जीते जी मुक्त हो जाना ही पूर्ण स्वतंत्रता

जीवन का उद्देश्य तत्व- जिज्ञासा होना चाहिए, तत्त्व जिज्ञासा उसी को होती है, जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है, अन्त:करण की शुद्धि भी एक उपलब्धि

Updated: Aug 15, 2020, 01:27 PM IST

photo : loveleen
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आज स्वतंत्रता दिवस है। देश के स्वतंत्र होने पर भी हम परतंत्र ही हैं। जब-तक जन्म मरण का चक्र लगा रहेगा तब तक हम पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकते। इसलिए हमें पूर्ण स्वतंत्र होने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि-

धर्मस्य ह्यापवर्गस्य, नार्थोSर्थायोपकल्पते।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य, कामो लाभाय हि स्मृत:।।
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता, 
जीवस्य तत्व जिज्ञासा नार्थोयश्चेह कर्मभि:।।

धर्म का फल है मोक्ष, उसकी सार्थकता धनप्राप्ति के लिए नहीं। अर्थ केवल धर्म के लिए है,भोग विलास के लिए नहीं। भोग विलास भी इन्द्रिय तृप्ति के लिए नहीं अपितु जीवन निर्वाह के लिए है। जीवन का फल भी तत्व जिज्ञासा है, बहुत कर्म करके स्वर्ग जाना नहीं।

शास्त्रों में बताया गया है कि अपनी आय के पांच विभाग करना चाहिए।प्रथम भाग धर्म के लिए, द्वितीय भाग यश के लिए, तृतीय भाग मूल धन की रक्षा के लिए सुरक्षित, चतुर्थ भाग अपने लिए और पंचम भाग अपने आश्रितों और स्वजनों के लिए।इस प्रकार जो व्यक्ति अपनी आय का पांच कार्यो में विभाजन करता है,वह इस लोक और परलोक दोनों में आनंद करता है। काम्य विषय भोग से जो सुख मिलता है,वह काम कहलाता है। इसमें इन्द्रियोंं की तृप्ति कभी नहीं होती। जैसे अग्नि में घी डालने से अग्नि शांत न होकर और बढ़ती है, उसी प्रकार तृष्णा बढ़ती ही जाती है। 
जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई
वृद्धावस्था में जब इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं तब तृष्णा दुखद हो जाती है।

इसलिए काम का उपयोग इन्द्रिय तृप्ति न होकर जीवन धारण होना चाहिए।स्वस्थ जीवन के लिए पथ्य सेवन और आत्म संयम की उपयोगिता आजकल के डांक्टर भी बतलाते हैं, जो अध्यात्म परायण व्यक्ति ही कर सकता है।

जीवन का उद्देश्य तत्व- जिज्ञासा होना चाहिए। तत्त्व जिज्ञासा उसी को होती है, जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है, अन्त:करण की शुद्धि भी एक उपलब्धि है।शरीर का मैल स्नान से दूर होता है, कपड़ों का मैल साबुन से दूर होता है एवं मन का मैल निष्काम भाव से किए गए कर्म से दूर होता है।

मन की निर्मलता भी एक उपलब्धि है। निर्मल मन से सात्त्विक सुख की प्राप्ति होती है। जाड़े के दिनों में लोग बिस्तर में रजाई में लिपटे हुए रात्रि बीत जाने के बाद भी पड़े रहते हैं। और कुछ लोग शीत पड़ने पर कुंभ के मेले में कम्बल लेकर निकलते हैं, फुटपाथ पर रहने वालों को कंबल देकर चले जाते हैं, ऐसे व्यक्तियों को जो सुख मिलता है, वह सात्त्विक सुख है। इस सुख की तुलना रजाई से लिपटकर सूर्योदय के पश्चात् तक पड़े रहने वाले के सुख से करने पर समझ में आ जाता है कि सच्चा सुख वह नहीं है।प्रात:काल उठकर ठिठुरते हुए गंगा में गोता लगाने पर जो सुख मिलता है,वह एक विलक्षण ही सुख है। श्रीमद्भगवद्गीता में सुख के तीन भेद किए गए हैं। सात्त्विक,राजस और तामस। वहां बतलाया गया है कि जो पहले विष के समान व परिणाम में अमृत के समान है, जो अन्त: करण की अन्तर्मुखता एवं स्वच्छता से प्राप्त होता है,वह सात्त्विक सुख कहलाता है।विषय,इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होने वाला जो पहले अमृत के समान परिणाम में विष के समान है, वह राजस सुख है। एवं निद्रा और आलस्य-प्रमाद में जो सुख मिलता है वह तामसिक सुख कहलाता है।

सात्त्विक सुख आत्म ज्ञान से मिलने वाले अनंत सुख की एक झलक मात्र है। इसके अतिरिक्त एक सुख भक्ति का भी है, जो भगवान के प्रति परम प्रेम से प्राप्त होता है। इसके सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत में कहा गया है- जो आनंद आपके चरण कमलों के ध्यान तथा आपके भक्तों के मुख कमल से नि:सृत भागवत कथा के श्रवण से मिलता है,वह सुख मोक्ष में भी नहीं है। देवताओं को भी वह सुख प्राप्त नहीं है। 

परमेश्वर ने मानव शरीर का निर्माण करके जो क्षमताएं उसमें भरी हैं, उनमें परमात्मा को जानने में समर्थ बुद्धि है। उपनिषदों में बताया गया है कि ब्रह्मलोक में ब्रह्म,धूप व छाया के समान दिखलाई पड़ता है। उससे नीचे के लोकों में चंचल व मलिन सरोवर में चंद्रमा के प्रतिबंध के जैसा प्रतीत होता है। उससे नीचे के लोकों में स्वप्न के समान अस्थिर ब्रह्म का दर्शन होता है। किन्तु मानव शरीर में जैसे दर्पण में स्पष्ट रूप से मुख दिखाई देता है इस तरह ब्रह्म का दर्शन होता है। इसलिए इन क्षमताओं को देखते हुए इसका  उपयोग करना चाहिए। जीते जी मुक्त हो जाना ही पूर्ण रूप से स्वतंत्रता है। इसके साथ ही स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।