारे सियासी जमीन तलाश रही भाजपा को वहां भी लखीमपुर कांड का नुकसान उठाना पड़ेगा।

तराई के पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, बहराइच और गोंडा जिलों में सिख किसानों का असर है। लखीमपुर खीरी जिले में करीब 15-20 फीसदी आबादी के साथ सिख काफी प्रभावशाली हैं जबकि बाकी जिलों में भी सिखों का असर है। उत्तराखंड में देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर जिलों की कम से कम 10-12 विधानसभा सीटों पर सिखों का असर है।

तराई में जब पंजाब से आए किसानों ने खेती में कामयाबी के झंडे गाड़े तो पश्चिमी यूपी के बहुत से जाट किसान भी वहां सस्ती जमीनें खरीदकर बस गये थे। इस तरह न सिर्फ भौगोलिक रूप से बल्कि सामाजिक रूप से भी पश्चिमी यूपी और तराई के बीच जुड़ाव है, जिसे किसान आंदोलन ने मजबूत किया है।

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लखीमपुर में तीन अक्टूबर की घटना के बाद वहां सबसे पहले किसान नेता राकेश टिकैत पहुंचे। केंद्रीय मंत्री की बर्खास्तगी और बेटे की गिरफ्तारी के बिना प्रशासन से समझौते को लेकर टिकैत पर सवाल जरूर उठ रहे हैं, लेकिन तराई के किसानों में उनकी पैठ साबित हो चुकी है। जबकि पीलीभीत और लखीमपुर टिकैत के प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले किसान नेता वीएम सिंह का क्षेत्र है, जो 26 जनवरी की घटना के बाद खुद को संयुक्त किसान मोर्चा के आंदोलन से अलग हो चुके हैं। लखीमपुर हिंसा में घायल हुए किसान नेता तेजिंदर सिंह विर्क भी काफी सक्रिय हैं। तराई के किसान आंदोलन की शुरुआत से ही बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं और उन्होंने इसमें शहादतें दी हैं। इसलिए यह इलाका आज किसान आंदोलन का केंद्र बन गया है।

उत्तर प्रदेश में सिखों की आबादी एक फीसदी से भी कम है, लेकिन तराई की कम से कम 20 सीटों पर उनका प्रभाव है। वैसे आसार ऐसे हैं कि लखीमपुर कांड का असर सिख समुदाय और किसान आंदोलन तक सीमित रहने की बजाय समाज के बाकी हिस्सों तक भी पहुंच सकता है। जिस तरह किसानों को रौंदने के वीडियो सामने आए हैं और केंद्रीय मंत्री व उनके बेटे को बचाने की कोशिशें की जा रही हैं, उससे आम जनता में भाजपा के खिलाफ संदेश जा रहा है। इतने बड़े मामले में हत्या के आरोपी को पुलिस ने तुरंत गिरफ्तार करने की बजाय नोटिस भेजकर ससम्मान बुलाया, उस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी फटकार लगायी है।

लखीमपुर कांड किसान आंदोलन को पश्चिमी यूपी और तराई से लेकर पूर्वी यूपी तक पहुंचा सकता है। इसमें कांग्रेस की अहम भूमिका रहेगी। इसका आगाज प्रियंका गांधी ने पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में किसान न्याय रैली से कर दिया है। दूसरी तरफ पश्चिमी यूपी में राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी किसानों के मुद्दों पर खूब जन सभाएं कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी और आजाद समाज पार्टी समेत यूपी के छोटे-बड़े तमाम दल लखीमपुर कांड के जरिये भाजपा को घेरने में जुटे हैं। किसान विपक्ष की राजनीति का मुख्य मुद्दा बन चुका है।    

विपक्ष की कोशिश है कि जिस सांप्रदायिक कार्ड के बूते भाजपा यूपी में प्रचंड बहुमत पाने में कामयाब रही है, उसे कृषक जातियों की लामबंदी, कानून-व्यवस्था की बदहाली और बेरोजगारी के मुद्दे से चुनौती दी जाए। इस बीच जातिगत समीकरणों को साधने की भी भरपूर कोशिश की जा रही है। अखिलेश यादव की नजर तराई के कुर्मी वोटरों पर है तो राष्ट्रीय लोकदल जाटों को लामबंद करने में जुटी है। इसमें भाकियू और खाप पंचायतों से मदद मिल रही है। प्रियंका गांधी अपने साथ जाट सांसद दीपेंद्र हुड्डा को लेकर आधी रात को ही लखीमपुर खीरी के लिए रवाना हुईं। फिर राहुल गांधी अपने साथ पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को लेकर लखीमपुर पहुंचे। निश्चित रूप से यह जाट, सिख और कुर्मी समुदायों को साधने की कोशिश थी।

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2014 से पहले लखीमपुरी खीरी लोकसभा सीट सपा जीतती रही है। लेकिन 2014 की मोदी लहर में वहां से अजय मिश्रा सांसद बने थे। सपा नेताओं का मनना है कि प्रदेश में जैसे ही भाजपा विरोध लहर मजबूत होगी कुर्मी समुदाय उनकी तरफ लौट आएगा। कुर्मियों से सपा का जुड़ाव खत्म नहीं हुआ है और न ही कुर्मी भाजपा के परंपरागत वोटर हैं। इन्हीं संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए सपा प्रमुख अखिलेश यादव कई दिनों तक तराई क्षेत्र में घूमते रहे।

तराई बेल्ट में यूपी के पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोंडा और श्रावस्ती जिलों के अलावा इनसे लगते शाहजहांपुर, बरेली, सीतापुर, मुरादाबाद, बिजनौर, अमरोहा,  और रामपुर जिलों की राजनीति में जाट, मुस्लिम, कुर्मी, यादव और सिख समुदाय का असर है। जिस तरह किसान आंदोलन पश्चिमी यूपी के दो-तीन जिलों से तराई तक फैला, आगे यह अवध तक पहुंच सकता है जो आजादी से पहले किसान आंदोलनों का केंद्र रहा है।

तराई में सिखों का असर उनकी आबादी से ज्यादा है। इसलिए मेनका गांधी ने तराई के पीलीभीत से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की थी और वहां से लगातार जीतती रही हैं। अब उनके पुत्र वरुण गांधी पीलीभीत से भाजपा सांसद हैं जो किसानों के मुद्दों पर अपनी ही पार्टी को घेरने में जुटे हैं। भाजपा भी मेनका गांधी और वरुण गांधी को हाशिये पर धकेल चुकी है। वरुण गांधी का यूपी का मुख्यमंत्री बनने का सपना टूट चुका है और अब वे भाजपा में रहते हुए भी तराई में पार्टी को नुकसान पहुंचा सकते हैं।