सीधी कांड पर सीधी बात

इस अमानवीय घटना को लेकर अब चर्चा कम होती जा रहीं है। राजनीतिक दलों के अपने-अपने नजरिये हैं, परिस्थितियों के आकलन और प्रतिक्रिया देने के। भाजपा ने इसे कृष्ण-सुदामा जैस प्रतीक में बदलने का असफल प्रयास किया है। भाजपा सरकार न सिर्फ कानून व्ययवस्था को लेकर असफल रही है बल्कि अब तो राज्य में सामाजिक और धार्मिक समभाव भी संकट में दिखाई देने लगा है।

Updated: Jul 10, 2023, 04:58 PM IST

"आने वाली पीढ़ी को कहीं यह न तस्लीम करना पड़े कि भारतीय गणतंत्र हरित पृथ्वी और मासूम आदिवासियों, जो वहां सदियों से निवास करते आये हैं, के विनाश की बुनियाद पर बना है।" : स्व. के.आर. नारायण तत्कालीन राष्ट्रपति - 26 जनवरी 2001

मध्य प्रदेश के सीधी जिले में एक आदिवासी पर एक सवर्ण, जिसे कि भाजपा कार्यकर्त्ता बताया जा रहा है, द्वारा मुंह और सिर पर पेशाब किए जाने के वीडियों के सार्वजनिक हो जाने के बाद उठा बवाल भारत में बढ़ते आपसी वैमनस्य और नस्लीय श्रेष्ठता की नई विकृत मानसिकता का नवीनतम उदाहरण है। सीधी जिले में घटित इस घटना पर "सीधी’’ और "सपाट’’ बात व चर्चा किए जाने की आवश्यकता है। जिस कोल आदिवासी के साथ यह सब घटा है, वह हतप्रभ है, और अब आरोपी को छोड़ देने की बात करता हुआ भी नजर आ रहा है। वह कह रहा है कि आरोपी पंडित है। यह भी सामने आ रहा है कि वह स्वयं के और परिवार के भविष्य को लेकर बेहद डरा हुआ है। एकस्तर पर वह एकदम ठीक नजर आता है, उसे मिला धन मकान बनाना तो सुनिश्चित करवा सकता है, लेकिन क्या उसकी सुरक्षा की गारंटी ली जा सकती है? 

मुख्यमंत्री द्वारा पांव ’’पखारे’’ जाने के बाद भी वह खुद को असुरक्षित क्यों महसूस कर रहा हैं। ऐसा तब है कि जब भारत की राष्ट्रपति आदिवासी है और मध्य प्रदेश के राज्यपाल भी आदिवासी हैं। प्रदेश के मुख्‍यमंत्री अन्‍य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से और आदिमजाति कल्‍याण मंत्री आदिवासी सामज से ही हैं। दोनों सर्वोच्च संवेधानिक पदों पर मौजूदगी के बावजूद आदिवासियों में आत्मविश्वास क्यों नहीं बढ़़ पा रहा है। वैसे मध्य प्रदेश के आदिवासी कल्याण मंत्री की चुप्पी भी हतप्रभ कर रही है।

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सीधी पर "सीधी’’ बात यह है कि प्रदेश की शासन व्यवस्था में व्याप्त ढीलापन लगातार विषम सामाजिक परिस्थितियों को बढ़ावा दे रहा है। गौरतलब है विदिशा में नाबालिग लड़की की आत्महत्या के दोषियों कि गिरफ्तारी न होना और उनके द्वारा मृतका के पिता को धमकाया जाना और इस हद तक प्रताड़ित करना कि उन्होंने भी आत्महत्या कर ली, साफ-साफ बता रहा है कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की क्या स्थिति है। एक अन्य स्थान पर पीड़ित के मुंह में मल भरा जाना। एक घटना में दबंगों द्वारा एक अल्पसंख्यक से अपने तलवे चटवाना। शाजापुर में दलितों को बारात निकालने में डी.जे. न बजाने देना। बुंदेलखंड में दलितों को अपने बच्चों की बारात पुलिस सुरक्षा में निकाले जाने को बाध्य होना। यह ऐसी लंबी फेहस्तित है, जिससे प्रदेश का रोज पाला पड़ता है। 

वहीं, इसका अब एक ही समाधान निकला जा रहा है, बुलडोजर से घरों को तोड़ देना। हमें यह समझना होगा कि एक बुराई से दूसरी बुराई को नष्ट नहीं किया जा सकता। मुहावरों को उनके वास्तविक अभिप्राय से जोड़ना होगा। हमें समझना होगा कि कांटे और मनुष्य में फर्क है। गांधी जी ने बहुत साफ-साफ समझाया है, कि ’’साध्य के लिये साधन की पवित्रता अनिवार्य है।’’ परंतु हम जिस राह पर चल पड़े हैं उसमें हम एक अनीतिकर कार्य को दूसरी अनीति से सुधारना चाहते हैं। आरोपी का घर तोड़ दिए जाने से शासक और शासन  की ’’कठोर’’ छवि बनती है। जबकि वास्तव में राज्य की छवि तो "करूणामयी’’ होना चाहिए। राज्य को कभी भी बदला लेने वाले की भूमिका नहीं निभाना चाहिए। परंतु यह आसान रास्ता है, इसलिए शासन अपनी सुविधा और कठोर छवि निर्माण के लिए इसे सहज ही अपना रहा है।

