प्रवाह में निष्क्रिय बहते रहना जीवन का लक्ष्य नहीं

आत्म नियंत्रण के अभाव में ही मनुष्य राग,द्वेष,मद और मोह के वश में होकर भटक जाता है

Updated: Jul 26, 2020, 12:24 PM IST

मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण जीवन के किसी एक घटना या कार्य से नहीं वरन् चिरकाल तक की जाने वाली साधना से होता है। जैसे किसी नदी या नहर की जलधारा को मोड़ने के लिए कुशल अभियंता बहुत पहले से ही धक्के बनाते हैं। गाड़ियों के सुव्यवस्थित संचार के लिए सड़कों में मोड़ दिए जाते हैं, उसी प्रकार अपने चरम लक्ष्य की ओर साधना पथ पर चलने वालों को पहले से स्वयं को तैयार करना पड़ता है। यदि कोई साधक ध्यान में अपने मन को समाहित पाता है तो यह नहीं समझना चाहिए कि यह स्थिति आकस्मिक है।वस्तुत: ऐसी स्थिति समग्र जीवन की साधना का परिणाम होती है।

सामूहिक सामाजिक जीवन में यदि कोई अच्छी स्थिति आती है तो वह उस देश और समाज की धार्मिकता,संस्कृति और सदाचार के पालन की लम्बी सतत साधना का ही फल है। किसी एक के प्रयास की आकस्मिक परिणति नहीं है। भगवान श्रीराम के राज्य की सुव्यवस्था जादू से नहीं, धर्म निष्ठा से निर्मित हुई थी।आत्म नियंत्रण के अभाव में ही मनुष्य राग,द्वेष,मद और मोह के वश में होकर भटक जाता है।

इन्द्रियों के भोगों से प्राणी को जो सुख मिलता है, उससे कई गुना उनके संयम से प्राप्त होता है।जिसको आध्यात्मिक सुख-स्वाद मिल जाता है वह विषय सुख की मृगतृष्णा में नहीं भटकता।

नहिं स्वात्मारामं विषय मृग तृष्णा भ्रमयति

आज का व्यक्ति और समाज की सभी समस्याओं का हल आध्यात्मिक साधना के द्वारा स्वयं को अन्तर्मुख बनाने में ही निहित है। हम प्रवाह में निष्क्रिय होकर बहते रहें यह जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन का लक्ष्य है, तैर कर प्रवाह को पार करना।

चौबीस घंटों में कुछ पलों के लिए ही सही मन को निर्विकार और शान्त बना दिया जाए। यह तभी संभव है जब हम नियमित रूप से भगवान का स्मरण चिंतन और ध्यान करें अथवा आत्म स्वरूप में मन को स्थिर करें। यही हमारी स्वस्थता और सफलता है। यही परमयोग है। दान, स्वधर्म पालन, नियम,दम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत इन सबका यही फल है कि मन एकाग्र होकर भगवान में लग जाए।

परो हि योगो मनस: समाधि:

हमारे गुरुदेव भगवान का यही उपदेश है कि मन का समाहित हो जाना ही परमयोग है।व्यक्ति और समाज का उत्थान इसी से सम्भव है, और यह उसे स्वयं ही करना है।