आत्मा की प्रियता में ही है सच्चा सुख

Sadupdesh: जहां सर्वाधिक प्रेम होता है वहीं अनुभव होता है आनंद, आत्मा समस्त प्राणियों का परम प्रेमास्पद है क्यूंकि सुख के लिए सब हैं पर सुख किसी और के लिए नहीं है

Publish: Aug 17, 2020, 11:59 AM IST

photo courtesy : think right
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वेदांत शास्त्र के अनुसार सुख अखण्ड है और वह आत्मा का स्वरूप है। यह देखा जाता है कि जिस पदार्थ और प्राणी में हमारा प्रेम होता है, उसके मिलने पर ही हमें सुख की अनुभूति होती है।अब हमारे सामने यह समस्या आती है कि प्रिय कौन है? किसी भी वस्तु में प्रियता आत्मा के सम्बंध से ही आती है। किसी माता के सामने किसी दूसरे के पुत्र की यदि कोई प्रशंसा करे तो वह पूछती है कि,क्या मेरे बेटे के समान सुन्दर है? इसका अर्थ है, बेटे की सुन्दरता अपने सम्बन्ध से है। धन में भी यदि किसी का प्रेम है तो अपने सम्बन्ध से ही है। श्रुति कहती हैं-

न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति।

आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।।

इसका अर्थ है- सबके लिए सब प्रिय न होकर अपने लिए सब प्रिय होते हैं। आत्मा के सम्बंध से ही सबमें प्रियता आती है। जैसे मोती चूर का लड्डू सूखे चने के चूर्ण से बनता है और उस सूखे चने के चूर्ण में शक्कर के कारण मधुरता आती है। इसी प्रकार नीरस संसार में आत्मा के सम्बंध से सरसता आती है।

यह नियम है कि जहां सर्वाधिक प्रेम होता है वहीं आनंद का अनुभव होता है।आत्मा समस्त प्राणियों का परम प्रेमास्पद है। क्यूंकि सुख के लिए सब हैं पर सुख किसी और के लिए नहीं है।जो लक्षण आत्मा का है वही सुख का भी है। सच्चा सुख कहीं और है उसकी छाया संसार में पड़ती है तो लगता है कि सांसारिक वस्तुओं में ही सुख है।

इसमें एक दृष्टांत है कि- कोई किसान खेत में काम करते-करते थककर समीप के निर्मल सरोवर में स्नान करने गया। सरोवर के जल में झांककर देखने पर उसे एक मणि दिखाई दी। उस मणि के लोभ से वह बार- बार गोता लगाता रहा पर कंकड़ पत्थर ही हाथ लगते थे। थककर वह कांप रहा था तभी किसी महात्मा ने पूछा क्या खोज रहे हो? उसने बताया कि मैं जल में मणि खोज रहा हूं, वह दिखाई तो पड़ती है किन्तु हाथ नहीं लगती। महात्मा ने कहा,जल से बाहर निकलो।इस पेड़ की शाखा पर चढ़ो जो सरोवर की ओर झुकी हुई है।वह उनकी आज्ञानुसार उस पेड़ की शाखा के ऊपर गया।उस शाखा में चील का घोंसला था, जिसमें मणि रखी थी,जो उसे प्राप्त हो गई।

इस दृष्टांत का संदेश ये है कि सरोवर ही निर्मल चित्त है,आत्मा मणि है, उसका प्रतिबंध चित्त रूपी सरोवर में पड़ रहा है, इसी को भ्रमवश जीव विषय जन्य सुख मानता है। लेकिन यह तो छाया मात्र है,सच्चा सुख तो आत्मा की प्रियता में ही है।