बघेलखंड में निवास करने वाले कोल अपनी उत्पत्ति से आदिवासी महिलाओं सबरी-कुबरी (शबरी) से मानते हैं। रामकथा में सुबरी का संदर्भ भी मिलता हैं। इनसे जन्मी कोल जनजाति ’’ठकुरिया’’ कही जाती है।यह इनका ’’बान या गोत्र है। बात राम वनवास पर खत्म नहीं हो जाती। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि एक समय कोल जनजाति बघेलखंड में राजनीतिक व आर्थिक रूप से समृद्ध थी। इसके उदाहरण भी मिलते हैं। ’’हर्ष वर्धन’’ के साथ मदुरा से कोल राजा प्रयाग मेले में आया था। इसी दौरान किसी ने उसका मूल स्थान हड़प लिया। लाचार कोल राजा झूसी-प्रयाग में रहने लगा। वेणुवंशियों ने उसे वहां से भी खदेड़ दिया। इसके बाद उसने त्यौथंर (रीवां) में आश्रय लिया। 

कालान्तर में रीवा के बघेलराजा और सेंगर इलाकेदारों के आक्रमणों के बाद विवश राजा अपनी गढ़ी से पलायन कर गया। त्योंथर में आज भीकोल राजा की वह खण्डहर गढी मौजूद है।’’ एक अन्य उदाहरण है कि कोलराज ने अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए स्थानीय ठाकुरों के साथ रोटी-बेटी के संबंध का प्रस्ताव किया। उन्हें यह प्रस्ताव अपमानजनक लगा और उन्होंने भलुआ गांव (त्योंथर क्षेत्र) में उसे रात्रि भोज को बुलाया और उसकी हत्या कर दी । इसके बाद की कोई जनश्रुति नहीं मिलती। इसके ठीक विपरीत एक और जनश्रति के अनुसार ’’सबरी ने राम से केवल कुलवृद्धि का वरदान मांगा था। कुल वृद्धि हो रही है। शिक्षा की भिक्षा को सबरी ने राम से नहीं मांगा था। अतः हम लोग वरदान विरूद्ध कार्य क्यों करें? ऐसा करने से पाप लगेगा। सबरी कीआत्मा दुखी होगी।’’ इन विरोधाभासों के बीच वर्तमान कोल आदिवासी समुदाय जीवन निर्वाह कर रहा है। वर्तमान पर लौटते हैं।

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इस अमानवीय घटना को लेकर अब चर्चा कम होती जा रहीं है। राजनीतिक दलों के अपने-अपने नजरिये हैं, परिस्थितियों के आकलन और प्रतिक्रिया देने के। भाजपा ने इसे कृष्ण-सुदामा जैस प्रतीक में बदलने का असफल प्रयास किया है। भाजपा सरकार न सिर्फ कानून व्ययवस्था को लेकर असफल रही है बल्कि अब तो राज्य में सामाजिक और धार्मिक समभाव भी संकट में दिखाई देने लगा है। केंद्र कहता है ’’रेवड़ियां’’ नहीं बांटना है और मध्‍य प्रदेश तो ’’रेवड़ियों’’ बांटने के अलावा जैसे कुछ कर ही नहीं रहा है। सबसे अधिक आदिवासी समुदाय जिस राज्य में निवास करता हो, वहां पर आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व की शून्यता बेहद गंभीर मसला है। 

कांग्रेस को भी यह समझना होगा कि सीधी की घटना ’’अवसर’’ नहीं बल्कि ’’चुनौती’’ है। उन्हें यह सोचना होगा कि प्रदेश में आपसी सौहार्द कैसे बन पाए। उन्हें भी ’’प्रतिक्रिया’’ की मानसिकता से निकलकर ’क्रिया’’ के मानस में आना होगा। "गंगाजल से पवित्र’’ करना कोई प्रशंसनीय कार्य नहीं है। उन्हें समझना होगा कि किसी के द्वारा गंदगी फेंक देने से कोई अपवित्र नहीं हो जाता। वह महज गंदा होता है पवित्रता और अपवित्रता के चक्कर में पड़ने से तो अंततः सारा झुकाव दक्षिण पंथ की ओर दिखने लगेगा। कर्नाटक में जिस दृढ़ता के साथ  सांप्रदायिक ताकतों को ललकारा गया था, मध्य प्रदेश में अभी वैसी दृष्टि दिखाई नहीं दे रही है। तर्क तो यही होगा कि मध्य प्रदेश और कर्नाटक की स्थितियों में फर्क है। परंतु मानवीय मूल्य और संवेदनाएं तो हर स्‍थान पर हमेशा एक जैसी ही रहतीं है।

सबसे बड़ी जरूरत तो आदिवासियों के प्रति प्रचलित रवैये को बदलने की है। मध्य प्रदेश इसका एक बेहतर उदाहरण बन सकता है। सीधी की घटना ने यह साफ कर दिया है कि आदिवासी समुदाय बेहद कठिन परिस्थिति में रह रहा है। मुख्यमंत्री द्वारा पैर धो देने एवं मकान आदि के लिए धनराशि दे देने से किसी एक आदिवासी की आर्थिक स्थिति में थोड़ा बहुत सुधार हो सकता है। परंतु मामला तो रीवा से लेकर झाबुआ और बड़वानी तक के करीब एक हजार किलोमीटर की दूरी तक फैले आदिवासी समुदाय की दयनीय परिस्थितियों का है। उनकी निजता और उनकी अनूठी संस्कृति को कमोवेश पिछड़ा बताकर उनमें नई धार्मिकता विकसित करने की कोशिश, उन्हें अधिक लाचार बना रही है। सीधी के पीड़ित को मुखर वेदना इसका स्पष्ट प्रमाण है। सबसे बड़ा सवाल उनके विस्‍थापन का है। 

त्रासदी यह है कि उनके भीतर से नेतृत्व को प्रोत्सहित नहीं किया जा रहा और कहीं यदि कोई उनके बीच काम करता है तो वह भारत का नागरिक होते हुए भी ’’बाहरी’’ है, और अंततः उन्हें जिलाबदर कर दिया जाता है। नई शासन व्यवस्था असहमति को बर्दाश्त ही नहीं कर पा रही है। रमणिका गुप्ता लिखतीं हैं, ’’आदिवासी विश्व का सबसे बड़ा जनतांत्रिक समूह है। दुनिया के विकसित व अविकसित देशों को उन्होंने ही जनतंत्र सिखाया है। उनके विचार तो पश्चिमी समाज ने ले लिए, सामायोजित कर लिए, पर उन्हें ही नकार दिया। आज उन्हीं के अस्तित्व पर खतरा है। कहीं ऐसा न हो उनके विचार तो हम ग्रहण कर लें, पर वे ही न रहें। जिन्होंने विश्व को लोकतंत्र, बराबरी भाईचारा, और आजादी की विचारधारा दी, आज उन्हें जिंदा रखना, उनका आदर करना, उन्हें अपनाना तथा उनमें अपने अधिकार हासिल करने की चेतना जगाना और सहयोग करना मानवीयता का तकाजा है।’’

उपरोक्त् कथन के मद्देनजर तो प्रवेश शुक्ल और उसकी मानसिकता सिर्फ एक आदिवासी व्यक्ति नहीं, उस पूरे विचार पर पेशाब कर रही हैं, जिसका विश्वास आपसी भाईचारे और समानता में है। एक पूरे समाज को इतना आतंकित कर दिया जाता है कि उसकी सोच सिर्फ जिंदा रहने की चाहत पर आकर सिमट जाती है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि प्रदेश के तमाम आदिवासी संगठनों से इस मामले में जिस सक्रियता, तात्कालिकता और प्रतिबद्धता की उम्मीद थी, वह कमोवेश धराशाई होती नजर आ रही है। राजनीतिक दलों की भूमिका से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका सामाजिक संगठनों और सामाजिक संस्थाओं की होती है। 

इन सुदूर क्षेत्रों में कार्यरत ये समूह अब मुखरता से बात रखने में कतराने से नजर आ रहे हैं। जेसिता केरकट्टा की कविता सभ्य होते आदिवासी’’ की पंक्तियां हैं, ’’उनका सीखना और शिक्षित होना जारी है / और जारी है / सभ्य होते हुए / अपने आदमीपन से / एक कदम और नीचे गिरने का सिलसिला।’’ सीधी में घटी घटना इन्ही पंक्तियों को सत्यापित करतीं नजर आ रही है। सवाल यह है कि शिक्षित समाज लगातार क्रूरता की ओर क्यों बढ़ रहा है? बुलडोजर संस्कृति किसी भी न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना में सहायक नहीं हो सकती है। 

एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर पेशाब करना हमें समझा रहा है कि जो इतिहास में कभी नहीं हुआ, अब हो रहा है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े बता रहें हैं कि अपराधों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इलेक्ट्रानिक मीडिया को एक आरोपी द्वारा सामान्य तौर पर की जा रही लघुशंका का मखौल बनाकर उसे जलील करने में कोई समस्या नहीं है परंतु एक आदिवासी पर सरेआम पेशाब किये जाने की घटना पर उससे एक ठंड़ी सी प्रतिक्रिया ही सामने आती है। यह बेहद खतननाक परिस्थिति है और उस मीडिया की समाज से रवानगी का सूचक भी है। इस घटना को लेकर विस्तृत विमर्श की आवश्यकता है। 

त्वरित न्याय नहीं बल्कि विश्लेषणात्मक निष्कर्ष पर पहुंचना अनिवार्य है। समय बीतता जा रहा है। जेसिता केरकट्टा ठीक कह रहीं है, "वे हमारे सभ्य होने के इंतजार में हैं / और हम उनके मनुष्य होने के।’’